12.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

छोटे दलों के सहारे बड़ी राजनीति की रणनीति

जब हमारे राजनेताओं ने इश्क और जंग की तरह राजनीति में भी सब कुछ जायज मान लिया है, तो चुनावी दंगल में हर संभव दांव नजर आयेंगे. आज भी नरेंद्र मोदी भारत के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. फिर भी भाजपा चुनावी बिसात बिछाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती.

अगले लोकसभा चुनाव के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष द्वारा बनाये गये गठबंधन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति की सीमाओं को भी उजागर कर देते हैं. क्रमश: दिल्ली और बेंगलुरु में शक्ति प्रदर्शन करते हुए बनाये गये ये गठबंधन दरअसल हमारे बदलते राजनीतिक चरित्र का ही परिचायक है. घटक दलों की संख्या शक्ति का पैमाना मान लें, तो सत्तारूढ़ भाजपा आगे दिखती है, जो एनडीए के कुनबे को उसके रजत जयंती वर्ष में 38 तक पहुंचाने में सफल रही है.

पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल और तेलुगू देशम को मनाने में सफलता मिली, तो संख्या 40 हो जायेगी. बिहार में मुकेश सहनी की वीआईपी तथा उत्तर प्रदेश में महान दल से बातचीत सिरे चढ़ गयी, तो कुनबा 42 तक पहुंच जायेगा. वैसे पिछले महीने पटना में जुटे 17 दलों की संख्या को बेंगलुरु में 26 तक पहुंचाना, वह भी एनसीपी तथा बिहार में सत्तारूढ़ महागठबंधन में सेंधमारी के साये में, विपक्ष की भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं.

राज्य-दर-राज्य राजनीतिक हितों और अहं के अंतर्विरोधों के बीच विपक्ष न सिर्फ अपना कुनबा बढ़ाने में, बल्कि गठबंधन का नामकरण करने में भी सफल रहा. इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस या ‘इंडिया’ बनाना, नारों और जुमलों के वर्तमान राजनीतिक दौर में एक बड़ा दांव हैं.

इन दोनों गठबंधनों के मंच पर जुटे 64 राजनीतिक दलों का आंकड़ा हमारे बहुदलीय लोकतंत्र के दलदल की ओर भी इशारा करता है. लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के गठन या उनकी संख्या पर कोई अंकुश नहीं है, पर यह अपेक्षा तो स्वाभाविक है कि उनका गठन किसी विशिष्ट विचारधारा के आधार पर किया जाए, जिसके पास जनाधार भी हो. इस सच से कैसे मुंह चुराया जा सकता है कि दोनों ही गठबंधनों में शामिल 34 दल ऐसे हैं, जिनका एक भी सांसद नहीं है. चार दल ऐसे हैं, जिनका प्रतिनिधित्व सिर्फ राज्यसभा तक सीमित है.

एनडीए में ऐसे दलों की संख्या 24 है, जिनका लोकसभा में कोई सांसद नहीं. ‘इंडिया’ में ऐसे 10 दल शामिल हैं, जिनका कोई सांसद नहीं. हालांकि, इसका यह अर्थ निकालना न्यायसंगत नहीं होगा कि इनका कोई जनाधार नहीं है. सत्ता के बड़े खिलाड़ी नासमझ नहीं हैं. वे अच्छी तरह जानते हैं कि जाति या समुदाय विशेष का प्रतिनिधित्व करनेवाले इन दलों के पास खुद जीतने लायक वोट प्रतिशत भले ही न हो, पर इनका 2-4 प्रतिशत वोट बाजी पलटने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है. यही कारण है कि छोटे दलों के नेताओं की भी बड़ी मान-मनौव्वल की गयी. जो दल अभी तक किसी गठबंधन में नहीं हैं, उन्हें येन-केन-प्रकारेण मनाने का उपक्रम चुनाव तक चलता रहेगा.

अब घटक दलों संख्या से आगे राजनीति-रणनीति की बात करते हैं. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तीन दशक लंबे अंतराल के बाद जिस तरह अकेले दम पर बहुमत हासिल कर दिखाया, उसके बाद विपक्ष में यह अहसास लगातार गहरा होता गया कि व्यापक विपक्षी एकता बिना मोदी की भाजपा का मुकाबला मुमकिन नहीं. फिर भी एकता को सिरे चढ़ने में नौ साल लग गये, क्योंकि क्षत्रपों के बीच महत्वाकांक्षाओं का तीव्र टकराव है. बेंगलुरु में मंच पर लगा ‘यूनाइटेड वी स्टैंड’ का बैनर उनकी सीमाओं की स्वीकारोक्ति ही था.

नहीं तो आम आदमी पार्टी बना कर कांग्रेस-भाजपा समेत परंपरागत राजनीति का ही विकल्प बनने चले अरविंद केजरीवाल उन्हीं नेताओं के इर्द-गिर्द नजर नहीं आते, जिन्हें वह कभी भ्रष्ट बताते नहीं थकते थे. कड़वा सच यह भी है कि ज्यादातर क्षेत्रीय दल परिवारवाद की जमीन पर ही खड़े हैं, पर यह विडंबना दोनों ही ओर है. दामन पर भ्रष्टाचार के दाग का कटु सत्य भी यही है. परहेज किसी को नहीं है. सुविधानुसार तर्क गढ़ लिये जाते हैं.

अलबत्ता, मोदी की लोकप्रियता की लहर पर सवार भाजपा को गठबंधन की गंभीर जरूरत पहली बार महसूस हुई है. इसी सत्य के आईने में देश की भावी राजनीति चलेगी. जब हमारे राजनेताओं ने इश्क और जंग की तरह राजनीति में भी सब जायज मान लिया है, तो चुनावी दंगल में हर दांव दिखेंगे. मोदी भारत के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. फिर भी भाजपा चुनावी बिसात बिछाने में कभी कसर नहीं छोड़ती.

रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने तो दलित वोटों को रिझाने में कसर नहीं छोड़ी गयी. अब द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति हैं, तो आदिवासी वोटों पर भाजपा की नजर रहेगी ही, पर चुनावी तीर हर दल के तरकश में होते हैं. कर्नाटक में सर्वशक्तिमान भाजपा से सत्ता छीनने में इसी राज्य के कांग्रेस के दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही.

अब जबकि अल्पसंख्यक मतदाता क्षेत्रीय दलों का मोह छोड़ कांग्रेस की ओर लौटने की सोच रहे हैं, तो खरगे के कारण दलित ऐसा क्यों नहीं सोचेंगे? हां, मुद्दों पर अवश्य घमासान मचेगा. भाजपा के तरकश में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के आजमाये हुए तीर तो हैं ही, विदेशों में भारत का गौरव बढ़ाने का गुणगान भी उनमें जुड़ गया है. दूसरी ओर अच्छे दिनों के अंतहीन इंतजार से ले कर बेरोजगारी और महंगाई की मार विपक्ष के प्रमुख मुद्दे होंगे. असल चुनावी कसौटी सुनियोजित-समन्वित रणनीति की होगी, जिसे अंजाम देने में संगठनात्मक ढांचा और क्षमता निश्चय ही निर्णायक साबित हो सकती है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें