इस्राइल में फिलिस्तीनी आतंकवादी संगठन हमास की ओर से अचानक हुआ हमला, 50 साल पहले हुई एक लड़ाई की बरसी पर हुआ है. इस्राइली इसे यॉम किप्पर युद्ध और अरब देश इसे छह अक्टूबर की लड़ाई कहते हैं. वर्ष 1973 के छह अक्टूबर को मिस्र और सीरिया ने इसी तरह इस्राइली सेनाओं पर अचानक से हमला किया था. स्वेज नहर और गोलन पहाड़ियों के विवाद को लेकर किया गया ये एक बड़ा सुनियोजित हमला था. इस हमले के बाद इस्राइली जासूसी संगठनों मोसाद और शिन बेत की नाकामी को लेकर बड़ा हंगामा हुआ था. इसे लेकर तब एक राजनीतिक भूचाल की स्थिति आ गयी थी, और तत्कालीन इस्राइली प्रधानमंत्री गोल्डन को जबरदस्त धक्का लगा. उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और उनकी लेबर सरकार गिर गयी. इस मामले की बाद में जांच हुई, जिसमें पता चला कि यह एक बड़े पैमाने पर हुई खुफिया नाकामी थी. इस बार भी ठीक यही हुआ है. हमास के हमले के बाद स्पष्ट हो गया है कि मोसाद और शिन बेत की तैयारी धरी की धरी रह गयी.
इस हमले को लेकर दो और सवाल उठते हैं. पहला सवाल इस्राइल और सऊदी अरब के संबधों का है. पिछले कई महीनों से इस्राइल और सऊदी अरब के संबंधों के सामान्य होने की चर्चा हो रही है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन दोनों देशों के बीच एक समझौता करवाने की कोशिश कर रहे हैं. हमले से पहले अमेरिकी अधिकारी इस्राइल और सऊदी अरब के साथ मिलकर फिलिस्तीनियों की मांगों को लेकर इस्राइल के साथ सौदेबाजी की कोशिश कर रहे थे. इसमें बहुत जल्द सफलता भी मिलनेवाली थी, मगर हमास के हमले के बाद ऐसा लगता है कि इस प्रक्रिया में खलल पड़ गयी है. अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि यह लड़ाई कितनी लंबी खिंचती है, और इस्राइल की प्रतिक्रिया कैसी होती है और इस संघर्ष मे दूसरे देश भी लिप्त होते हैं कि नहीं.
दूसरी बात यह है कि दोनों पक्षों में संधि को लेकर चार मांगें थीं, जिनमें से तीन को मान लिया गया था. ये मांगें परमाणु रिएक्टर, अत्याधुनिक हथियार और रक्षा संधियों को लेकर थीं. मगर, चौथी मांग फिलिस्तीनियों के बारे में थी, जिसमें अलग देश फिलिस्तीन को लेकर टू-स्टेट सॉल्यूशन सुझाया गया है. इसके तहत इस्राइल को वेस्ट बैंक में अपनी मौजूदगी को खत्म कर देना था. लेकिन, इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इसे लेकर बाइडेन को साफ मना कर दिया था. उन्होंने कहा था कि वह इसे लेकर आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि इस मुद्दे पर उनकी सरकार या तो गिर जाएगी या वह अल्पमत में आ जाएगी, और जो समझौता होनेवाला है उस पर भी ग्रहण लग जाएगा. अब यह समझौता करवाने के बाइडेन के प्रयासों के बीच ही यह हमला हो गया है, जिससे नेतन्याहू को एक अच्छा मौका मिल गया है. अब वह एक राष्ट्रीय एकता वाली सरकार बनाने का प्रयास करेंगे, जिसमें छोटी पार्टियों पर निर्भर रहने की जगह अब वह लेबर पार्टी या दूसरे बड़े सहयोगियों को मिलाकर एक राष्ट्रीय एकता की सरकार बनाएंगे.
