जीवनशैली से ही संकट में जीवन
सभी लोग अगर प्रकृति के प्रति समान दृष्टि रखेंगे और उसको संजोने का काम करेंगे, तभी हम प्रकृति को बचा पायेंगे. उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण पहलू होगा कि हम फिर सरल जीवनशैली का आह्वान करें.
यह तो तय है कि अगर प्रकृति को बचाना हो और पर्यावरण की रक्षा करनी हो, तो सबसे पहला और बड़ा कदम अपनी जीवनशैली दुरुस्त करने का ही होना चाहिए. आज जिस तरह तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है और फरवरी अप्रैल जैसा दिखने लगा हो और कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन के उत्सर्जन दर में कमी न दिखती हो, वायु प्रदूषण, जल संकट व वनों के हालात अगर गंभीर हो रहे हों, तो कारणों को ढूंढना सबसे महत्वपूर्ण विषय होना चाहिए.
स्पष्ट है कि इन सब पर मनुष्य की जीवनशैली का दुष्प्रभाव पड़ा है. यह मात्र भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस यही दोहरा रहे हैं कि शायद हमें अब अपने विकास के बारे में दोबारा सोचना पड़ेगा, जिसका एकमात्र लक्ष्य विलासी जीवन शैली है. शुरू में हम आवश्यकताओं के लिए प्रकृति का दोहन करते थे, अगर इस मंत्र को फिर जपें, तो शायद हमारी वापसी की संभावनाएं बन सकती हैं. अन्यथा 21 सौ के अंत तक हम सब कुछ खो देंगे.
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि हमें अपनी जीवनशैली से पर्यावरण को जोड़कर देखना चाहिए क्योंकि अनुकूल जीवनशैली ही वातावरण को अनुकूल बना सकेगी. उन्होंने यह भी कहा था कि मात्र नीति के स्तर पर कुछ भी संभव नहीं है, बल्कि बड़ी जरूरत है कि सभी लोग अगर प्रकृति के प्रति समान दृष्टि रखेंगे और उसको संजोने का काम करेंगे, तभी हम प्रकृति को बचा पायेंगे. उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण पहलू होगा कि हम फिर सरल जीवनशैली का आह्वान करें.
हम पृथ्वी पर संसाधनों का समझदारी से प्रयोग करें. भारत ही अकेला ऐसा देश है, जहां विभिन्न तरह के संस्कार शुरुआती दौर से ही प्रकृति के संरक्षण के साथ जोड़ कर देखे जाते हैं. यहां नदी, हवा, मिट्टी, पानी को देवतुल्य माना गया है. इनकी पूजा की जाती है. इनका संरक्षण हमारी पौराणिक परंपराओं का हिस्सा रहा है. यहां जीवन को महत्व देते हुए संसाधनों के सही उपयोग का शास्त्रों में वर्णन रहा है.
हम चाहे जितने दावे कर लें, पर सच यही है कि हम आज भी वनों को लेकर अपने को सुरक्षित नहीं कह सकते क्योंकि वनों का क्षेत्र देश में भले बढ़ रहा हो, लेकिन वनों की प्रजाति को लेकर अब भी सवाल खड़े हैं. वन विभाग कितना प्रकृति के प्रति इस समझ को रखता है कि कौन से वृक्ष लगाये जाने चाहिए. अगर उत्तर भारत में सागौन के वनों का रोपण होता हो और चीड़ का बढ़ता प्रतिशत हिमालय के स्थानीय वनों को लील लेता हो, तो वनों की यह बढ़त बेहतर दर्जे में नहीं रखी जा सकती है. देश वनों के मिशन पर तो जुटा है, लेकिन वनीय प्रजातियों की समझ अभी कमजोर है.
हवा, मिट्टी, पानी से वन एक लगाव रखते हैं और एक संतुलन बनाते हैं. इसलिए प्रजातियों के चयन का बड़ा सवाल हमारे सामने बना हुआ है. इन वनों की कृपा से मिट्टी बनती है, जिसमें हम पनपते हैं. गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, महानदी आदि तमाम नदियां मिट्टी को ढोती हैं, जिसमें अन्न पनपता है. आज हमने इस मिट्टी को दरकिनार कर रासायनिक खादों का पुरजोर प्रयोग कर दिया है. ऐसी जीवनशैली जीवन को संकट में डालती ही है. हम दुनिया के तीसरे सबसे बड़े देश हैं, जहां पर रासायनिक खादों का अत्यधिक उपयोग होता है.
