Mahatma Gandhi : कहते हैं कि वैज्ञानिक कोई बात यूं ही नहीं कहते. पहले उसे परीक्षणों से गुजारते हैं और वह उनकी कसौटी पर खरी उतरती है, तब कहते हैं. इस लिहाज से देखें, तो दुनिया के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के बारे में यह बात भी यूं ही नहीं कही होगी कि ‘भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना उन (महात्मा गांधी) जैसा कोई व्यक्ति कभी इस धरती पर आया था.’
ऐसे में एक बहुत स्वाभाविक प्रश्न है कि आइंस्टीन ने महात्मा में ऐसा क्या देखा और उसे किन कसौटियों पर परख कर यह बात कहना तय किया था? इसका उत्तर ढूंढ़ें तो पहला विकल्प निसंदेह, महात्मा की वह असाधारण साधारणता ही नजर आती है, जिसने हमारे स्वतंत्रता संग्राम से जुड़कर न केवल अपने देश, बल्कि दुनियाभर को अहिंसक सत्याग्रह का अनूठा औजार दिया.
हम इस उत्तर सत्य युग में रहते हुए अभी से यह विश्वास करने में मुश्किल का सामना करने लगे हैं कि महात्मा ने देश व दुनिया की राजनीति को साधन व साध्य दोनों की पवित्रता का जो अपूर्व सिद्धांत न केवल दिया, बल्कि उसे अपरिमित स्वीकृति भी दिलायी, वह कोई दैवीय नहीं, उनका मानवीय करिश्मा था. आखिरकार, इस करिश्मे ने ही उन्हें इतना आत्मबल दिया, जिससे वे कह सके कि उनका जीवन ही उनका संदेश है. उनसे पहले की राजनीति में, कोई दावा कुछ भी क्यों न करे, साधन व साध्य दोनों की पवित्रता और सत्य के आग्रह की जगह या तो थी ही नहीं, या उतनी ही थी, जितने से उनका दिखावा किया जा सके.
समझा जा सकता है कि इन हालात में महात्मा को अपनी इस स्थापना को लोगों के बीच ले जाने और स्वीकृति दिलाने में कितने द्रविड़ प्राणायाम करने पड़े होंगे कि अपवित्र राजनीति मनुष्य की मुक्तिकामना को कतई पंख नहीं दे सकती. इसके लिए उसे तो धर्म के रास्ते से चलना ही होगा, धर्म को भी समझना होगा कि वह धर्म, धर्म ही नहीं है, जो राजनीति से परहेज करे.
प्रसंगवश, महात्मा के निकट धर्म किसी कर्मकांड का नाम नहीं था. सत्य व अहिंसा उनके सबसे बड़े आराध्य थे और उनका मानना था कि राजनीति को शुद्ध किये बिना इस धर्म का पालन नहीं हो सकता. उनके धर्म में विवेक की जगह किसी भी कर्मकांड से ऊपर थी और यह विवेक ‘जैसे को तैसा’ के बजाय ‘शठं प्रत्यपि सत्यमम्’ के मार्ग का समर्थन करता, ‘शठे नाट्यम’ का निषेध करता और सार्वजनिक धन के उपयोग में पाई-पाई के हिसाब की मांग करता था. महात्मा ने खुद को इस विवेक की कसौटी पर इतना कस रखा था कि एक रात ग्यारह बजे सोते वक्त रोज की तरह उन्होंने जलती लालटेन बुझानी चाही, तो उनकी निजी सहायक मनु बेन ने पूछ लिया कि जब वे सुबह तीन बजे ही उठ जाते हैं और उठते ही उन्हें फिर से लालटेन जलानी पड़ती है, तो भला उसे बुझाते ही क्यों हैं? इस पर महात्मा का उत्तर था, ‘यह लालटेन जनता के पैसे से जलती है और जनता के पैसे को बेरहमी से खर्च करने का हमें कोई अधिकार नहीं है.’
साबरमती आश्रम में वे सुबह दातून करते तो उसे धोकर एक तरफ सूखने के लिए रख देते, ताकि जलाने के काम आ सके. कभी कोई आश्रमवासी भूल से भी हाथ धोने के लिए जरूरत से ज्यादा पानी गिराने लगता तो वे उससे कहते, ‘साबरमती के सारे पानी के मालिक हम लोग ही नहीं हैं. और लोग भी हैं और उन्हें भी पानी की जरूरत है.’ आश्रम में भोजन के लिए नियत समय का कड़ाई से पालन किया जाता था. समय हो जाता तो दो घंटियां बजायी जातीं और दरवाजा बंद कर दिया जाता. जो लोग पिछड़ जाते, देर से या बाद में आते, उन्हें दूसरी पांत की प्रतीक्षा करनी पड़ती.
बापू स्वयं भी इस नियम का अपवाद नहीं थे और उन्हें आने में विलंब हो जाता तो बंद दरवाजे के बाहर खड़े होकर अगली पांत, यानी अपनी बारी की प्रतीक्षा किया करते. एक बार आश्रम के व्यवस्थापकों ने उन्हें बताया कि कुछ आश्रमवासी अपनी थालियों में बहुत जूठन छोड़ने लगे हैं. इस पर बापू ने दरवाजे के पास अपना आसन लगाकर सारे आश्रमवासियों से कह दिया कि जो भी थालियां धोने या मांजने ले जाए, उन्हें दिखाकर ले जाए कि वह खाली है या नहीं. इसके बाद आश्रमवासियों ने जूठन छोड़ना बंद कर दिया. आश्रम का कोई कार्यकर्ता बीमार हो जाता, तो बापू को उसका इतना ख्याल होता कि उसकी देखभाल के लिए वायसराय से हो रही कितनी भी महत्वपूर्ण चर्चा को विराम दे देते. सोचिए जरा, इस सबके बाद आइंस्टाइन को उनकी बाबत उक्त बात कहने के लिए कितने और परीक्षणों की जरूरत होती?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)