बढ़ते तापमान से मुश्किल में जीवन

हमने अपनी जीवनशैली को कुछ इस तरह बना दिया है कि अब हम उन आवश्यकताओं से बहुत ऊपर उठ गये हैं जो जीवन का आधार मात्र थीं.

By डॉ अनिल प्रकाश जोशी | June 4, 2024 7:34 AM

इस बार पर्यावरण दिवस पर यूनाइटेड नेशंस ने जिस विषय पर चर्चा का आह्वान किया है, वह बंजर पड़ती जमीन और बढ़ता मरुस्थल है. पर्यावरण के आज के हालात कम-से-कम यह तो समझा ही रहे हैं कि सब कुछ अब हमारे नियंत्रण से बाहर जा रहा है. इस बार के ग्रीष्म काल को ही देख लीजिए, जिसने फरवरी से ही गर्मी का अहसास दिला दिया और जून में पहुंचते-पहुंचते इसने प्रचंड रूप दिखा दिया है. पूरी दुनिया में औसत तापक्रम बढ़ा है. दुनिया में अब प्रचंड गर्मी के दिन धीरे-धीरे बढ़ते चले जा रहे हैं. आज दुनिया में 80 प्रतिशत लोग गर्मी झेल रहे हैं. पहले इस तरह के दिनों की संख्या 27 प्रतिवर्ष के आसपास होती थी, आज वर्ष में 32 दिन ऐसे हैं जो खतरे की सीमा तक गर्मी को पहुंचा देंगे. बिहार, जैसलमेर, दिल्ली समेत देश के तमाम कोनों से खबरें आ रही हैं कि हीटवेव ने परिस्थितियां बदतर कर दी हैं.

बढ़ती गर्मी का सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि हमने पृथ्वी और प्रकृति के बढ़ते असंतुलन की तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया. दुनियाभर में एक-एक कर प्रकृति के सभी संसाधन या तो बिखर गये या फिर घटते चले गये. हमने अपनी जीवनशैली को कुछ इस तरह बना दिया है कि अब हम उन आवश्यकताओं से बहुत ऊपर उठ गये हैं जो जीवन का आधार मात्र थीं. हमने विलासिताओं को भी आवश्यकताओं में बदल दिया है, जिनके चलते पृथ्वी के हालात गंभीर होते चले गये. हमारी जीवनशैली में आया बदलाव, बढ़ता शहरीकरण और ऊर्जा की अत्यधिक खपत के कारण ग्लेशियर हो या नदियां, सूखने की कगार पर पहुंच चुकी हैं.

दुनिया में करीब 24 प्रतिशत भूमि अब मरुस्थलीय लक्षण दिखा रही है और इसमें भी कुछ देश तो ऐसे हैं, जिनमें हालत ज्यादा गंभीर हैं. इनमें बोलीविया, चिली, पेरू में तो 27 से 43 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीय हो चुकी है. अर्जेंटीना, मेक्सिको, प्राग के भी ऐसे ही हालात हैं जहां की 50 प्रतिशत से अधिक भूमि बंजर हो चुकी है. आज दुनियाभर में बढ़ते ग्रासलैंड व सवाना जैसे मरुस्थल इसी ओर संकेत करते हैं कि ये भूमि उपयोगी नहीं रही. मरुस्थलीय परिस्थितियां उसे कहते हैं जहां कुछ भी पैदा होना संभव नहीं होता. पूरी धरती लवणीय हो जाती है और पानी की भारी कमी हो जाती है.

अपने देश में यह मानकर चला जा रहा है कि 35 प्रतिशत भूमि पहले ही डिग्रेड हो चुकी है और इसमें भी 25 प्रतिशत मरुस्थलीय बनने की राह पर है. ऐसी स्थिति अधिकतर उन राज्यों में है जो संसाधनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे. जैसे झारखंड, गुजरात, गोवा. इनमें दिल्ली और राजस्थान भी शामिल हैं. इन क्षेत्रों में 50 प्रतिशत से अधिक भूमि बंजर पड़ने के लिए तैयार बैठी है. जरा सी राहत की बात यह है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, केरल, मिजोरम में अभी 10 प्रतिशत ही बंजरपन दिखाई दे रहा है.

यदि इनके कारणों को तलाशने की कोशिश करें, तो पता चलता है कि दुनियाभर की 50 प्रतिशत भूमि को अन्य उपयोग में डाल दिया गया है जहां पहले वन, तालाब या प्रकृति के अन्य संसाधनों के भंडार हुआ करते थे. इनमें से 34 प्रतिशत देशों में ये अत्यधिक बदलाव की श्रेणी में है, जबकि 48 प्रतिशत देशों में मध्यम रूप से बदलाव आया है. वहीं 18 प्रतिशत देशों में ज्यादा भूमि उपयोग नहीं बदला है. दक्षिण एशिया में तो 94 प्रतिशत भूमि उपयोग बदल चुका है और यूरोप में 90 प्रतिशत. अफ्रीका में यह प्रतिशत 89 है. भूमि उपयोग में बदलाव का ही प्रताप है कि आज प्रकृति हमारा साथ तेजी से छोड़ रही है. जब से उद्योग क्रांति आयी, तब से हमने 68 प्रतिशत वनों को खो दिया. आज दुनिया में मात्र 31 प्रतिशत वन बचे हैं. इस तरह, एक व्यक्ति के हिस्से में करीब 0.68 ही वृक्ष आयेंगे. अपने देश के हालात तो और भी गंभीर हैं. दावा किया जाता है कि हमारे पास 23 प्रतिशत भूमि वनों में है. यदि इसे भी मान लें, तो भी देश के प्रति व्यक्ति के हिस्से 0.08 भूमि है. दूसरी चिंता की बात यह है कि देश का ऐसा कोई भी कोना नहीं है जहां व्यवसाय के रूप में खनन ने अपना पैर नहीं फैलाया है.

दुनिया में खेती के पैटर्न में भी बहुत अधिक बदलाव आया है. अब खेती व्यावसायिक हो चली है और इसमें रसायनों का भी अधिकाधिक उपयोग होता है. इस कारण खेती वाली भूमि भी बंजर हो गयी. पानी के अभाव के कारण भी कई स्थानों पर खेती को त्याग दिया गया है. ये सब भी मरुस्थलीय परिस्थितियों की तरफ चल चुकी हैं. बंजर हालातों के लिए क्लाइमेटिक वेरिएशन भी कारण बना है. हमारी जंगलों पर निर्भरता भी कुछ हद तक घातक बनी है. हमारे पास आज कोई भी ऐसा विकल्प नहीं बचा है या गंभीर योजना पर कोई ऐसी चर्चा नहीं हो रही है कि हम बंजर भूमि को वापस ला सकें. सिवा केवल एक प्रयोग के कि यदि हम वन लगाने को जन आंदोलन में बदल दें, तो शायद कुछ आशा बन पायेगी. हमें वनों की प्रजाति पर भी उतना ही गंभीर होना होगा, क्योंकि स्थानीय वन ही वहां की प्रकृति को जोड़ते हैं और साथ देते हैं. आज दुनियाभर में बढ़ती गर्मी और समुद्र से उठे तूफान कम से कम हमें कुछ तो समझा पायेंगे कि हम आज एक ऐसी सीमा पर खड़े हैं, जहां आने वाले समय में बंजर होती दुनिया हमें डुबा देगी. फिर संभवत: हमारे लिए जीने का कोई कारण नहीं बचेगा.

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