संजय चौहान की विदाई के मायने
रिसर्च और पत्रकारिता संजय चौहान की रग-रग में व्याप्त थी. उम्र के पूर्वार्द्ध के उत्तरार्द्ध में वह अपनी इन्हीं 'रगों' को लेकर मुंबई की मायानगरी में दाखिल हुए और उन्होंने स्क्रिप्ट के चाल-चरित्र को बदल दिया. वह कहते थे कि वह बिना रिसर्च और डॉक्यूमेंटेशन के कथा या पटकथा की परिकल्पना ही नहीं कर सकते.
कुछ वर्ष पहले पत्रकारिता से जुड़े अपने कुछ छात्रों को मैंने ‘पानसिंह तोमर’ फिल्म देखने की सलाह दी. उनमें से एक छात्र ने प्रतिक्रिया दी कि फिल्म तो अच्छी है, लेकिन इसे डॉक्यूमेंट्री फिल्म की श्रेणी में रखा गया होता, तो बेहतर होता. मैंने पूछा कि क्या उसे नहीं लगता कि यह इस फिल्म की विशेषता भी हो सकती है. यह फिल्म दरअसल इतनी वास्तविक है कि डॉक्यूमेंटेशन का भ्रम देने लग जाती है. इस अप्रतिम फिल्म के लेखक संजय चौहान अचानक चले गये.
बीते गुरुवार की रात मुंबई के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया. बासठ वर्षीय संजय कुछ महीनों से अस्वस्थ थे. उनकी असमय विदाई न सिर्फ मुंबई फिल्म जगत को खलेगी, बल्कि यह हिंदी लेखन और पत्रकारिता का भी बड़ा नुकसान है. ‘आइएम कलाम’, ‘धूप’ तथा ‘साहेब बीवी और गैंगस्टर’ जैसी शानदार फिल्मों की रचना भी संजय ने ही की थी. उन्होंने मुंबई फिल्म लेखन की दुनिया में ऐसे समय में प्रवेश लिया था, जब वहां की फिल्में एक नये सूर्योदय की ओर निहार रही थीं.
सिर्फ निर्माण और निर्देशन ही नहीं, बल्कि लेखन के क्षेत्र में भी ऐसी सोच दाखिल हो रही थी, जो फिल्म को कल्पना और फंतासी की दुनिया से परे डॉक्युमेंटेशन की सच्चाई से रूबरू कराना चाहती थी. फिल्म रिलीज होने के कई साल बाद मैंने पानसिंह तोमर के भाई डाकू बलवंत सिंह तोमर से लंबी बातचीत की थी. बलवंत का चरित्र फिल्म में भी है. जेल से रिहा होने के बाद वे ग्वालियर में रहते हैं. उन्होंने बताया कि कैसे फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने से पहले संजय चौहान उनसे लगातार बातचीत करते रहे थे.
बलवंत सिंह तोमर न तो बहुत शिक्षित हैं और न तब ‘स्क्रिप्ट’ और ‘रिसर्च’ जैसी बातों को ठीक से समझ ही सकते थे, लेकिन उन्हें इतना अंदाजा होने लगा था कि ये आदमी फिल्म यूनिट का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति है. बलवंत ने मुझे बताया कि कैसे संजय उन्हें पानसिंह के जीवन से जुड़ीं जगहों पर लेकर गये थे और वहां घटी घटनाओं के बारे में सवाल करते थे.
कई बार तो बलवंत झुंझला उठते थे. संजय चौहान मूलतः पत्रकार थे. स्क्रिप्ट लेखन से पहले वह पेशेवर पत्रकारिता में थे. ‘संडे मेल’ अखबार और ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका में उन्होंने काम किया था. उन्होंने जो अनेक कहानियां लिखी, वे भी किसी न किसी सत्य घटना पर आधारित थीं. वह मानते थे कि कहानी तभी प्रभाव छोड़ सकती है, जब उसके पीछे पूरा सच हो.
‘पानसिंह तोमर’ के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने उन्हें एक संक्षिप्त ‘न्यूज क्लिपिंग’ दी थी. वह एक ऐसे डाकू की जीवनी थी, जो पहले भारतीय सेना में रहा और जिसने बाधा दौड़ की अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं जीती थीं. संजय उस ‘क्लिपिंग’ को लेकर पानसिंह तोमर के गांव गये और उन लोगों से मिले, जो पानसिंह के जीवन में शामिल रहे थे. वह पुलिस और प्रशासन के उन लोगों से भी मिले, जिनका साबका पानसिंह तोमर से पड़ा था. वह सेना के उन अधिकारियों से भी मिले, जिनके मातहत पानसिंह ने नेक ‘जवान’ की तरह सेवा दी थी.
कई महीनों के शोध के बाद उन्होंने वह अद्भुत पटकथा लिखी थी. आम तौर पर हिंदी फिल्मों का संसार कल्पना और फैंटसी का संसार है. यह बात और है कि चुनिंदा हिंदी फिल्मों में कहानी का आधार ढूंढने के लिए रिसर्च का सहारा पहले भी लिया गया है. संजय चौहान का बड़ा योगदान इस बात में है कि उन्होंने न सिर्फ कहानी का आधार ढूंढने के लिए शुद्ध रिसर्च का सहारा लिया, बल्कि अपनी पटकथा को भी सच के रूप में ही रचा और उनके निर्देशकों ने उनके सच को ही ‘सच’ बना कर पेश भी किया.
‘आइ एम कलाम’ दिल्ली के एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले एक ऐसे किशोर की सच्ची कहानी है, जो राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मुतस्सिर होकर अपने जीवन की दिशा निर्धारित करने में जुट जाता है. इसकी पटकथा को भी डॉक्यूमेंटेशन की तर्ज पर ही रचा गया था. इस फिल्म की स्क्रिप्ट पर भी संजय को उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ स्क्रिप्ट का ‘फिल्मफेयर पुरस्कार’ मिला था.
रिसर्च और पत्रकारिता संजय चौहान की रग-रग में व्याप्त थी. उम्र के पूर्वार्द्ध के उत्तरार्द्ध में वह अपनी इन्हीं ‘रगों’ को लेकर मुंबई की मायानगरी में दाखिल हुए और उन्होंने स्क्रिप्ट के चाल-चरित्र को बदल दिया. वह कहते थे कि वह बिना रिसर्च और डॉक्यूमेंटेशन के कथा या पटकथा की परिकल्पना ही नहीं कर सकते. उनके हाथ में कुछ शानदार प्रोजेक्ट थे. देखते हैं, उनका भविष्य क्या होता है!