सीमित की जाए वैवाहिक समारोहों की भीड़
कोरोना के कहर से एक तरफ पूरी दुनिया त्रस्त है. मगर इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी दिखे हैं. लगभग पूरी दुनिया में लॉकडाउन से पर्यावरण में सुधार हुआ है. इसने न सिर्फ लाखों प्राणों की रक्षा की है, बल्कि जीव-जंतु से लेकर पेड़-पौधों तक को जीने का नया अवसर भी प्रदान किया है. पेड़-पौधों पर हरियाली दिखने लगी है. हवा स्वच्छ हो गयी है. लोगों के मन पर कहीं न कहीं यह बात असर कर रही है कि सिर्फ पैसे के पीछे भागने से नहीं होगा.
संजय हरलालका
संयुक्त राष्ट्रीय महामंत्री, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन
कोरोना के कहर से एक तरफ पूरी दुनिया त्रस्त है. मगर इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी दिखे हैं. लगभग पूरी दुनिया में लॉकडाउन से पर्यावरण में सुधार हुआ है. इसने न सिर्फ लाखों प्राणों की रक्षा की है, बल्कि जीव-जंतु से लेकर पेड़-पौधों तक को जीने का नया अवसर भी प्रदान किया है. पेड़-पौधों पर हरियाली दिखने लगी है. हवा स्वच्छ हो गयी है. लोगों के मन पर कहीं न कहीं यह बात असर कर रही है कि सिर्फ पैसे के पीछे भागने से नहीं होगा.
समाज सुधार की दिशा में भी कोरोना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. अब जरूरत है इन भावों को अमलीजामा पहनाने की. लॉकडाउन के दौरान देखा जा रहा है कि अनेक लोगों ने अपनी शादियां रद्द कर दीं. लेकिन वहीं कुछ लोगों ने रेड जोन में भी शादियां की हैं. इन शादियों में उपस्थिति मात्र पांच-सात लोगों की रही. मेरा मानना है कि जिन लोगों ने इस विषम परिस्थिति में मात्र कुछ निकटतम लोगों की उपस्थिति में वैवाहिक आयोजन कर लिया, वे ही बुद्धिमान हैं. उन्होंने सही फैसला लिया. अब अगर विवाह के समय 500 लोग उपस्थित भी हो जाते, तो क्या हो जाता? साथ तो लड़के और लड़की को ही रहना है न! लड़की को जाना तो अपने ससुराल ही है. ऐसे में वह अगर बिना बैंड-बाजे के भी चली जाये, तो बुराई क्या है?
लॉकडाउन के पहले के समय पर अगर हम गौर करें, तो पाते हैं विवाह समारोहों में आडंबर और फिजूलखर्ची ने सारी सीमाएं लांघ दी थीं. एक-एक विवाह समारोह पर पांच-पांच, सात-सात पार्टियां दी जा रही हैं. इसका सबसे अधिक असर गरीब एवं निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों को भोगना पड़ रहा है. सामर्थ्य नहीं होते हुए भी बेटी के विवाह में कर्ज लेकर भी खर्च करना पड़ रहा है. सरकारें भले ही कहती हों कि बेटे-बेटी में कोई अंतर नहीं है या फिर भ्रूण हत्या पर रोक लगा दी हो, किंतु हकीकत तो यही है कि आज भी एक गरीब बाप बेटियों के जन्म पर खून के आंसू रोता है. बेटे की चाहत में दो-तीन बेटियों के बाप बननेवाले गरीबों का तो पूरा जीवन विवाह के लिए पूंजी जमा करने में ही बीत जाता है. विवाहोपरांत मां-बाप की जिंदगी विवाह के लिए लिये गये कर्ज का बोझ उतारने में बीत जाती है. पता नहीं क्यों, आज भी लोग इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि एक मां-बाप अपनी बच्ची को जीवनभर के लिए आपको सौंप रहे हैं. वह न सिर्फ उस घर में जाकर सास-ससुर व अन्य घरवालों की सेवा करेगी, बल्कि उनका वंश भी बढ़ायेगी. उनके घर की रौनक बनेगी. फिर क्यों दहेज की मांग की जाती है? बल्कि देखना तो ये चाहिए कि बेटी के रूप में आनेवाली बहू कितनी पढ़ी-लिखी, समझदार और संस्कारवान है.
वर पक्ष द्वारा की जानेवाली मांग सिर्फ अनपढ़ लोग कर रहे हैं, ऐसा भी नहीं है. पढ़े-लिखे एवं धनाढ्य वर्ग में यह बीमारी इस कदर घर कर गयी है कि लगता है मानो उनकी सोच को दीमक ही लग गया हो. कई लोगों के मुंह से तो यह भी कहते हुए सुना जाता है कि हमने अपनी बेटी के विवाह में दिया था तो अब लेंगे क्यों नहीं? मेरा मानना है कि उनको इस तरीके से सोचना चाहिए कि हम अगर बेटे के विवाह में कोई मांग नहीं करेंगे, तो उनके बेटे के लिए अपनी बेटी देनेवाला बाप भी अपने बेटे के विवाह में कुछ मांगने के बारे में सौ बार सोचेगा. और यहीं से होगी सुधार की शुरुआत.
अब कोरोना ने हम सबको मौका दिया है इस विसंगति पर अंकुश लगाने का. अब हम सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन करने के अभ्यस्त होने लगे हैं. भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाने से परहेज करने लगे हैं. यह स्थिति अभी कई महीने या वर्षों तक बनी रह सकती है. ऐसे में केंद्र सरकार को भी चाहिए कि जिस तरीके से लॉकडाउन में उसने विवाह समारोह में उपस्थिति को लेकर दिशा-निर्देश जारी किया है, उसे बाद के दिनों के लिए भी कानून बना कर अमली जामा पहना दे. ऐसे समारोहों में उपस्थिति की अधिकतम सीमा तय कर दे. विवाह समारोह पर दी जानेवाली पार्टियों या समारोहों की संख्या भी तय कर दे. उल्लंघन करनेवालों के लिए दंड का प्रावधान हो.
आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह आनेवाले समय का आभास मात्र है. रोजगार के अवसर खत्म होनेवाले हैं. गरीब एवं निम्न मध्यम वर्ग की कमर टूटनेवाली है. ऐसे में अगर इस तरह का कोई कानून बन जाये, तो उन बेटियों के बापों के लिए सोने पे सुहागा जैसा होगा, जो मजबूरन कर्ज लेकर भी अपनी बेटी के हाथ पीले करने को मजबूर होते हैं. वैसे, ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ सरकार के सोचने या कानून बनाने से ही सब कुछ ठीक हो जायेगा. कानून का डर और हमारी सोच में परिवर्तन, दोनों ही इसके लिए जरूरी हैं.