बीस वर्षों तक चले वाद-विवाद और विरोधों के बीच पहली जीएम फसल सरसों की व्यावसायिक खेती की मंजूरी दे दी गयी है. बायोटेक नियामक जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी के इस निर्णय का विरोध कई हरित समूहों एवं किसान संगठनों द्वारा हो रहा है. सबसे मुखर स्वर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषांगिक संगठन भारतीय किसान संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच का है.
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने भी आंदोलन की धमकी दी है, पर सबसे चकित करने वाला बयान सीपीएम के किसान संगठन से आया कि वे इस तकनीक की सराहना करते हैं. स्वदेशी जागरण मंच का आरोप है कि जीईएसी गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम कर रही है तथा जीएम सरसों के समर्थन में किये जा रहे दावे पूरी तरह गलत हैं. जीईएसी ने एक अनुमति पत्र में कहा है कि समर्थन में प्राप्त सभी जानकारी विदेश से लायी गयी थी.
हमारे देश में अध्ययन होना बाकी है. इन संगठनों का आरोप है कि यदि भारत में कोई अध्ययन नहीं किया गया, तो जीईएसी गैर जिम्मेदार और अवैधानिक निर्णय कैसे ले सकती है. इससे पूर्व जीएम बीटी कॉटन को लेकर भी भ्रामक प्रचार किये गये थे कि इसको कीड़ों से कोई नुकसान नहीं होगा और उत्पादन ज्यादा होगा, मगर पिछले 17 वर्षों से बीटी कपास के उत्पादन में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है. फिर भी किसानों को सपने दिखाये जा रहे हैं.
कृषि मामलों की संसदीय समिति ने अपनी 37वीं रिपोर्ट में बताया है कि बीटी कॉटन की व्यावसायिक खेती करने में कपास उत्पादकों की माली हालत बजाय सुधरने के बिगड़ गयी. इसमें कीटनाशकों का अधिक उपयोग करना पड़ा. महाराष्ट्र में पिछले दिनों कपास को कीड़े से बचाने की जुगत में किसानों द्वारा अनजाने में मौत को गले लगाने के मामले प्रकाश में आये हैं.
इन मौतों की वजह वह कीटनाशक बताया गया है, जिसे उन्होंने फसलों पर कीड़े खत्म करने के लिए छिड़का था. जीएम फसलों की खेती केवल छह देशों- अमेरिका, ब्राजील, कनाडा, चीन, भारत और अर्जेंटीना- में हो रही है. दुनिया में कुछ 18 करोड़ हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है.
वर्ष 1951-52 के दौरान देश में मात्र 52 मिलियन टन अनाज का उत्पादन होता था, लेकिन आज बिना जीएम तकनीक के 300 मिलियन टन से अधिक का उत्पादन हुआ है. पहले हम गेहूं, चावल, शक्कर के लिए विदेशी आयात पर निर्भर करते रहे हैं, पर आज हम इनके बड़े निर्यातक हैं. पिछले दो वर्षों से 80 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त पांच किलो राशन उपलब्ध कराना हमारी कृषि सफलता का प्रमाण है.
अधिकतर संगठनों एवं विशेषज्ञों का कहना है कि कमेटी का निर्णय दबाव और जल्दबाजी में लिया गया है और जिस वेरायटी को मंजूरी दी गयी है, वह कम पैदावार वाली है एवं इससे उत्पादित तेल की गुणवत्ता भी कम है. भारतीय सरसों का तीखापन उसका सबसे बड़ा गुण है, जो नयी किस्म से नदारद है. वर्तमान में जीएम सरसों की श्रेणी डीएमएच-11 से भी ज्यादा उपज की चार वेरायटी भारत में पहले से ही मौजूद हैं.
कॉन्फेडरेशन ऑफ एपीकल्चर के अनुसार जीएम तरीके से सरसों की खेती की शुरुआत होने पर शहद की खेती के बर्बाद होने की संभावना है. इससे 10 लाख मधुमक्खी पालकों के जीवनयापन पर संकट आ जायेगा. स्मरण रहे, मधुमक्खियों के परागण में सरसों की खेती का अहम योगदान होता है. ज्यादातर जगहों पर चिकित्सकीय गुणों की वजह जीएम मुक्त सरसों के शहद की मांग है. ऐसे में शहद निर्यात पूरी तरह ठप हो जायेगा. कुछ बड़ी कंपनियों का मकसद है दूसरी किस्म का जीएम क्रॉप मॉडिफाई बनाना.
जिस फसल पर भी इसका प्रयोग होगा, वहां उस फसल के अलावा सब खत्म हो जायेगा. घातक रसायनों से फसलों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. भूमि की उर्वरता भी खत्म होती है. सरकार एक तरफ तो ऑर्गेनिक फार्मिंग की बात करती है, दूसरी तरफ ऐसी नीतियां लाकर रसायनों के प्रभाव को बढ़ाती है. प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन जीएम फसलों के प्रयोग से पहले भूमि परीक्षण अनिवार्य बनाने की सिफारिश कर चुके हैं.
अमेरिका के मात्र एक फीसदी भू-भाग में जीएम मक्के की खेती की गयी थी, जिसने 50 फीसदी गैर जीएम खेती को संक्रमित कर दिया. चीन में भी किसानों को नुकसान का सामना करना पड़ा था. वर्ष 2014 के बाद वहां जीएम खेती नहीं हो रही है. अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो देश में इस व्यावसायिक खेती की बड़ी पैरोकार है. साल 2011 में अमेरिका में भी इसी कंपनी ने सूखा प्रतिरोधी जीएम मक्का जारी किया था, पर थोड़े ही समय में अमेरिकी कृषि विभाग ने स्वीकार किया कि यह गैर जीएम किस्मों से ज्यादा प्रभावी नहीं है.
भारत में मोनसेंटो ने 1970 से खर-पतवार नाशक रसायनों के उत्पादन के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी थी. लगभग दस वर्ष पूर्व बीटी कपास यही कंपनी लायी. नीति-निर्धारकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनका कोई भी प्रस्ताव किसानों और उपभोक्ताओं के हित में हो. ऐसे फैसले लेने से पहले देश में आम सहमति भी बनानी चाहिए.