न्यूनतम कीमत की गारंटी हो

भारत में कृषि व्यापार का विषय नहीं, बल्कि जीवनयापन और संस्कृति है. किसानों के कल्याण से ही देश कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर रह सकता है.

By डॉ अश्विनी | November 17, 2020 6:25 AM
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डॉ अश्विनी महाजन, एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय ashwanimahajan@rediffmail.com

केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों के माध्यम से कृषि वस्तुओं के मार्केटिंग कानूनों में व्यापक बदलाव किये हैं. आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर कृषि वस्तुओं के भंडारण पर लगी सीमाओं को हटा लिया गया है. इससे व्यापारी और कंपनियां कृषि वस्तुओं का ज्यादा भंडारण कर सकेंगे. ऐसा देखा गया कि चूंकि अब देश में कृषि वस्तुओं का पर्याप्त उत्पादन होता है, इसलिए भंडारण से कीमतें बढ़ने का कोई विशेष खतरा नहीं है, बल्कि अधिक उत्पादन होने पर भंडारण की सुविधाएं होनी जरूरी हैं.

इसके साथ ही एक अन्य कृषि अधिनियम के माध्यम से पूर्व की कृषि मंडियों (एपीएमसी मंडी) के बाहर और प्राइवेट मंडियों में भी कृषि वस्तुओं की खरीद हो सकेगी. संविदा खेती यानी ‘काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग’ के नियम भी बनाये गये हैं. ऐसा समझा जाता है कि इससे किसान को अपनी उपज पहले से ही निश्चित कीमत पर बेचना संभव होगा. लेकिन, किसानों के बीच यह भय भी व्याप्त है कि अब कृषि वस्तुओं की खरीद करते हुए व्यापारी और कंपनियां किसान का शोषण कर सकते हैं.

उनकी यह मांग है कि कृषि वस्तुओं की खरीद सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न हो. गौरतलब है कि सरकार गेहूं, धान, दाल सहित कई कृषि वस्तुओं की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करती है. यह भी सच है कि मात्र छह प्रतिशत कृषि वस्तुओं की ही खरीद सरकार द्वारा होती है और अधिकांश (लगभग 94 प्रतिशत) बाजार में ही बिकती हैं. चूंकि किसान आर्थिक दृष्टि से कमजोर होता है और कर्ज व जरूरी खर्चों के बोझ के चलते शोषण का शिकार हो सकता है, इसलिए उसके हितों की सुरक्षा हेतु कानूनी प्रावधान किये जाने चाहिए.

एक तरफ देशभर के किसान यह मांग कर रहे हैं कि नयी व्यवस्था में उन्हें अपने उत्पाद की उचित कीमत सुनिश्चित हो और मंडी के अंदर या मंडी के बाहर, सरकार अथवा निजी व्यापारी एवं कंपनियां न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम खरीद न कर पायें और इसके उल्लंघन पर दंड का प्रावधान हो. दूसरी तरफ इसके विरोध में कुछ अर्थशास्त्री एवं सरकारी तंत्र के कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि ऐसा करना विधिसंगत नहीं होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य निजी व्यापारियों पर थोपे जाने से वे किसान का उत्पाद खरीदने के प्रति हतोत्साहित होंगे और देशी किसानों से खरीद के बजाय विदेश से आयात करेंगे.

विरोधियों का यह भी तर्क है कि अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य से कृषि जिन्सों की कीमतें बढ़ जायेंगी, जिससे उपभोक्ताओं को नुकसान होगा. कुछ ऐसे आर्थिक विश्लेषक भी हैं, जो कहते हैं कि अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य खाद्य पदार्थों की महंगाई का कारण बनते हैं और देश की प्रतिस्पर्धा शक्ति दुनिया के बाजारों में कमजोर होती है. इससे कृषि उत्पादों का निर्यात भी प्रभावित हो सकता है. विरोधियों का यह भी कहना है कि संभव है कि खराब क्वालिटी के कृषि उत्पादों को भी उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदना पड़ेगा, जो उनके लिए नुकसानदायी होगा.

ये सर्वथा गलत तर्क हैं. विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने समय-समय पर यह स्थापित किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण महंगाई नहीं बढ़ती. इस संबंध में 2016 में संपन्न प्रो आर आनंद के शोध के अनुसार कि जब-जब खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि थोक मूल्य सूचकांक की तुलना में ज्यादा हुई, तब-तब किसानों द्वारा कीमत प्रोत्साहन के कारण उत्पादन बढ़ाया गया. इस शोध का मानना है कि अधिक समर्थन मूल्य से खाद्यान्नों की कीमत वृद्धि गैर खाद्य मुद्रा स्फीति से कम होगी. ऐसे शोध परिणाम अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी निकाले हैं.

वास्तव में यदि किसानों का उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते शोषण होता है और उन्हें कृषि कार्य करते हुए नुकसान का सामना करना पड़ता है, तो उसका परिणाम देश की अर्थव्यवस्था के लिए कभी कल्याणकारी नहीं होगा. हम जानते हैं कि जब-जब देश में कृषि उत्पादन बाधित होता है, तब-तब कृषि जिंसों की कमी के चलते खाद्य मुद्रा स्फीति बढ़ती है. इसका प्रभाव यह होता है कि जीवनयापन महंगा हो जाता है और मजदूरी दर बढ़ती है तथा अंतत: महंगाई और ज्यादा बढ़ जाती है. महंगाई बढ़ती है, तो ग्रोथ बाधित होती है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य के विरोधियों के अन्य तर्कों में भी कोई दम नहीं है. उनका यह कहना कि यदि व्यापारियों और कंपनियों को ज्यादा कीमत देनी पड़ेगी, तो वे कृषि जिन्सों का आयात करेंगे. समझना होगा कि भारत में कृषि व्यापार का विषय नहीं, बल्कि जीवनयापन और संस्कृति है. किसानों के कल्याण से ही देश कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर रह सकता है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय कीमतें कम होने पर आयात करने की बजाय आयातों पर ज्यादा आयात शुल्क और अन्य प्रकार से रोक लगाना ज्यादा कारगर उपाय है.

हम जानते हैं कि देश से सबसे ज्यादा निर्यात होनेवाली कृषि जिंस चावल है, जिसके उत्पादन को दशकों से उचित समर्थन मूल्य देकर प्रोत्साहित किया गया. वर्षों से दालों के क्षेत्र में भारत विदेशों पर इसलिए निर्भर रहा, क्योंकि किसानों को दालों का उचित मूल्य नहीं मिलता था. पिछले कुछ वर्षों से जब से दालों के लिए सरकार ने उच्च समर्थन मूल्य घोषित करना प्रारंभ किया, दाल उत्पादन डेढ़ गुना से भी ज्यादा हो गया. इसी प्रकार, यदि व्यापारी खराब गुणवत्ता के उत्पाद नहीं खरीदें, तो किसान स्वयं ही बढ़िया उत्पाद पैदा करने लगेंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by : Pritish sahay

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