वैश्विक मंदी की चिंताओं के बीच यह आशंका भी बढ़ती जा रही है कि कई देशों की अर्थव्यवस्था का हाल श्रीलंका की तरह हो सकता है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष 73 ऐसे देशों पर लगातार नजर बनाये हुए है, जिन पर बहुत अधिक कर्ज है. इनमें 40 देश ऐसे हैं, जो कर्ज के बहुत अधिक दबाव में आ सकते हैं और उनकी अर्थव्यवस्था ढह सकती है. ब्लूमबर्ग के विश्लेषण में ऐसे 19 देशों की पहचान की गयी है, जो अपने कर्ज की किस्त चुकाने में अक्षम हो सकते हैं.
ऐसे देशों में अर्जेंटीना, पाकिस्तान, इक्वाडोर, मिस्र, एल साल्वाडोर, इथोपिया, घाना, केन्या, नाइजीरिया, ट्यूनीशिया आदि शामिल हैं. इस सूची में यूक्रेन, रूस और बेलारूस भी हैं, पर उनकी समस्याओं के कारण दूसरे हैं. ये तीन देश युद्ध और पाबंदियों के कारण अपने कर्जों को नहीं चुका पा रहे हैं. ऐसा माना जा रहा था कि महामारी की चपेट से निकलने के बाद वैश्विक व्यापार बढ़ने के साथ कर्ज में डूबे देशों को भी राहत मिलेगी.
लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध समेत अनेक भू-राजनीतिक हलचलों, वैश्विक आपूर्ति शृंखला में अवरोध तथा कई देशों में मुद्रास्फीति के उच्च स्तर ने उन उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. कुछ महीनों से डॉलर के मूल्य में बढ़ोतरी हो रही है तथा मुद्रास्फीति की रोकथाम के लिए कई देशों के केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को बढ़ाते जा रहे हैं. तेल व गैस तथा खाद्य पदार्थों की महंगाई में कमी के आसार दूर-दूर तक नहीं हैं. इसके साथ ही दुनियाभर में आर्थिक मंदी की आहट से भी चिंताएं बढ़ रही हैं.
ऐसी स्थिति में जिन देशों पर कर्ज का बोझ बहुत अधिक है और उनकी अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खा रही है, उन पर दबाव बढ़ता जा रहा है. कई देश, उदाहरण के लिए हमारे पड़ोस में पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की गुहार लगा रहे हैं. एक अन्य दक्षिण एशियाई देश म्यांमार की आर्थिक स्थिति भी चौपट हो चुकी है. कोरोना महामारी से निपटने के लिए भी कई देशों को मुद्रा कोष, विश्व बैंक और धनी देशों ने मदद की थी.
जाहिर है कि वैश्विक वित्तीय संस्थाएं एक हद तक ही संकटग्रस्त देशों की सहायता कर सकती हैं. कुछ देश ऐसी सहायता से वंचित रह जायेंगे. चीन समेत अनेक धनी देश भी ब्याज कम करने या चुकाने की समय सीमा बढ़ाने में संकोच कर रहे हैं क्योंकि उनकी अपनी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. जानकारों का मानना है कि इन देशों, विशेषकर जी-20 समूह, को ही आगे आना होगा तथा सामूहिक रूप से कर्ज से बेहाल अर्थव्यवस्थाओं को राहत देना होगा.
अगर यह संकट गहरा होता है, तो उसका असर देशों की सीमाओं तक सीमित नहीं रहेगा. इससे धनी देशों के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी कुठाराघात होगा तथा पलायन समेत अनेक मानवीय संकट भी पैदा होंगे. इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कर्ज में डूबे देशों की सहायता के लिए आगे आना चाहिए.