विकास का एक बहुत बड़ा हिस्सा ढांचागत विकास है. लंबी-चौड़ी सड़कें हैं, उन पर ढेर सारी गाड़ियों की आवाजाही को हमने विकास का सूचक माना है. लेकिन अब यह साफ हो गया है कि हमारे ढांचागत विकास के कार्य पारिस्थितिकी से जुड़े नहीं हैं. अपने देश में भी इस तरह के विकास से प्रदूषण पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है. गाड़ियों की लगातार बढ़ती संख्या ने हमारे उन तमाम प्रयोगों को असफल कर दिया है, जो हम प्रदूषण से बचने के लिए करते हैं.
हम पेट्रोल के साथ इथेनॉल की कल्पना में लगे हैं, लेकिन इथेनॉल के आधार कहां से और कैसे होंगे? उस पर भी हम बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं. हम दुनिया में उन देशों में से एक हैं, जहां 60 से 70 प्रतिशत निर्भरता अभी भी जैविक ऊर्जा पर है. हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती इसको घटाना है, जिसकी कोशिशें जारी हैं. आज भी 6.7 गीगावॉट उत्पादन परमाणु ऊर्जा से हो रहा है. हमारी 166 गीगावाट बिजली नवीनीकरण स्रोतों (सोलर आदि) से प्राप्त हो रही है.
हम इस ओर तो लगे हैं, लेकिन ज्यादा बड़ी चिंता इस बात की है कि हमें अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता सिर्फ इसलिए पड़ रही है क्योंकि हमने अपनी जीवनशैली को बदल दिया है. हमने एक तरह से आरामदेह जीवन को लक्ष्य बना लिया है और उसे ही विकास का सूचक मानते हैं. यह आने वाले समय में हमको भारी पड़ने वाला है.
आज चाहे वह गांव हो या शहर, किसी न किसी रूप में पर्यावरण क्षति की चपेट में आने शुरू हो चुके हैं क्योंकि कूड़ा-कचरा अब देश के गांवों में भी उतनी ही मात्रा में दिखाई देता है, जितना शहरों में. यह भी मान लेना चाहिए कि गांव में किसी भी तरह का बढ़ता प्रदूषण ज्यादा भारी इसलिए पड़ेगा क्योंकि नदियां, जंगल, मिट्टी गांव और उसके चारों तरफ के वनों की ही देन हैं. गांव यदि किन्हीं कारणों से प्रकृति के प्रति असुरक्षित हुए, तो इसका सीधा और बड़ा असर सारी दुनिया पर पड़ेगा और अपने देश पर खासतौर से.
इसलिए आज आवश्यक हो चुका है कि हम गांव से दो बातें बड़ी गंभीरता से सीख सकते हैं, जिनकी अपनी सरल जीवनशैली के अलावा संसाधनों पर एक सुरक्षित निर्भरता है. उनके भोजन से लेकर पानी और हवा सबकी निर्भरता स्थानीय तरीके से ही तय होती है. इन्हीं साढ़े छह लाख गांवों से देश के पर्यावरण की सुरक्षा हो सकती है.
यह चिंतन आज का सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय होना चाहिए. मात्र नारों से हम सफल नहीं हो पायेंगे क्योंकि सरकारों की भी एक सीमा होती है और उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे देश को स्वच्छ और साफ रखें. देश के सभी लोगों को, जिन्हें जीवन का लालच है, इस रूप में भी आगे आना चाहिए कि वे प्रकृति को भोगने वाले जीव हैं, इसलिए उनको भी बहुत गंभीरता के साथ प्रकृति के संरक्षण के लिए खड़ा होना होगा. तभी हम बढ़ते तापमान और जलवायु संकट की चुनौतियों का समाधान कर सकेंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)