इसके साथ ही इस्राइल में पिछले कुछ समय से न्यायिक सुधारों की भी काफी चर्चा चल रही थी, और इस मुद्दे से भी नेतन्याहू की स्थिति कमजोर हुई थी. इस्राइली सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीश नेतन्याहू के खिलाफ मामले आगे बढ़ा रहे थे और उन्होंने साफ कह दिया था कि नेतन्याहू का जेल जाना तय है. तो इसराइल के हिसाब से ये दो घरेलू पहलू हैं, जिनपर इस हमले का प्रभाव होगा. इनके अलावा एक तीसरी बात यह भी है इस्राइल ने गाजा की सीमा पर ऐसे ही हमलों को रोकने के लिए एक विशेष सेना तैनात कर रखी थी, जिसमें 40-45 हजार इस्राइली सैनिक मौजूद थे. लेकिन, पिछले चार-पांच महीनों में उन्हें वहां से हटाकर वेस्ट बैंक भेज दिया गया था, जहां तनाव बढ़ गया था और कई शहरों में सशस्त्र विद्रोह शुरू हो गया था. ये सैनिक वेस्ट बैंक में प्रदर्शनों को काबू करने के लिए भेज दिये गये और इसी बीच गाजा की सीमा पर यह हमला हो गया. हमास के हमले को एक बड़ा आतंकवादी हमला कहा जा रहा है, और अब इस्राइल भी इसे दुनिया में इसी तौर पर पेश करेगा.
वह कहेगा कि इसके पीछे ईरान और लेबनान का गुट हिज्बुल्ला का हाथ है. इस हमले के बाद अब रूस-यूक्रेन युद्ध का मुद्दा पीछे चला जाएगा और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की चर्चा का केंद्र अब पश्चिम एशिया बन जाएगा. पिछले समय में इस इलाके में अमेरिका का प्रभाव कम हुआ था. मगर अब अमेरिका फिर से इस इलाके में इस्राइल और सऊदी अरब के साथ रक्षा समझौते करेगा. अमेरिका ने अभी इस्राइल को समर्थन देने के लिए अपनी नौसेना के जो जहाज भूमध्यसागर में भेजे हैं, अब वो वहीं तैनात रहेंगे. साथ ही, बहरीन व ओमान जैसे देशों में अमेरिका के जो सैन्य अड्डे हैं, वहां अब वो अपने युद्धक विमान तैनात रखेगा. इसकी वजह से चीन को नियंत्रित करने की कोशिशें भी प्रभावित हो सकती हैं. यह कहा जा सकता है कि हमास और इस्राइल के बीच छिड़ी लड़ाई से ईरान और चीन को फायदा होगा तथा अब यूक्रेन युद्ध को भूलकर इस्राइल और अरब जगत की चर्चा ज्यादा होगी.
हमास के हमले को लेकर मुस्लिम जगत से भी खुलकर कोई भी किसी का विरोध या तरफदारी करता नहीं दिखाई दे रहा है. इसकी वजह अमेरिका का दबाव है. इसलिए ये देश संयम रखने और मध्यस्थता आदि की बात कर रहे हैं. ना तो मुस्लिम देशों के संगठन ओआइसी ने अभी तक कोई बैठक बुलाई है और ना ही अरब लीग की कोई बैठक हुई है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की भी बैठक नहीं हुई है. इससे साफ जाहिर है कि संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, जॉर्डन और सऊदी अरब जैसे देशों पर अमेरिका का प्रभाव है. हमास के समर्थन में केवल कुवैत, ईरान, इराक और तुर्की में प्रदर्शन हुए हैं. मुस्लिम देश इस हमले के बाद बंटे दिखाई दे रहे हैं. अमेरिका अब आतंकवाद को मुद्दा बनायेगा और इन देशों के चीन और रूस के साथ बढ़ते संबंध और व्यापार को कम करवाने के लिए दबाव बनायेगा. अमेरिका अब आतंकवाद के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई जारी रखने की कोशिश करेगा. वह हमास तथा हिज्बुल्ला के अलावा यमन के हूती विद्रोहियों को भी खत्म करने की बात करेगा. इसके बाद वह इन गुटों को समर्थन देनेवाले देश ईरान को सारे संकट की जड़ बताकर उसके खात्मे की भी बातें करेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
(बातचीत पर आधारित)