ब्रिटेन में नीतिगत संकट के सबक

ऐसे समय में, जब मुद्रास्फीति ऐतिहासिक रूप से 10 प्रतिशत के स्तर पर है, भारी टैक्स कटौती और वित्तीय विस्तार की घोषणा करना वित्तीय उतावलापन ही था. इस नीति से केवल मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी होती. इसलिए सरकार को पीछे हटना पड़ा और कर कटौती को स्थगित करना पड़ा.

By अजीत रानाडे | October 19, 2022 7:55 AM

बीते छह साल में ब्रिटेन में चार प्रधानमंत्री हो चुके हैं. हाल ही में नये वित्तमंत्री को लघु बजट पेश करने के 38 दिन के भीतर हटा दिया गया. यह तब हुआ है, जब इस बजट में बहुत से करों में कटौती हुई थी और बढ़ते ऊर्जा खर्च से राहत देने के लिए परिवारों को वित्तीय सहायता देने का प्रावधान भी था, लेकिन कटौती पर खुशी जाहिर करने की जगह वित्तीय बाजार ने वित्तीय तंत्र को ढहने के कगार पर ला दिया. गिरावट को थामने के लिए सरकार को बॉन्ड मार्केट में हस्तक्षेप करना पड़ा.

यह उस देश में अपेक्षित नहीं था, जहां दुनिया का सबसे बड़ा वित्तीय केंद्र है. ऐसी कई अन्य विसंगतियां भी हैं. कंजर्वेटिव पार्टी पिछले 12 साल से सत्ता में है. फिर भी अपनी छवि, जो करों में कटौती करने की रही है, के उलट करों में बढ़ोतरी हुई है. प्रधानमंत्री लिज ट्रस के नेतृत्व में चल रही मौजूदा सरकार को कर वृद्धि के समर्थक होने की नुकसानदेह छवि से पार्टी को छुटकारा दिलाने के लिए बड़ी टैक्स कटौती करना था या शायद प्रधानमंत्री का मानना था कि टैक्स कटौती से आर्थिक वृद्धि को मदद मिलेगी या फिर वे समझ रही थीं कि ऐसा करने से राजस्व बढ़ेगा, जैसा कि आपूर्ति पक्ष के अर्थशास्त्री मानते हैं.

हटाये गये वित्तमंत्री का प्रस्ताव था कि उच्च कर दरों को घटाया जाए और समूचे कराधान को 20 से 19 फीसदी के स्तर पर लाया जाए. कॉरपोरेट टैक्स दरों को भी 25 फीसदी बढ़ाने की जगह 19 प्रतिशत रखने का प्रस्ताव था. समस्या यह थी कि छूट का अधिकांश लाभ (लगभग 50 प्रतिशत) सर्वाधिक आय वाले शीर्ष के पांच प्रतिशत लोगों को मिल रहा था. जब विषमता बढ़ती जा रही हो, तो ऐसा प्रस्ताव अच्छा नहीं माना जा सकता है और यह भी स्पष्ट नहीं था कि छूट देने से नये निवेश को बढ़ावा मिलेगा.

वास्तव में, कॉरपोरेशन अधिक लाभ दिखायेंगे न कि नयी परियोजनाओं में नया निवेश. अधिक लाभ से उनके शेयर मूल्य बढ़ेंगे न कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी). टैक्स छूट से राजस्व बढ़ने के तर्क के बावजूद हमने भारत समेत कई देशों में देखा है कि सामान्य कटौती से राजस्व नहीं बढ़ता. यह सोच तब अर्थपूर्ण हो सकती है, जब करों की दरें बहुत अधिक, जैसे 95 प्रतिशत, हों. भारत में सत्तर के दशक में ऐसा था, पर जब दरें 25 प्रतिशत के आसपास हैं, तो कटौती से राजस्व बढ़ने का सिद्धांत कारगर नहीं हो सकता.

ब्रिटिश सरकार के कटौती प्रस्ताव बीते 50 वर्षों में सबसे अधिक कटौती के थे. इसलिए राजस्व में कमी के अनुमान को देखते हुए वित्तमंत्री ने करीब 60 अरब पाउंड कर्ज लेने की भी घोषणा की थी. वित्तीय निवेशकों ने टैक्स कटौती और उधार में वृद्धि को नकार दिया. आप इन निवेशकों को मूर्ख नहीं बना सकते हैं, खासकर तब, जब आपका बजट भरोसेमंद नहीं हो. बॉन्ड धड़ाधड़ बेचे जाने लगे और उनके मूल्य में बड़ी गिरावट आयी.

