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पहाड़ों को बचाना बने प्राथमिकता

पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल और उनके मार्ग है़ं पहाड़ पर फैली हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है. और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है पहाड़ों के लिए़ लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए़

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

pc7001010@gmail.com

उप्र के महोबा जिले का जुझार गांव अपने तीन सौ हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले विशाल पहाड़ को बचाने के लिए एकजुट है़ इस पहाड़ से ग्रेनाइट निकालने में खनन के निर्धारित मानकों का अनुपालन न होना ग्रामीणों के लिए आफत बन गया था़ पत्थरों के उछलने से ग्रामीणों के मकानों के खपरैल टूटने लगे और छतें दरकने लगी़ं धुंध का गुबार फैलने लगा, जिससे सिल्कोसिस की बीमारी पनपी और दर्जनों लोग उसकी चपेट में आ गये़

अब तक तीन की मौत हो गयी है और बच्चे अपंगता का शिकार हो रहे है़ं लोग-बाग बता रहे हैं कि पहाड़ के साथ ही वहां की हरियाली, जल संसाधन, जीव-जंतु सब कुछ समाप्त हो रहा है़ यदि खनन ऐसे ही चलता रहा तो बहुत जल्द यह क्षेत्र रेगिस्तान में बदल जायेगा़ जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं, उसे हम उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देते हैं, जो बमुश्किल सौ साल चलते है़ं पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं हाेते, वे उस क्षेत्र के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते है़ं पहाड़ के प्रति सरकार की बेपरवाही के नतीजे इनके खिसकने के रूप में सामने आ रहे हैं, जो खनन से बेजान हो गये है़ं

देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की कई मुहीम चल रही है, लेकिन पहाड़ों-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर विमर्श कम ही हो रहा है़ समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गये है़ं हजारों-हजार वर्षों में जो गांव-शहर बसे, उनका मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता थी़ पहले नदियों के किनारे सभ्यता विकसित हुई, फिर ताल-तलैयों के तट पर बस्तियां बसने लगी़ं बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्षा होती रही है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ़ क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने और पहाड़ पर नमी बचाकर रखने की तकनीक सीख ली थी़

छतरपुर में सौ वर्ष पहले तक शहर के चारों सिरों पर हरे-भरे घने जंगलों वाले पहाड़ थे, जिन पर खूब जड़ी-बूटियां थीं, पक्षी, जानवर थे़ पानी बरसने पर उसे अपने में समेटने का काम हरियाली करती और बचा हुआ पानी नीचे तालाबों में एकत्र हो जाता़ भरी गर्मी में भी वहां की शाम ठंडी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब रहते थे़ पर बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गयी़ नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है़ अब पक्की सड़कें डाली जा रही है़ं वहां किसी भी दिन पहाड़ धंसने की घटना हो सकती है और यह गांव एक और मालिण बन सकता है़

खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया़ जबकि उस पर तो किसी की दावेदारी भी नहीं थी़ गुजरात से देश की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें, तो अदालतों की बार-बार चेतावनी पर भी बिल्डर लाॅबी छेड़छाड़ से बाज नहीं आ रही़ कभी सदानीरा कहलाने वाले इस क्षेत्र में पानी का संकट खड़ा हो गया है़ सतपुड़ा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमाला ले लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है़

रेल मार्ग या हाइवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थव्यवस्था, आस्था व विश्वास का प्रतीक होते है़ं वे जानते हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस क्षेत्र से कई किलोमीटर दूर तक हो सकते है़ं पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, जिसे बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था़ दो वर्ष पहले बरसात में पहाड़ ढहने से यह गांव पूरी तरह नष्ट हो गया़ यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है, तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है़ वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है़

वैश्विक तापन व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी पहाड़ों से जंगल उजाड़ देने के चलते ही हुआ है़ विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया, तो गांवों-कस्बों में विकास के नाम पर आये वाहनों के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया़ जिन पहाड़ों पर इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जमकर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को ऐसे ही छोड़ दिया गया़ राजस्थान इसकी बड़ी कीमत चुका रहा है़ यहां की जमीन बंजर हुई, भूजल के स्रोत दूषित हुए व सूख गये़

हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियरों के पिघलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गयी है, लेकिन देश में हर वर्ष बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखती़ पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल और उनके मार्ग है़ं पहाड़ पर हरियाली न होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आकर नदी-तालाब में गाद के रूप में जमा हो उसे उथला बना देती है़ पहाड़ पर फैली हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियों का चरागाह होते है़ं और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है पहाड़ों के लिए़ लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए़

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by : Pritish Sahay

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