कभी-कभी जिंदगी के कुछ क्षण निराशा से भरे होते हैं. आपके संस्थान, विद्वान मित्र, ज्ञान के केंद्र आदि कभी-कभी अच्छे संकेत नहीं देते हैं. ऐसे निराश क्षणों में कोई ऐसी किरण दिखती रहती है, जिससे लगता है कि दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है. प्रो मैनेजर पांडेय पिछले कई वर्षों से ऐसी ही उम्मीद की किरण की तरह दिख रहे थे. जुलाई में कोरोना होने के बाद उनकी तबियत लगातार खराब होती गयी और अभी कुछ दिन पहले ही उन्हें घर लाया गया था.
आज सुबह वह दुखद खबर आयी कि अब वे हमारे बीच नहीं रहे. सुबह जब उनकी पुत्री रेखा का रोते हुए फोन आया, तब समझ नहीं पाया कि क्या करूं. पिछले कई वर्षों से रेखा उनके साथ रह रही थीं. वर्ष 2018 के बाद डॉक्टरों ने उन्हें परहेज से रहने के लिए कहा था, पर लेखक कब बंधनों में रहता है! यद्यपि वे डॉक्टरों की सलाह मानते थे, पर कभी-कभी मन की बात भी मान लेते थे.
उनका लिखना, पढ़ना, साथियों से मिलना कभी छूटा नहीं. उनकी लेखकीय यात्रा भी जारी रही, पर शरीर तो शरीर है. मन, जिसे दर्शन शास्त्र के अध्येता मतिष्क यानी ज्ञान का भंडार कहते है, उसे कितना ढो पाता! आज टूट गया शरीर और उड़ गया मन का पक्षी उस अनंत यात्रा पर, जहां से वापसी संभव नहीं होती.
एक समय था, जब वे मंच पर आते थे, तो बड़े-बड़े विद्वान बगलें झांकने लगते थे. अभी भी पिछली बार जब हम घर पर मिले थे, आवाज की खनक में कोई कमी नहीं थी. अपनी जिंदगी में वे कभी रुके नहीं. आजकल अपनी आखिरी किताब दारा शिकोह पर कार्य कर रहे थे. उनकी आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण किताब संभवतः यह होती- ‘संवादधर्मी सोच के दार्शनिक दारा शिकोह’. वर्ष 2006 में जब उन्होंने इस विषय पर जेएनयू में कुंवर सिंह स्मृति व्याख्यान दिया था, तब हमें नहीं पता था कि उनकी इतनी गहरी दिलचस्पी दारा शिकोह में है.
उनका यह व्याख्यान बाद में साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में छपा. बाद में लगातार इस विषय पर वे बात करते रहे. जब मुगल बादशाहों की हिंदी कविता पर काम कर रहे थे, तब जेएनयू में फारसी के प्रोफेसर अखलाक अहमद आहन ने उनके दारा शिकोह वाले अनुवाद और पाठों की शुद्धि में काफी मदद की थी.
कभी अखलाक साहब फोन नहीं उठाते, तब वे मुझे कहते- ‘अरे देवेंद्र, जरा अखलाक से कहना कि फोन कर लें. एक शब्द समझ में नहीं आ रहा है. सारा काम रुका पड़ा है.’ काम के प्रति इतनी गहरी दिलचस्पी अब कम अध्येताओं में दिखती है. जुलाई तक वे लिखने-पढ़ने में लगे रहे. कोविड से इलाज के बाद जब घर लौटे, तो फिर उठ नहीं पाये.
पिछली बार जब वे अस्पताल में थे और हम सब देर शाम तक वहां बातें करते रहे, तब ऐसा नहीं लगता था कि वे इतनी जल्दी चले जायेंगे. मैं रश्मि और अखलाक जी से कह रहा था कि ‘इस इमारत की तीसरी मंजिल पर आइसीयू के एक बिस्तर पर प्रो पांडेय सर का इलाज चल रहा है.’ कई बार हम ऊपर उन्हें देखने नहीं जा पाते थे. वह दिन भी कठिन था और आज का समय भी कठिन है.
हम सबने इसकी कभी कल्पना नहीं की थी कि एक समय हिंदी एकेडमिक और साहित्य की दुनिया में अपनी साहसपूर्ण शैली से वैचारिक दुनिया को ललकारने वाला एक आलोचक कोविड के प्रभाव के कारण आज उदास आंखों से अस्पताल की बेड पर पड़ा दुनिया को निहार रहा होगा. एक बार जब मैं उनसे मिलने अस्पताल गया था, तब मेरे साथ खड़ी नर्स ने मुझसे पूछा, ‘आप कौन हैं?’ जब उसे पता चला कि वे मेरे शिक्षक हैं, तब उसने उनके करीब जाकर पूछा, ‘पहचानिए, ये कौन है?’ उन्होंने इशारे से हल्का-सा सर हिलाया. आंखों में एक चमक आयी और फिर पलकें गिरती गयीं.
उस दिन मेरे लिए इतना काफी था कि उनकी चेतना अभी खत्म नहीं हुई है. एक दिन फिर वे उठेंगे और दारा शिकोह पर अधूरी पड़ी किताब को पूरा करेंगे- ‘संवादधर्मी सोच के दार्शनिक दारा शिकोह,’ पर अब यह पूरा नहीं हो पायेगा. दारा शिकोह पर किताब पूरी करने की चेतना और चिंता लिये वे हमारे बीच से ऐसे गये, जैसे अभी-अभी कहीं से आयेंगे एवं फिर उनकी बैठक में वे हंसी तथा व्यंग्य के ठहाके फिर सुनाई देंगे, जिसे हिंदी समाज अपनी चेतना में संजोये हुए है. इसीलिए कहा जाता है कि लेखक की दुनिया बड़ी होती है, उतनी ही बड़ी, जितना कि यह संसार. यह संसार ही तो है, जो हमारे होने का अर्थ देता है.