इसका मतलब यह हुआ कि जिन कोषों के पास ये बॉन्ड अधिक थे, उनका मूल्य भी घटा. इसका असर बड़े पेंशन कोषों पर हुआ, जो अपने ब्याज दर के जोखिम को बचाने के लिए बॉन्ड जैसी चीजों में पैसा लगाते हैं. इस कमी की भरपाई के लिए उन्हें अपने कोष में नगदी डालना पड़ा. यह पैसा बॉन्ड जैसी नगद परिसंपत्तियों को बेचकर जुटाना पड़ा.

यह सब नियंत्रण से बाहर जा रहा था और ब्रिटिश सरकार को पूरी गिरावट तक स्थिति न जाने देने के लिए बीच में आना पड़ा. इस हस्तक्षेप की कीमत 62 अरब पाउंड थी, जो किसी विकसित देश के लिए अभूतपूर्व मामला था. वित्तीय तंत्र पूरी बर्बादी के स्तर के निकट आ गया. आम तौर पर कूटनीतिक रहने वाले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी कड़े शब्दों में बजट प्रस्तावों की आलोचना की. ऐसे समय में, जब मुद्रास्फीति ऐतिहासिक रूप से 10 प्रतिशत के स्तर पर है, भारी टैक्स कटौती और वित्तीय विस्तार की घोषणा करना वित्तीय उतावलापन ही था.

इस नीति से केवल मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी होती. इसलिए सरकार को पीछे हटना पड़ा और कर कटौती को स्थगित करना पड़ा. अब नये वित्तमंत्री को अपना रंग-ढंग दिखाना है. अगर अस्थिरता जारी रहती है, तो प्रधानमंत्री को भी अपना पद छोड़ना पड़ सकता है.

ब्रिटेन के इस संकट से अनेक सबक लिये जा सकते हैं. जब आय और संपत्ति की विषमता बहुत अधिक हो जाती है, तो आप ट्रिकल डाउन अर्थशास्त्र की शरण नहीं लेते हैं. कहने का अर्थ यह है कि आप शीर्ष के सबसे अधिक आमदनी वाले तबके के लिए इसलिए करों में छूट नहीं देते कि आपको आशा रहती है कि उनके अधिक खर्च करने से निचले पायदानों पर खड़े लोगों के लिए आखिरकार रोजगार और आय के अवसर पैदा होंगे.

जब बहुत अधिक अनिश्चितता है, यह केवल यूक्रेन के अंतहीन युद्ध के कारण नहीं है, तो इसकी संभावना नहीं दिखती कि धनी लोग करों में छूट से नया निवेश करेंगे. जब मुद्रास्फीति चरम पर है, तब आप वित्तीय विस्तार नहीं करते हैं. इस संबंध में भारतीय वित्त मंत्री ने भी अगले बजट के संभावित निर्देश के तौर पर संकेत किया है. जब तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं, तो कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की जगह मुनाफा कमा रही कंपनियों की कमाई पर कर लगाना चाहिए. इसे ब्रिटेन में आजमाया भी जा चुका है.

भारत भी तेल कंपनियों के साथ ऐसे प्रयोग कर रहा है. नया निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर में सार्वजनिक निवेश से आ सकता है, जिससे निजी निवेश भी आकर्षित हो सकता है. इसलिए वित्तीय संसाधनों को ऐसे नये निवेशों के लिए बचाया जाना चाहिए, न कि उन्हें कर कटौती में गंवा देना चाहिए. साथ ही, वित्तीय प्रणाली के स्थायित्व पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए.

ब्रिटेन के अनुभव ने दिखाया है कि पेंशन कोषों के अन्य निवेशों के कारण बॉन्ड गिरे और इस तरह एक दुष्चक्र बन गया. इसका अर्थ यह है कि वित्तीय तंत्र की मजबूती अधिक होनी चाहिए. यदि भारत में शेयर बाजार में बड़ी बिकवाली होती है, तो क्या इसका खराब असर अन्य निवेशों और जमा पर भी होगा? क्या बैंकों का जोखिम बहुत अधिक है या वह कहीं-कहीं केंद्रित है? ये कुछ सबक हैं, जिनका संज्ञान लिया जाना चाहिए. अच्छी बात यह है कि ब्रिटेन में सरकार ने जिम्मेदारी और जवाबदेही दिखाते हुए तुरंत अपनी गलती सुधार ली है तथा बजट को वापस ले लिया गया है.

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