भारत में पीढ़ीगत कुपोषण चिंता का विषय रहा है. बच्चों में इस समस्या का मुख्य कारण बाल विवाह और किशोरावस्था में गर्भधारण है, जिसके स्वास्थ्य, शिक्षा एवं रोजगार पर दीर्घकालिक प्रभाव होते हैं. माता व शिशु तथा किशोरवय में स्वास्थ्य में निवेश के अच्छे परिणाम निम्न व मध्य आय के देशों में देखने को मिलते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि बाल विवाह में ठहराव है, लेकिन किशोर आयु में गर्भधारण बढ़ा है.
पिछले सर्वे की तुलना में इस बार त्रिपुरा और असम में राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक बाल विवाह और कम आयु में गर्भधारण के मामले सामने आये हैं. मणिपुर और मेघालय में राष्ट्रीय औसत से अधिक किशोरावस्था में गर्भधारण होता है. मेघालय में पांच साल से कम आयु के बच्चों के विकास में अवरोध की दर 46.5 है, जो पूर्वोत्तर और देश में सर्वाधिक है. इस मामले में त्रिपुरा की स्थिति भी चिंताजनक है. मणिपुर, सिक्किम और असम में भी यह दर बहुत अधिक है.
कुपोषण के साथ-साथ पूर्वोत्तर में पांच साल से कम आयु के बच्चों में अधिक वजन की समस्या भी चिह्नित की गयी है. मेघालय के अलावा क्षेत्र के सात राज्यों में अधिक वजन की समस्या में वृद्धि के रुझान पाये गये हैं. सिक्किम में कम वजन के बच्चों की संख्या में तीन प्रतिशत से अधिक की कमी हुई है, लेकिन अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या में एक प्रतिशत की वृद्धि हुई है. राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों में मोटापा की औसत दर 2.1 प्रतिशत है, पर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में यह दर इससे अधिक है.
स्त्रियों के पोषण को देखें, तो एक ओर दुबली महिलाओं की संख्या 2015-16 के 22.9 प्रतिशत से घटकर 2019-21 में 18.3 प्रतिशत हुई है, लेकिन मोटापा का स्तर 20 से बढ़कर 24 प्रतिशत हो गया है. साथ ही, 15 से 45 साल के आयु वर्ग में खून की कमी से ग्रस्त महिलाओं की संख्या 53 से 57 प्रतिशत हो गयी है. तथ्य इंगित करते हैं कि किशोर महिलाओं से जन्मे बच्चों में बाधित विकास अन्य की तुलना में 10 प्रतिशत अधिक है. गरीबी और लैंगिक भेदभाव पीढ़ीगत कुपोषण के चक्र को और अधिक मजबूत बनाते हैं, जिससे मानसिक और शारीरिक विकास बाधित होता है. कुपोषण की यह स्थिति माता और शिशु में समुचित निवेश की मांग करती है.
खून की कमी के रुझान पांच साल से कम आयु के बच्चों, 15 से 49 साल के आयु वर्ग की महिलाओं तथा 15 से 19 साल की लड़कियों में बढ़ते हुए पाये गये हैं. मेघालय के अलावा पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में बच्चों में खून की कमी के मामले बढ़े हैं. यह असम में 68.4, मिजोरम में 46.4, मणिपुर में 42.8 और त्रिपुरा में 64.3 प्रतिशत है. खून की कमी से ग्रस्त महिलाओं की राष्ट्रीय दर 57 प्रतिशत है, जबकि असम में यह 65.9 प्रतिशत है. असम और त्रिपुरा में किशोर लड़कियों में भी यह समस्या बढ़ी है.
यदि खून की कमी से ग्रस्त किशोर महिला गर्भधारण करती है, तो शिशु को जन्म देते समय उसकी मौत होने, शिशु का वजन कम होने तथा उसमें भी खून की कमी होने जैसे खतरे बहुत बढ़ जाते हैं. राष्ट्रीय कुपोषण सर्वे के अनुसार असम में 40 फीसदी किशोर लड़कियों में खून की कमी की समस्या है. लगभग 25 प्रतिशत किशोरियों को मिड-डे मील, साल में दो बार स्वास्थ्य जांच, आयरन एवं फोलिक एसिड की साप्ताहिक खुराक जैसी सुविधाएं नहीं मिलती हैं.
गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली आयरन एवं फोलिक एसिड की साप्ताहिक खुराक जहां सिक्किम में 31.5 प्रतिशत महिलाओं को मिलती है, वहीं नागालैंड में यह आंकड़ा मात्र 4.1 प्रतिशत है. पूर्वोत्तर के आठ में से छह राज्यों में स्तनपान की दर में भी गिरावट आयी है.
जल और स्वच्छता से संबंधित पोषण संकेतक मणिपुर, मिजोरम और सिक्किम में उल्लेखनीय रूप से बेहतर हुए हैं. यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि मिजोरम में स्वच्छ पेयजल उपलब्धता 95.9 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत के बराबर है तथा स्वच्छता एवं रसोई में स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल के मामले में स्थिति क्रमशः 95.3 और 83.8 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत से बेहतर है. समय-समय पर चिकित्सकीय परामर्श लेने से गर्भावस्था और जन्म देने के दौरान की स्वास्थ्य समस्याओं से बचा जा सकता है.
आठ में चार राज्यों- असम, मणिपुर, मेघालय और नागालैंड- में ही गर्भवती महिलाओं द्वारा ऐसे परामर्श लेने में वृद्धि देखी गयी है. मणिपुर में यह सबसे अधिक है, जहां इसकी दर 79.4 प्रतिशत है. देशभर में बदलाव की सफल कहानियां इंगित करती हैं कि लड़कियों एवं महिलाओं में निवेश करने तथा पोषण एवं स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की आवश्यकता है.
अध्ययन बताते हैं कि जीवनभर पोषण में निवेश करने से कुपोषण के पीढ़ीगत चक्र से छुटकारा पाया जा सकता है. भारत सरकार के पोषण मिशन का लक्ष्य विभिन्न विभागों के संयुक्त प्रयास और समुचित संचार रणनीति से कुपोषण को मिटाकर मानव विकास में योगदान करना है. इसे ठीक से लागू करने का समय अभी ही है.