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मुक्त व्यापार पर हिचक कम हो

वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के कारण सुस्त होती जा रही है. ऐसी स्थिति में अगर हमारी व्यापारिक हिस्सेदारी में तीन-चार फीसदी की भी बढ़ोतरी होती है, तो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह बहुत उत्साहजनक होगा.

तीन साल पहले चीन समेत 15 देशों के मुक्त व्यापार समझौते ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ से भारत ने अचानक अपने पैर खींच लिये थे. इस समझौते के लिए बातचीत लगभग 10 वर्षों से चल रही थी, जिसमें भारत की सक्रिय और उत्साहपूर्ण हिस्सेदारी थी. वर्तमान में यह समूह दुनिया की लगभग 30 फीसदी जीडीपी का प्रतिनिधित्व करता है और आंकड़ा बढ़ता जा रहा है. भारत के बिना इस समूह के सदस्यों के बीच 2.3 ट्रिलियन डॉलर का आपसी व्यापार होता है.

इस साल जनवरी से लागू यह समझौता लगभग 90 फीसदी शुल्कों को हटाने की दिशा में कार्यरत है. इस प्रकार यह एक तरह का आर्थिक संघ बन जायेगा. इस समझौते को लेकर भारत को यह आशंका थी कि शुल्क-मुक्त चीनी सामानों से घरेलू बाजार भर जायेगा, लेकिन चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा बीते तीन सालों से लगातार बढ़ रहा है.

साथ ही, लद्दाख में झड़प के बावजूद कुल आपसी व्यापार में भी बढ़ोतरी हो रही है. भारत की जीडीपी वृद्धि भी पटरी पर आती दिख रही है और सात-साढ़े सात फीसदी दर की ओर अग्रसर है. कई वैश्विक निवेशकों की रणनीति ‘चाइना प्लस वन’ से भारत को भी आखिरकार फायदा होगा, क्योंकि वे चीन से बाहर वियतनाम, थाईलैंड, भारत जैसे देशों में फैक्ट्री लगाना चाहते हैं.

क्षेत्रीय भागीदारी समझौते में शामिल न होकर भारत ने इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्स्टाइल, ऑटोमोटिव जैसे क्षेत्रों से संबंधित आपूर्ति शृंखला में निवेश आकर्षित करने का मौका शायद कम कर दिया है. निवेशक वहां निवेश करना चाहते हैं, जहां पूरी मूल्य शृंखला उपलब्ध हो और अगर अलग-अलग देशों में निवेश करना पड़े, तो वे समझौते में शामिल देशों को वरीयता देंगे, ताकि वस्तुओं की आवाजाही आसानी से हो सके.

इसलिए, लगता है कि केवल व्यापार घाटे पर संकीर्ण ध्यान देकर भारत से मूल्य शृंखला की बस छूट गयी है. सनद रहे, इस समझौते में शामिल 15 में से 12 देशों के साथ भारत का पहले से ही मुक्त व्यापार समझौता था और अब ऑस्ट्रेलिया से भी ऐसा समझौता हुआ है. दुनिया में तीन बड़े व्यापार समूह- क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी के अलावा ट्रांस पैसिफिक भागीदारी और इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क- हैं,

जिनके तहत एशिया का बड़ा हिस्सा आता है. हाल में बने फ्रेमवर्क में 14 देश हैं, जबकि ट्रांस पैसिफिक भागीदारी में 11 देश हैं. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, वियतनाम, जापान और ब्रुनेई तीनों समूह के सदस्य हैं. भारत केवल एक का सदस्य है. चीन दो समूह में नहीं है, क्योंकि ये समूह चीन को बाहर रखने के लिए ही बनाये गये हैं.

ट्रांस पैसिफिक भागीदारी पहले के ऐसी भागीदारी का नया रूप है, जिसका नेतृत्व राष्ट्रपति ओबामा के समय अमेरिका करता था, पर ट्रंप प्रशासन ने इससे अपने को अलग कर लिया था. नये समूह में अभी अमेरिका शामिल नहीं हुआ है. यह केवल एक व्यापार समझौता नहीं था, बल्कि इसका एक उद्देश्य एशिया में भविष्य के व्यापार नियमों को प्रभावित करना तथा चीन के बढ़ते वर्चस्व का प्रतिकार करना भी था.

