सैनिक सम्मान रक्षा हेतु कानून बने

जब ऐश्वर्यशाली लोग भारतीय सेना और सैनिकों का मखौल उड़ाते हैं, तो उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती, जबकि किसी फटेहाल नेता के बारे में भी कोई टिप्पणी कर दे, तो उसकी तुरंत गिरफ्तारी हो जाती है. क्या सैनिक और सेना का सम्मान किसी नेता के सम्मान से कम आंका जाना चाहिए?

By तरुण विजय | November 30, 2022 8:09 AM

पिछले सप्ताह मुझे गोरखा सैनिकों की शिखर संस्था अखिल भारतीय गोरखा पूर्व सैनिक कल्याण संगठन के संरक्षक के नाते देशभर से आये गोरखा पूर्व सैनिकों से मिलने का अवसर मिला. आयु में अधिक होते हुए भी उत्साह और वीरता में वे किसी से कम नहीं. उनमें राष्ट्रभक्ति और धर्मनिष्ठा का अद्भुत ज्वार होता है. गोरखा शब्द ही गो रक्षा से आया है. नेपाल में उनका मूल स्थान है और हिंदू धर्म के प्रति अगाध निष्ठा. वे गुरु गोरखनाथ के अनुयायी हैं, जिनकी गद्दी वर्तमान में गोरखपुर है, जहां के यशस्वी प्रमुख योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं.

गोरखाओं ने देश रक्षा हेतु अद्भुत बलिदान दिये हैं. आजाद हिंद फौज के सेनापति नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अनन्य सहयोगी थे मेजर दुर्गा मल्ल. वे देहरादून के रहने वाले थे. इंफाल में हुए भयंकर युद्ध में अंग्रेजों के बहत्तर हजार सैनिक मारे गये थे. उस युद्ध में मेजर दुर्गा मल्ल पकड़े गये और लाल किले में उनको फांसी दी गयी. भारतीय संसद में उनकी मूर्ति प्रतिष्ठित है. बैरिस्टर अड़ी बहादुर गुरुंग भी संविधान सभा के सदस्य थे और उन्हीं की पहल पर तथा नेतृत्व में गोरखा पूर्व सैनिक कल्याण संगठन का गठन हुअा.

आजादी के बाद भी गोरखा वीरता अप्रतिम रही है. चीन के साथ युद्ध में मेजर धन बहादुर थापा को वीरता के शिखर प्रदर्शन हेतु परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था. इस संगठन द्वारा हजारों गोरखा परिवारों के सदस्यों को शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु सहायता दी जाती है. खेद है कि यह राशि अत्यंत नगण्य अर्थात केवल बारह लाख रुपये वार्षिक है, जो कम से कम एक करोड़ रुपये वार्षिक होनी चाहिए.

गोरखा सैनिकों की यह भी मांग है कि उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिले, जिसके लिए केंद्र सरकार उनको आश्वासन देती आयी है. गृहमंत्री अमित शाह के साथ 12 अक्तूबर, 2021 को दार्जिलिंग के भाजपा सांसद राजू बिष्ट के नेतृत्व में हुई चर्चा में दार्जिलिंग, तराई, दूआर के अनेक नेता शामिल हुए थे और विभिन्न विषयों के साथ अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर भी विचार हुआ था. उनके साथ बातचीत में यह भी विषय निकला कि आजकल सेना और सैनिकों का अपमान नया सेकुलर फैशन हो गया है.

सेना में हमारे नौजवान सब कुछ दांव पर लगाकर शामिल होते हैं. बीस-इक्कीस साल की उम्र में जब सपने उमंग भर रहे होते हैं, तब वे सियाचिन के ग्लेशियर से लेकर जैसलमेर के रेगिस्तानों और अरुणाचल के दुर्गम क्षेत्र में कर्तव्य पालन करते हैं और बलिदान भी हो जाते हैं. उनके परिवारों पर क्या गुजरती है, इसका क्या सामान्य भारतीयों को अहसास होता है? लेकिन जब ऐश्वर्यशाली लोग भारतीय सेना और सैनिकों का मखौल उड़ाते हैं, तो उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती, जबकि किसी फटेहाल नेता के बारे में भी कोई टिप्पणी कर दे, तो उसकी तुरंत गिरफ्तारी हो जाती है. क्या सैनिक और सेना का सम्मान किसी नेता के सम्मान से कम आंका जाना चाहिए?

सेकुलर मीडिया पर प्रायः आतंकवादी और संविधान द्वारा नियुक्त न्याय व्यवस्था द्वारा मृत्यु दंड पाये देशद्रोहियों के घरवालों के सहानुभूतिपूर्ण इंटरव्यू पढ़ने को मिलते हैं, लेकिन कश्मीर में आतंकवादियों का सामना करते हुए बलिदान हुए किसी सैनिक के परिजनों के साथ क्या किसी समाचार पत्र में हमने इंटरव्यू देखा? एक सामान्य दर्जे की अभिनेत्री ऋचा चड्ढा द्वारा सेना का अपमान करने पर उसके साथ अनेक सेकुलर पत्रकार खड़े होगे, जिन्होंने कभी हिंदुओं के मानवाधिकारों पर आवाज नहीं उठायी,

जिन्होंने कभी कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा मारे जा रहे मजदूरों पर नहीं बोला, जिन्होंने जीवन में कभी किसी आतंकी संगठन का विरोध नहीं किया, जिनकी लेखनी से दलित महिलाओं पर इस्लामवादियों के अत्याचारों पर एक शब्द नहीं लिखा गया. ऐसी आवाजों पर लगाम क्यों नहीं लगायी जाती? दुर्दांत आफताब ने दलित परिवार से आयी श्रद्धा के पैंतीस टुकड़े कर दिये. किसी भी सेकुलर पत्रकार ने इस बारे में एक शब्द भी भर्त्सना का नहीं बोला.

ये वही तत्व हैं, जो कश्मीर से आतंकवाद के सफाये पर, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर, तीन तलाक खत्म करने पर, खालिस्तान विरोधी मुहिम पर मोदी सरकार का विरोध करते हैं. इनका पाकिस्तान की मीडिया में बहुत स्वागत होता है. पाकिस्तान के विभिन्न विषयों पर जो विचार होते हैं, इन सेकुलर और लिबरल लोगों के विचार हूबहू एक जैसे क्यों हो जाते हैं? इस संबंध में मैंने राज्यसभा में एक विधेयक का प्रस्ताव किया था, जिसका नाम था ‘सशस्त्र सेना सम्मान संरक्षण अधिनियम’.

भारतीय न्यायाधीशों के सम्मान की रक्षा हेतु जिस प्रकार 12 दिसंबर, 1971 को न्यायालय अपमान अधिनियम बनाया गया, उसी प्रकार सैनिकों के अपमान के विरुद्ध कानून बनाये जाने की जरूरत है. राज्यसभा में इसका काफी स्वागत भी हुआ, लेकिन संभवतः सरकार को लगा कि इस पर अधिक विचार की आवश्यकता है. अब समय आ गया है कि सैनिकों के सम्मान की रक्षा हेतु कठोर कानून बना कर प्रतिदिन होने वाली ऋचा चड्ढा जैसी घटनाक्रमों पर रोक लगायी जाए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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