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पंजाब व दक्षिण में भाजपा के प्रदर्शन के मायने

ओडिशा और तेलंगाना के लोकसभा चुनाव के नतीजों तथा पंजाब, तमिलनाडु और केरल में भाजपा की बढ़त का संदेश साफ है. भाजपा, कांग्रेस की तरह अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी है.

चुनावी चर्चाओं के बीच एक बात पर कम ध्यान है. नतीजों में पिछड़ने के बावजूद भाजपा ने कुछ इलाकों में कुलांचें मारने में सफल भी हुई है. ओडिशा और तेलंगाना के नतीजों की इस संदर्भ में चर्चा हो भी रही है. लेकिन कम से कम तीन राज्य ऐसे हैं, जहां भाजपा का प्रदर्शन ध्यान खींचता है. पंजाब, केरल और तमिलनाडु में उसने बिना किसी बड़े सहारे के जो प्रदर्शन किया है, उससे विरोधियों को चिंतित होना चाहिए. दोबारा जब किसान आंदोलन उभरा था, तो हरियाणा पुलिस ने अंबाला के पास शंभू बॉर्डर पर पंजाब से आते आंदोलनकारी किसानों को रोका था, जो चर्चा का विषय बना था. किसान आंदोलन को लेकर मान लिया गया था कि पूरा पंजाब ही भाजपा के खिलाफ है. सीटों के लिहाज से नतीजे पार्टी के पक्ष में नहीं रहे, लेकिन वोटों के लिहाज से उसने जबरदस्त उछाल मारा है. वाजपेयी की अगुवाई में बने एनडीए के जमाने से भाजपा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के छोटे भाई की भूमिका में रही है. जालंधर, अमृतसर, पटियाला और लुधियाना जैसी शहरी सीटों पर ही वह अकाली दल के सहयोग से चुनाव लड़ती रही है. भाजपा की अपनी राजनीति को सीमित करने के अकाली प्रयास का पहला विरोध नवजोत सिद्धू ने किया. पर वे सफल नहीं हुए और उन्हें कांग्रेस में ठौर तलाशना पड़ा.

किसान आंदोलन के दौरान पंजाब के राजनीतिक माहौल को देखते हुए अकाली दल ने भाजपा से अपनी अलग राह कर ली. इसके बाद भाजपा ने अपने दम पर आगे बढ़ने की सोची. अकालियों के सहयोग से 2019 में चुनाव लड़कर महज 9.63 प्रतिशत मत हासिल करने वाली भाजपा ने विपरीत हालात में 2024 में 18.56 प्रतिशत मत पाया है. पंजाब में पार्टी के बारे में कहा जाता रहा है कि वह शहरी हिंदुओं की पार्टी है. राज्य में हिंदू आबादी करीब 38.5 प्रतिशत है. सत्ताधारी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को महज 25 और 26 प्रतिशत मत ही मिल सके हैं. बहुकोणीय मुकाबले के चलते कांग्रेस सबसे अधिक सीटें जीतने में सफल रही. जो अकाली दल भाजपा को अपना पिछलग्गू बनाने की कवायद में जुटा रहता था, उसे करीब 13 प्रतिशत से ही संतोष करना पड़ा. हां, उसे एक सीट मिली है.

कर्नाटक को छोड़ दें, तो दक्षिण में केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना भाजपा के लिए प्रश्न प्रदेश रहे हैं. तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों का दबदबा रहा है. अतीत में भाजपा को कभी सफलता मिली भी, तो उसे द्रविड़ पार्टी की खैरात माना गया. पर बिना किसी द्रविड़ राजनीतिक बैसाखी के सहारे पार्टी ने पहली बार 2024 में खुद की जमीन तैयार करने की सोची. अन्नामलाई की अगुआई में पार्टी 11 प्रतिशत से अधिक वोट पाने में सफल रही. राज्य की 39 में से महज 19 सीटों पर ही वह लड़ी थी और चार जगहों पर उसके सहयोगी दल उतरे. साल 2019 में पार्टी को यहां से महज 3.6 प्रतिशत वोट मिले थे. कांग्रेस इस बार के अपने प्रदर्शन को लेकर भाजपा पर खूब तंज कर रही है. तमिलनाडु में उसे सीटें मिलने का श्रेय गठबंधन को जाता है. लेकिन उसे वोट 10.78 प्रतिशत ही मिला है, जो भाजपा से कम है. तमिलनाडु से सटे केरल की त्रिशूर सीट पर भाजपा को जीत मिली है. पार्टी को 2019 में राज्य में करीब पंद्रह फीसदी वोट मिले थे, जो इस बार 20 प्रतिशत से ज्यादा है. अनेक सीटों पर उसका जबरदस्त प्रदर्शन रहा. दिलचस्प यह है कि केरल में भाजपा हिंदू समुदाय के बजाय ईसाई समुदाय में पैठ बनाती दिख रही है.

आंध्र प्रदेश में भाजपा की सफलता में तेलुगू देशम का सहयोग शामिल है. लेकिन तेलंगाना की कामयाबी उसकी अपनी है. वहां 2019 में पार्टी को 19.65 प्रतिशत वोट और चार सीटें मिली थीं, पर इस बार उसे 35.08 प्रतिशत वोट और आठ सीटें हासिल हुई हैं. यह बड़ी जीत है और वह यहां सत्ताधारी कांग्रेस से मुकाबला कर रही है. कुछ महीने पहले जब तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनी थी, तो नैरेटिव गढ़ा गया था कि उत्तर भारत के लोग जहां जाति और धर्म के आधार पर वोट डालते हैं, वहीं दक्षिण के लोग मुद्दों पर मतदान करते हैं. इस तरह भाजपा और उसके वोटरों को नीचा दिखाने की कोशिश हो रही थी. दक्षिण और पंजाब जैसे राज्य में भाजपा की बढ़त के संदर्भ में इसे सही माना जाना चाहिए? उत्तर प्रदेश या बिहार में इंडिया गठबंधन को बेहतर नतीजे मिले हैं, तो क्या उस पर जाति और धर्म वाला नैरेटिव लागू नहीं होना चाहिए? राजनीतिक पंडितों और इंडिया गठबंधन को इस पर सोचना चाहिए.

बहरहाल, ओडिशा और तेलंगाना के नतीजों तथा पंजाब, तमिलनाडु और केरल में भाजपा की बढ़त का संदेश साफ है. भाजपा कांग्रेस की तरह अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी है तथा वह विभिन्न समुदायों में भी पैठ बना रही है. भाजपा की बुनियाद हिंदुत्व है, जिसे वह भारतीयता का प्राण बिंदु मानती रही है. इसी बुनियाद पर वह आगे बढ़ रही है. विंध्य के नीचे के इलाकों में भी पहुंच रही है और हिमालय की तलहटी में भी. उत्तर-पूर्व में भी उसने पहले से ही धमक बना रखी है. चुनाव नतीजों को इन संदर्भों में भी देखा और समझा जाना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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