इसीलिए इसमें निवेश नियमों, श्रम एवं पर्यावरण मानकों, मूल्य शृंखला का अंतरसंबंध व्यापक करना जैसे अनेक प्रावधान भी हैं. ट्रांस पैसिफिक भागीदारी महत्वाकांक्षी है और अब यह इतना आकर्षक हो गया है कि चीन भी उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. दक्षिण कोरिया और ब्रिटेन भी सदस्यता के इच्छुक हैं. ध्यान रहे, 2018 से ही जापान का मुक्त व्यापार समझौता यूरोपीय संघ से है. इसका अर्थ यह है कि यूरोपीय संघ का भी एक पैर इसमें है.

इस समझौते (और चीन के नेतृत्व वाले भागीदारी समझौते से भी) से अलग रहने का खामियाजा अमेरिका भुगत रहा है. उसके व्यापार अवसर छूट रहे हैं और उसका भू-राजनीतिक प्रभाव सिमट रहा है. यही कारण है कि इंडो-पैसिफिक फ्रेमवर्क की स्थापना के लिए उसने अतिसक्रियता दिखायी है. इस समूह में 14 देश हैं और वैश्विक जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी 28 फीसदी है.

इसके चार आधार हैं- व्यापार, आपूर्ति शृंखला, कराधान और भ्रष्टाचार विरोध तथा स्वच्छ ऊर्जा. फ्रेमवर्क का कोई भी सदस्य इनमें से किसी आधार से अलग हो सकता है. यहां भी भारत ने अपनी हिचकिचाहट दिखाते हुए अपने को व्यापार से अलग रखा है. भारत के व्यापार मंत्री ने कहा कि चूंकि श्रम एवं पर्यावरण मानकों, डिजिटल व्यापार और सार्वजनिक खरीद जैसे मुद्दे शामिल हैं तथा इन पर सदस्यों में आम सहमति नहीं है, इसीलिए भारत ने अपने को अलग रखा है. उन्होंने यह भी संकेत दिया कि अमेरिका और जापान जैसे देशों द्वारा थोपे गये उच्च श्रम मानक भारत जैसे विकासशील देश के लिए बाधक हो सकते हैं.

इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि भारत निम्न श्रम सुरक्षा मानकों का अनुपालन करता रहेगा या फिर पर्यावरण के लिए खतरनाक उद्योगों को कमजोर कानूनों के जरिये बढ़ावा देता रहेगा, ताकि वैश्विक व्यापार में उसकी हिस्सेदारी में बढ़ोतरी हो, लेकिन वे दिन अब अतीत हो चुके हैं. भारत ने पश्चिम के ढर्रे पर श्रम एवं पर्यावरण मानकों को अपनाने का वादा किया है, क्योंकि वह यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौते के लिए प्रयासरत है.

ऐसे में व्यापार से अलग रहने का क्या तुक है? असल में, क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी से अलग होने के तुरंत बाद से भारत सक्रियता के साथ ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, संयुक्त अरब अमीरात, कनाडा और यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौतों के लिए कोशिश करता रहा है. फिर इंडो-प्रशांत भागीदारी जैसे बहुपक्षीय समझौतों में शामिल होने में हिचक क्यों है? भारत का विकास मुख्य रूप से उत्पादन और सेवा के क्षेत्र में वैश्विक प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है.

हमें अंतरराष्ट्रीय व्यापार में खुलेपन के सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्ध रहना होगा. हमारे शुल्क उदार होने चाहिए तथा हमें घरेलू उद्योग को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए लगातार संरक्षण देने के उपायों से भी परहेज करना होगा. वैश्विक भागीदारी से मूल्य संवर्द्धन के साथ रोजगार के अवसर भी बनेंगे. ‘चाइना प्लस वन’ से पैदा हुए मौके हमेशा नहीं होंगे. यह हमारे व्यापक हित में है कि हम हर क्षेत्र में मुक्त या लगभग मुक्त व्यापार को अपनायें.

वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के कारण सुस्त होती जा रही है. ऐसी स्थिति में अगर हमारी व्यापारिक हिस्सेदारी में तीन-चार फीसदी की भी बढ़ोतरी होती है, तो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह बहुत उत्साहजनक होगा. और, यह तभी संभव होगा, जब हम खुले और मुक्त व्यापार को लेकर कम आशंकित होंगे.

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