राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने मेडिकल कॉलेजों से पोस्ट-ग्रेजुएट (पीजी) छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और बेहतरी पर ध्यान देने को कहा है. आत्महत्या, लैंगिक भेदभाव और महिलाओं के साथ अभद्रता जैसे मामलों में हुई कार्रवाइयों का विवरण देने को भी कहा गया है. निश्चित रूप से यह एक सराहनीय पहल है. आयोग के पास लगातार ऐसी शिकायतें जाती रही हैं कि पीजी के छात्रों, जिन्हें जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर कहा जाता है, को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इनमें से एक यह है कि इन डॉक्टरों का कामकाजी समय निश्चित नहीं है. काम का दबाव भी इन्हीं पर अधिक होता है, सीनियर डॉक्टर भी इन्हें तरह-तरह से परेशान करते हैं और लगातार प्रतिस्पर्द्धा भी बढ़ती जा रही है.
मेडिकल परीक्षाओं का स्तर बढ़ता जा रहा है, पर सीटें उस हिसाब से नहीं बढ़ रही हैं. डॉक्टरों के लिए नौकरियों के अवसर भी कम हुए हैं. ऐसे में वे मानसिक तनाव से गुजर रहे होते हैं. पिछले पांच साल में तीन सौ ऐसे इंटर्न डॉक्टरों ने आत्महत्या की है, जिनकी आयु तीस साल से कम थी. मेडिकल कॉलेजों में पीजी छात्रों के लिए जो हॉस्टल और ड्यूटी रूम हैं, उनकी हालत बेहद खस्ता है तथा वे स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक नहीं हैं. आप किसी भी सरकारी मेडिकल कॉलेज के ड्यूटी रूम में जाकर खुद देख सकते हैं कि वहां कितनी बदहाली है. महिलाओं के लिए अलग से शौचालयों की व्यवस्था तक कई जगह नहीं है.
इनके अलावा जूनियर डॉक्टरों को सीनियर डॉक्टरों की आपसी रंजिश का भी खामियाजा भुगतना पड़ता है. उनके आपसी मतभेद की स्थिति में छात्रों को यह समझ में नहीं आता कि वे किसकी बात सुनें- अपने विभाग के प्रमुख की या अपनी इकाई के प्रभारी की या फिर अपने सुपरवाइजर की. कोरोना काल में भी यह देखा गया कि सीनियर डॉक्टरों ने वार्ड ड्यूटी और अन्य जोखिम भरे कामों से अपने को अलग रखा तथा अगले मोर्चे पर युवा डॉक्टरों को ही जूझना पड़ा. इसके अलावा उन्हें समुचित सुरक्षा और सम्मान भी नहीं मिलता है. कोई भी सीनियर डॉक्टर नाइट ड्यूटी नहीं करना चाहता है.
यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि नीट परीक्षा को लेकर हर साल विरोध हो रहा है. परीक्षा के पहले तक यह पता नहीं होता है कि परीक्षा व्यवस्था कैसी होगी. साल 2021 की काउंसिलिंग अभेद एक माह पहले खत्म हुई है और 2022 की काउंसिलिंग इस साल जनवरी में शुरू हो जानी चाहिए थी, पर अभी तक पीजी की काउंसिलिंग शुरू नहीं हुई. सरकार की मंशा है कि अगले साल की परीक्षा में बदलाव करे. छात्र मांग कर रहे हैं कि उसके पाठ्यक्रम के बारे में पहले जानकारी दे दी जाए ताकि तैयारी में सहूलियत हो. ऐसी स्थिति में बड़ी संख्या में पीजी छात्र अवसाद, मानसिक तनाव और चिंता जैसी मुश्किलों से घिरे हैं, जो उन्हें आत्महत्या की ओर जाने के लिए मजबूर करते हैं.
एनएमसी ने जो कहा है, वह एक एडवाइजरी है. यह स्वागतयोग्य है, पर इससे समस्याओं का समाधान नहीं होगा. इस पर कड़ाई से अमल करना होगा. सबसे पहले तो पीजी छात्रों के लिए मेडिकल हेल्पलाइन की व्यवस्था की जानी चाहिए. यह काम नेशनल मेडिकल कमीशन को करना चाहिए. सरकार और मेडिकल कॉलेजों की ओर से इस संबंध में पहल करनी चाहिए. कुछ एनजीओ इस क्षेत्र में कार्यरत हैं, पर वह पर्याप्त नहीं है. कोराना काल में हमारे संगठन के ओर से भी इस तरह का प्रयास किया गया था. जो लोग छात्रों की परेशानी के लिए जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए.
इस संबंध में नियमन की कमी है, जिसे दूर किया जाना चाहिए. दिल्ली में तो रेजिडेंट डॉक्टरों का संगठन मजबूत है, पर अन्य जगहों पर ऐसा नहीं है. कई मेडिकल कॉलेजों में तो संगठन ही नहीं हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही दिशानिर्देश दिया है कि एक सप्ताह में 84 घंटों से अधिक काम नहीं कराया जा सकता है. लेकिन ज्यादातर मेडिकल कॉलेजों में जूनियर डॉक्टर लगातार 36-36 घंटे काम करते हैं. यह गलत है. लगातार 24 घंटे से अधिक काम नहीं कराया जा सकता है.
चूंकि छात्र अपने करियर पर पड़नेवाले असर को लेकर आशंकित होते हैं, इसलिए वे किसी तरह की शिकायत करने से परहेज करते हैं. यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिकायत करने के बारे में कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं है. एनएमसी को एक ऑनलाइन शिकायत करने की प्रणाली बनानी चाहिए, जहां छात्रों की पहचान गोपनीय रहे. इससे शिकायत करने का हौसला मिलेगा और आयोग के पास भी जानकारी पहुंच सकेगी. एनएमसी के साथ साथ राज्य-स्तरीय मेडिकल काउंसिल भी ऐसे उपाय कर सकती हैं. जांच समितियां हों और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई भी हो.
जब तक जवाबदेही नहीं तय के जायेगी, छात्रों का शोषण होता रहेगा और वे मानसिक तनाव में जीने के लिए अभिशप्त रहेंगे. इसीलिए आयोग के इस एडवाइजरी से ही स्थिति सुधर जायेगी, ऐसी अपेक्षा रखना ठीक नहीं है. नीट पीजी में ढाई-तीन लाख छात्र शामिल होते हैं, जो डॉक्टर होते हैं. पांच वर्षों का हिसाब देखें, तो कभी काउंसिलिंग में देरी, कभी परीक्षा केंद्र पर गड़बड़ी, तो कभी कोई और समस्या आती है. कई बार सीटें रिक्त रह जाती हैं और उधर वेटिंग लिस्ट भी रहती है. इसे बेहतर नहीं किया जायेगा, तो फिर डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य को कैसे बरकरार रखा जायेगा?
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
(बातचीत पर आधारित)