प्रो रजीउद्दीन अकील
इतिहासकार, दिल्ली विश्वविद्यालय
razi.history@gmail.com
गोपीचंद नारंग
(11 फरवरी, 1931-15 जून, 2022)
जमाने की गर्दिश देखिए कि जिस वक्त हमें कद्दावर शख्सियतों और रहनुमाओं की जरूरत है, बड़े लोग हमें अलविदा कह कर चले जा रहे हैं. उर्दू साहित्य के सबसे कर्मठ सेवक प्रोफेसर गोपीचंद नारंग साहब ने भी यह ऐलान कर दिया कि तुम रहो, हम तो अब चल बसे. यह उर्दू अदब का बड़ा खसारा है और इसकी क्षतिपूर्ति आसान नहीं होगी. हमें नहीं मालूम कि कोई लायक जानशीन उनका कायम मुकाम बन कर आगे भी उनके मेआर पर खरा उतर सकेगा. दुक्की, बलूचिस्तान (जो अब पाकिस्तान में है), के एक सरायकी परिवार में जन्मे और 60 से ज्यादा किताबों के लेखक नारंग साहब ने उर्दू अदब के आईने से दुनिया को अच्छी तरह देखा था, खास तौर पर मजहब के नाम पर होने वाली राजनीति को, जिसने समाज और निजाम को जकड़ लिया है. इन सबसे आजाद और ऊपर रह कर अपने लिए एक बुलंद मुकाम तैयार करना आसान काम नहीं होता. दिलो-दिमाग के सारे दरवाजों और खिड़कियों को खोल कर मामलों को समझने के लिए नये दृष्टिकोण तराशने होते हैं.
भारतीय उपमहाद्वीप के उर्दू हलकों में बरसों तक चमकते रहने वाले इस सितारे ने इस काम में मिर्जा गालिब और दूसरी मायनाज हस्तियों के गैर-मामूली कारनामों से प्रेरणा हासिल की. नारंग साहब के यहां यह साफ दिखता है. मिर्जा गालिब के शब्दों में- ‘आईना क्यों न दूं के तमाशा कहें जिसे/ ऐसा कहां से लाऊं के तुम सा कहें जिसे.’
गालिब के अलावा अमीर खुसरो, मीर तकी मीर, अल्लामा इकबाल और फैज अहमद फैज की शायरी और फलसफे का अध्ययन जिस जज्बे और विद्वता के साथ आपने किया है, आपसे ही मुमकिन था. इसका सार भारत की बहुलवादी संस्कृति और इतिहास के निर्माण में भक्ति और इस्लामी सूफी चेतना और दर्शन के महत्वपूर्ण योगदान को साहित्य के माध्यम से न सिर्फ समझना है, बल्कि इस विचारधारा को बढ़ावा भी देना है. अपनी किताब ‘अमीर खुसरो का हिंदवी कलाम’ के मार्फत नारंग साहब ने इतिहासकारों को भी आईना दिखाया है और भाषा एवं साहित्य के इतिहास में सूफी संत कवियों के विशेष योगदान को भी सराहा है.
यह काम उन्होंने एक ऐसे वक्त में किया, जब पेशेवर इतिहासकार सरकारी चक्कर में पड़ कर अपना काम ठीक से नहीं कर रहे थे. नारंग साहब के नजदीक समाज की सही समझ तत्कालीन साहित्य से मुमकिन है. साहित्य और समाज के बीच चोली-दामन का रिश्ता है, सरकारें तो आती-जाती रहेंगी. इसके अलावा, जनमानस की भीड़ से ऊपर और मजहब की सियासत से आगे फलसफे और मेटाफिजिक्स के रास्ते जिंदगी और सोच की गहराइयों का अनुभव अदब के जरिये शब्दों में उतारना कोई मामूली काम नहीं होता है. इसके लिए एक पूरी जिंदगी लगानी पड़ती है. इस जिंदगी में नारंग साहब तरक्की की सारी सीमाओं को लांघ गये. उनके अकादमिक जीवन पर एक नजर डालिए. आप दिल्ली के दो बड़े विश्वविद्यालयों- जामिया मिल्लिया इस्लामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय- में उर्दू के प्रोफेसर रहे और सेवानिवृत्ति के बाद दोनों संस्थानों में एमेरिटस प्रोफेसर भी- यह कमाल की बात है और ऐसी मिसालें कम ही मिलती हैं. आम तौर पर रिटायरमेंट के बाद आपके सहयोगी विभाग और विश्वविद्यालय से आपका नाम मिटा देना चाहते हैं. इसके बरक्स आज यहां उनके इंतकाल पर मातम का आलम है.
जाहिर है, आपके चाहने वालों की एक जमात हर जगह शोक-संतप्त है. कहते चलें कि जमात हर जगह मजहबी नहीं होती और कई बार यह यूं ही बदनाम भी हो जाती है. मीर तकी मीर पर अपनी किताब के अंग्रेजी तर्जुमे के हालिया प्रकाशन के मौके पर पंच मैगजीन को दिये इंटरव्यू में उन्होंने 18वीं सदी के खुदा-ए-सुखन मीर का यह शेर पढ़ा था- ‘शे’र मेरे हैं सब खास पसंद/ पर मुझे गुफ्तगू अवाम से है.’ उनके काम की दशकों से हर तरफ सराहना होती रही है. कई बड़े सम्मान और पद से सरकारों ने भी उन्हें नवाजा. उर्दू के एक स्कॉलर को पद्मश्री (1990) और पद्मभूषण (2004) दिया जाना इस जबानो-अदब को एक नयी ऊर्जा दिये जाने का पर्यायवाची है. पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भी नारंग साहब को अपने सर्वोच्च इनामों राष्ट्रपति के गोल्ड मेडल (1977) और इससे ज्यादा मशहूर सितारा-ए इम्तियाज (2012) से नवाजा था. यहां एक बार फिर नारंग साहब ने एक लंबी छलांग लगा कर अपनी अजमत-ओ-बुलंदी की नयी मिसाल पेश की है कि सरहदों के आगे भी दुनिया होती है.
नारंग साहब की मौत से उर्दू दुनिया को एक बड़ा झटका लगा है. हालात की नजाकत देखिए कि अपनी तमाम नफासत के बावजूद यह दुनिया एक कीचड़ में तब्दील हुआ चाहती है. ऐसे में एक नये नारंग का खिलना मुश्किल होगा. अब वे हमारी गंगा-जमनी तहजीब के इतिहास का हिस्सा बन जायेंगे. यह भी सच है कि समाज और साहित्य के इतिहास में सबको जगह भी नहीं मिलती. आज नारंग साहब के काम को पढ़ने, समझने और सबक हासिल करने का मुकाम है. यही उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि या खिराजे-अकीदत होगी.