भारत सरकार ने मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए एक समेकित नीति की घोषणा की है. इससे स्पष्ट है कि आने वाले समय में मोटे अनाजों का महत्व बहुत बढ़ेगा. यदि भारत के इतिहास पर दृष्टि डालें, तो सामान्य आदमी से लेकर अभिजात्य वर्ग तक के लोग मोटे अनाज का उपयोग बड़े पैमाने पर करते रहे हैं. एक मिथकीय कथा में विश्वामित्र और देवराज इंद्र के बीच युद्ध के दौरान एक बार इंद्र धरतीवासियों के लिए अन्न देने से मना कर देते हैं, तब विश्वामित्र कौशिकी नदी के किनारे पांच प्रकार के अन्न की उत्पत्ति कर नयी सृष्टि का सूत्रपात कर देते हैं.
उन्हीं में से मड़ुआ भी है. विश्वामित्र के द्वारा आविष्कृत सभी पांच अनाज मोटे अनाज की श्रेणी में आते हैं तथा पोषक तत्वों से भरपूर हैं. स्वतंत्रता से पहले तक मोटे अनाजों का समाज में बहुत महत्व था, लेकिन बाद में अभिजात्य समाज में यह घटने लगा.
मड़ुआ, ज्वार, बाजरा, मक्का, चना, कोदो, कंगनी, कुटकी, सावां आदि की उपेक्षा होने लगी, लेकिन जैसे ही आधुनिक विज्ञान ने घोषणा की कि मोटे अनाज स्वास्थ्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, लोग इन्हें हाथों-हाथ लेने लगे हैं. सरकार को भी लगने लगा है कि मोटा अनाज भविष्य का बढ़िया और पौष्टिक आहार साबित हो सकता है. इसीलिए भारत सरकार मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने की योजना पर काम करने लगी है.
मोटे अनाजों में रागी यानी मड़ुआ सबसे लोकप्रिय है. फसल वैज्ञानिकों की मानें, तो मड़ुआ अफ्रीका और एशिया के शुष्क क्षेत्रों में उगाया जाने वाला एक मोटा अनाज है. आधुनिक फसल वैज्ञानिकों का कहना है कि यह मूल रूप से इथियोपिया के ऊंचे क्षेत्रों का पौधा है, पर भारत में भी इसका चार हजार वर्षों का इतिहास है. ऊंचे क्षेत्रों में अनुकूलित होने में यह बहुत समर्थ है. हिमालय में यह 2300 मीटर की ऊंचाई तक लगाया जाता है.
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसे खरीफ की फसलों के साथ लगाया जाता रहा है. चूंकि इसमें पानी की जरूरत कम पड़ती है, इसलिए इसे गर्मी के दिनों में लगा दिया जाता है और अगहनी धान की फसल लगाने से पहले काट लिया जाता है. कई स्थानों पर इसे अक्सर तिलहन (जैसे मूंगफली) और नाइजर सीड या फिर दालों के साथ भी उगाया जाता है. भारत में मड़ुआ को गरीबों का अनाज माना जाता था.
विश्व में मोटे अनाजों में भारत का योगदान लगभग 58 प्रतिशत के करीब होगा. मड़ुआ अपना फसल चक्र तीन से चार माह में ही पूरा कर लेता है. पानी की जरूरत कम होने के साथ इसमें रोग प्रतिरोधन की क्षमता भी अन्य फसलों से ज्यादा है. हमारे देश में लगभग 9.5 लाख हेक्टेयर जमीन पर मड़ुआ की खेती होती है. हमारे यहां इसका वार्षिक उत्पादन 13.2 लाख टन है. इसकी खेती मुख्य रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड एवं उत्तराखंड में की जाती है.
यद्यपि आंकड़े ठीक ठीक उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी यह फसल पूरे विश्व में लगभग 40 हजार वर्ग किलोमीटर में लगायी जाती है. एक बार पक कर तैयार हो जाने पर इसका भंडारण बेहद सुरक्षित होता है. इस कारण छोटे किसानों के लिए यह एक अच्छा विकल्प माना जाता है. पोषक तत्वों की दृष्टि से देखें, इस अनाज में अमीनो अम्ल मेथोनाइन पाया जाता है, जो स्टार्च की प्रधानता वाले भोज्य पदार्थों में नहीं पाया जाता. प्रति 100 ग्राम के हिसाब से मड़ुआ में प्रोटीन 7.3 प्रतिशत, वसा 1.3 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 72 प्रतिशत एवं कैल्शियम 3.10 मिलीग्राम, आयरन 3.90 मिलीग्राम, थायमिन 0.42 मिलीग्राम, राइबोफलेबिन 0.19 मिलीग्राम, नियासीन 1.1 मिलीग्राम पाया जाता है.
इन दिनों मड़ुआ का मूल्य संवर्धन भी तेजी से बढ़ा है. इस कारण इसका आर्थिक महत्व भी बढ़ गया है. इससे मोटी डबल रोटी, डोसा और रोटी बनायी जाती है. इससे रागी मुद्दी बनती है, जिसे वियतनाम में इसे बच्चे के जन्म के समय औरतों को दवा के रूप में दिया जाता है. इससे मदिरा भी बनती है. आजकल मड़ुआ को गुड़ के साथ मिलाकर लड्डू तैयार किये जा रहे हैं. खासकर झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में इसकी खूब मांग हो रही है. उत्तराखंड में मड़ुआ के आटे से हलुआ आदि तैयार किया जा रहा है. आजकल कुछ गुजराती व्यापारी इसका उपयोग थेपला और खाखरा बनाने में भी कर रहे हैं. दुग्ध पेय पदार्थ के रूप में भी इसका उपयोग हो रहा है.
मड़ुआ को सुपर फूड की श्रेणी में भी रखा जा सकता है, पर समाज और सरकार ने इसे उपेक्षित किया. प्रमुख अनाज वाली फसलों के शोध एवं सुधार पर जितने कार्यक्रम हुए, उसकी तुलना में मड़ुआ पर ध्यान नहीं दिया. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा 1986 में समन्वित लधु कंदन उन्नयन परियोजना की शुरूआत की गयी, जिसके बाद देश में ज्यादा उत्पादन देने वाली फसल किस्मों का विकास हुआ.
इसलिए इन फसलों के क्षेत्रफल एवं उत्पादन को बढ़ाने की आवश्यकता पर बल देना बंद कर दिया गया. मड़ुआ हमारे किसानों के लिए वरदान साबित हो सकता है. इसके लिए इस पर शोध और बीज की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता है. सरकार को आकर्षक समर्थन मूल्य का निर्धारण भी करना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)