महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर उनके बारे में जानने या बताने की सबसे पते की बात यही है कि उनके निकट उनका जीवन ही उनका संदेश था. सत्य व अहिंसा का अपना बहुप्रचारित संदेश भी उन्होंने अपने जीवन में साधकर और अपना धर्म बनाकर ही दिया. अहिंसा को वे मनुष्यमात्र का सबसे बड़ा कर्तव्य मानते थे और चाहते थे कि जो लोग उसका पूरा पालन नहीं कर सकते, वे कम से कम उसकी भावना को समझें. वे जोर देकर कहा करते थे कि अहिंसा कायरता का पर्याय नहीं है और दिल में हिंसा भरी है, तो अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए अहिंसा का शोर मचाने से बेहतर है कि हिंसा की जाये. उन्होंने अहिंसा को आजादी की लड़ाई का हथियार बनाया, तो उनका स्पष्ट मानना था कि हिंसक तरीकों से हिंसक आजादी ही हासिल हो सकती है, जो देश के किसी काम नहीं आयेगी. उनका मत था कि देश तलवार की नीति अपना ले, तो वह भले ही क्षणिक विजय पा ले, लेकिन न उस विजय की उम्र लंबी होगी और न वह गर्व का विषय होगी.
हम जानते हैं कि चौरी-चौरा कांड के बाद उन्होंने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया था क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि अभी देश अहिंसक संघर्षों के लिए तैयार नहीं हो पाया है, दरअसल, वे भारत को स्वतंत्र ही नहीं, बलवान होता हुआ भी देखना चाहते थे और उनके अनुसार हिंसा बलवानों का नहीं, कमजोरों व कायरों का हथियार थी. वे कहते थे कि पश्चिम के रक्तरंजित मार्ग पर चलते रहने में भारत का कोई भविष्य नहीं है क्योंकि उस पर चलते-चलते पश्चिम स्वयं थक गया है. उन्होंने चेताया भी था कि देश के लिए पश्चिमी सभ्यता की विचारहीन व विवेकहीन नकल का अर्थ अपने हाथों अपना सर्वनाश कर लेना होगा. इसलिए उसे उस सुनहरे मायामृग के पीछे दौड़ना ही नहीं चाहिए. उनकी निगाह में उस आजादी की भी कोई सार्थकता नहीं थी, जिसमें गलती करने की आजादी, आत्मसंयम व आत्मानुशासन शामिल न हो. यह आत्मसंयम उन्हें संपत्ति के अर्जन व संचय की होड़ में भी अभीष्ट था. उनके मतानुसार हमारी धरती जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है, लेकिन किसी एक व्यक्ति की भी हवस के लिए कम है.
वर्ष 1931 में ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम के बुलावे पर वे उनसे मिलने धोती पहने अधनंगे बदन बकिंघम पैलेस गये, जिसे अंग्रेज अपना सांस्कृतिक प्रतीक मानते हैं. इस सवाल पर कि पूरे कपड़े पहनकर वे क्यों नहीं आये, वे यह कहने से नहीं चूके कि कैसे पहनकर आता, मेरे तो क्या, सारे हिंदुस्तानियों के हिस्से के कपड़े तो आपने, आपके देश ने छीन व पहन लिये हैं. उनका यह व्यंग्य जितना ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारतीयों के शोषण के खिलाफ था, उतना ही बेतहाशा उपभोग के खिलाफ भी. इसे एक और वाकये से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. एक दिन एक सेठ उनसे मिलने आये और पूछने लगे कि बापू, क्या बात है कि आपके नाम पर लोग देशभर में गांधी टोपी पहनते हैं, लेकिन आप स्वयं उसका इस्तेमाल नहीं करते? महात्मा का दो टूक जवाब था- आप अपनी पगड़ी उतारकर देखिये. उसमें जितना कपड़ा लगा है, उतने में कम से कम बीस टोपियां बन ही सकती हैं. जब आप जैसे धनी महानुभाव बीस टोपियों के बराबर कपड़ा अपनी अकेले की पगड़ी में लगा लेंगे, तो बेचारे उन्नीस आदमियों को टोपी तक से वंचित होना ही पड़ेगा. मैं उन्हीं में से एक हूं.
अपनी कमियां स्वीकार करने में भी महात्मा का कोई सानी नहीं था. ऐतिहासिक दांडी यात्रा से थोड़ा पहले की बात है. चूंकि वे चेचक का टीका लगवाने के विरुद्ध थे, इसलिए किसी आश्रमवासी अभिभावक ने अपने बच्चों को टीका नहीं लगवाया था. इसका फल यह हुआ कि चेचक से कई बच्चे मृत्यु के गाल में समा गये. तब खासे बेचैन महात्मा ने अपना पश्चाताप इन शब्दों में व्यक्त किया, ‘छोटे-छोटे बच्चे असमय काल के गाल में समा जा रहे हैं. मैं उनकी मृत्यु को चुपचाप देखता रहता हूं और उन्हें बचा नहीं पाता. इसलिए अब उनकी मृत्यु का बोझ मेरे मन-मस्तिष्क पर भारी पड़ने लगा है. उनकी जानें जाने के बाद मेरा मन यह सोचकर बहुत बेचैन हो रहा है कि कहीं उनकी मौतें मेरी अज्ञानता व झक्कीपन का नतीजा तो नहीं हैं?’ उसके बाद उन्होंने अभिभावकों को बच्चों को टीका लगाने की अनुमति दे दी. उनकी ऐसी ही असाधारण साधारणता से अभिभूत होकर महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि भविष्य की पीढ़ियों को इस पर विश्वास करने में बहुत मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना उनके जैसा कोई व्यक्ति भी कभी इस धरती पर आया था.