भाजपा पर भारी केजरीवाल की सियासत

आप के पार्षदों के लिए भ्रष्टाचार करना आसान नहीं होगा क्योंकि दिल्ली पुलिस समेत केंद्रीय एजेंसियों की निगाह उन पर रहेगी. नगर निगम में मजबूत विपक्ष बनकर उभरी भाजपा को विपक्षी राजनीति बखूबी करनी आती है.

By उमेश चतुर्वेदी | December 8, 2022 8:14 AM

दिल्ली नगर निगम पर अरविंद केजरीवाल का कब्जा हो गया. यदि 2017 के नगर निगम चुनाव की तुलना में देखें, तो भाजपा की हार बड़ी है, लेकिन 2020 के विधानसभा नतीजों के हिसाब से देखें, तो आम आदमी पार्टी की जीत भी बड़ी नहीं है. साल 2013 में केजरीवाल के उभार के बाद लोकसभा के दो चुनाव हुए हैं, जिनमें भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी ताकत झोंकी.

लेकिन विधानसभा चुनाव में दिल्ली भाजपा ने वैसा उत्साह नहीं दिखाया, जिनसे कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन की उम्मीद रहती है, वे रणनीति के मसले पर पल्ला झाड़ते दिखे, जबकि अमित शाह ने खुद मोर्चा संभाल रखा था. इसका असर इतना ही हुआ कि 2015 की 67 सीटों के मुकाबले आम आदमी पार्टी की पांच सीटें कम हुईं.

दरअसल दिल्ली में भाजपा को संभालने वाले जो लोग हैं, उनके मानस की बुनावट अब भी दिल्ली की पुरानी जनसांख्यिकी पर केंद्रित है. यहां अस्सी के दशक तक पंजाबी, बनिया और शरणार्थी समुदाय की जनसंख्या में प्रभावी उपस्थिति थी. तब देहात के जाट और गुजर समुदाय में भाजपा का असर कम था. तब दिल्ली भाजपा पर पंजाबी, बनिया और शरणार्थी समुदाय के नेताओं का बोलबाला था. अब स्थिति बदल चुकी है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड मूल के लोगों की संख्या बढ़ी है. अपने मूल राज्यों में ये लोग या उनके परिजन ज्यादातर भाजपा के समर्थक हैं. पर यही लोग दिल्ली में केजरीवाल के साथ नजर आते हैं. इसकी मोटी वजह यह है कि पुरानी जनसांख्यिकी से प्रभावित दिल्ली भाजपा का नेतृत्व नयी जनसांख्यिकी के मुताबिक राजनीति करने और कार्यकर्ता बनाने का मानस नहीं बना पाया है.

इसके अनुसार नेता उभारने की हिचक भी नेतृत्व में दिखती है. यह ठीक है कि दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष बिहार मूल के मनोज तिवारी को बनाया गया, लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी सहज स्वीकार्यता भाजपा में नहीं बनी. आदेश गुप्ता भले ही वणिक समुदाय से हैं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश के कन्नौज से जुड़ी है. कह नहीं सकते कि भाजपा के भीतर उन्हें कितना स्वीकार किया गया है.

केजरीवाल ने शुरू से अपनी राजनीति में नयी जनसांख्यिकी आधारित वैचारिकता को बढ़ावा देने की कोशिश की है. उन्होंने हर बार उत्तराखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश मूल के कार्यकर्ताओं पर ज्यादा भरोसा जताया है. उनका भी स्वभाव केंद्रीयकृत व्यवस्था को बढ़ावा देने वाला है, पर यह भी सच है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के प्रवासी समुदायों को मिलाकर ऐसा सियासी कोलाज बनाया है, जिसकी धमक अब नगर निगम के नतीजों में भी दिखी है.

पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं में यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह सत्ता में हर समुदाय के लोगों को भागीदारी देने वाली है. इसका असर यह है कि भाजपा की तमाम रणनीतियों पर केजरीवाल का कोलाज हावी हुआ है. केजरीवाल का दावा था कि भाजपा को बीस से ज्यादा सीटें नहीं आयेंगी. पर भाजपा पांच गुना से ज्यादा सीटें जीती है.

इसका मतलब यह भी है कि दिल्ली के लोग पार्टी के स्तर पर भाजपा को लेकर ज्यादा गुस्से में नहीं हैं, बल्कि उनका गुस्सा स्थानीय स्तर पर चुनावी मैदान में खड़े भाजपा के उम्मीदवारों पर था. दक्षिण दिल्ली के मेयर रहे भाजपा उम्मीदवार को लेकर स्थानीय स्तर पर भाजपा कार्यकर्ता नारा लगाते नहीं थके थे कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, स्थानीय उम्मीदवार की खैर नहीं.’

भाजपा के ज्यादातर उम्मीदवार अपनी अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के कारण हारे हैं. पार्टी के स्तर पर भाजपा के लिए रोष नहीं है. अगर भाजपा ने अरविंद केजरीवाल की तरह आज की जनसांख्यिकी के हिसाब से सियासी कोलाज बनाया होता, तो उसकी हार शायद नहीं होती. दिल्ली नगर निगम के नतीजों ने केजरीवाल को भी संकेत दिये हैं. जेल में बंद उनके मंत्री सत्येंद्र जैन और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी को एक भी वार्ड पर जीत नहीं मिली है.

एक अन्य मंत्री गोपाल राय की सीट के अधीन चार वार्डों में से दो पर भाजपा, एक पर कांग्रेस और एक पर आम आदमी पार्टी जीती है. साफ है कि इन नतीजों ने आम आदमी पार्टी को भी चेतावनी दी है. केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद यहां के नगर निगम को केंद्र से मिलने वाला कोष भी दिल्ली सरकार के जरिये आता है. जानकार जानते हैं कि केजरीवाल सरकार ने उसे नगर निगम को कभी सही वक्त पर नहीं दी. इसके चलते निगम में अराजकता रही.

इसका भी खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है. लेकिन अब केजरीवाल ऐसा बहाना नहीं कर पायेंगे. उन्होंने कूड़े के पहाड़ों को हटाने का मुद्दा बनाया. उन्हें इन पहाड़ों को हटाना होगा. बसों के बेड़े को भी सुधारना होगा. अब वे केंद्र और नगर निगम पर ठीकरा नहीं फोड़ पायेंगे. उनके पार्षदों के लिए भ्रष्टाचार करना आसान नहीं होगा क्योंकि दिल्ली पुलिस समेत केंद्रीय एजेंसियों की निगाह उन पर रहेगी. नगर निगम में मजबूत विपक्ष बनकर उभरी भाजपा को विपक्षी राजनीति बखूबी करनी आती है, लिहाजा वह मौका नहीं छोड़ेगी.

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