समुचित मेहनताना सुनिश्चित करना जरूरी
बढ़ोतरी के बाद मनरेगा श्रमिक के लिए हरियाणा में सर्वाधिक 374 रुपये और अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैंड में सबसे कम 234 रुपये मजदूरी का निर्धारण हुआ है.
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के मेहनताने में संशोधन कर अलग-अलग राज्यों में चार से दस फीसदी की बढ़ोतरी की है. कुछ ऐसी टिप्पणियां सामने आयी हैं कि चुनाव में राजनीतिक लाभ हासिल करने के उद्देश्य से यह निर्णय लिया गया है. अगर यह बात सही भी हो, तब भी मजदूरी बढ़ाने का यह फैसला सराहनीय है. ऐसी बढ़ोतरी की प्रतीक्षा भी थी.
अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दर से वृद्धि करने का एक मुख्य आधार जीवनयापन के खर्च में अंतर है. बढ़ोतरी के बाद मनरेगा श्रमिक के लिए हरियाणा में सर्वाधिक 374 रुपये और अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैंड में सबसे कम 234 रुपये मजदूरी का निर्धारण हुआ है. सिक्किम के तीन पंचायतों में भी 374 रुपये मेहनताने के रूप में मिलेंगे. पश्चिम बंगाल में 13 रुपये की वृद्धि के साथ मजदूरी अब 250 रुपये तथा बिहार में 17 रुपये की बढ़ोतरी के साथ मजदूरी 228 रुपये हो गयी है. हालांकि इस वृद्धि में जीवनयापन के खर्च को आधार बनाया गया है, पर यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि किन-किन कारकों का संज्ञान इस निर्णय में लिया गया है.
भले ही वृद्धि दर चार से दस प्रतिशत है, पर इस निर्णय से यह भी इंगित होता है कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की आवश्यकता है. इस वर्ष संसद में प्रस्तुत ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में रेखांकित किया गया था कि विभिन्न राज्यों में मनरेगा मजदूरी में बहुत अधिक अंतर है. समिति ने यह भी कहा था कि जो मजदूरी दी जा रही है, वह समुचित नहीं है तथा जीवनयापन के बढ़ते खर्च के अनुरूप भी नहीं है.
आगे जब भी मजदूरी में संशोधन हो, तो समिति की इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए. राज्यवार बढ़ोतरी से यह भी संकेत मिलता है कि जिन राज्यों के पास अधिक संसाधन हैं, वहां मेहनताना भी अधिक है. लेकिन बढ़ोतरी का यह आधार नहीं होना चाहिए क्योंकि मनरेगा योजना भारत सरकार की योजना है.
अलग-अलग जगहों पर खर्च में अंतर है, लेकिन बुनियादी चीजें, खासकर खाने-पीने की चीजें, महंगी भी हो रही हैं तथा यह महंगाई लगभग हर जगह है. इसलिए स्थायी समिति की अनुशंसा के अनुसार मजदूरी के अंतर को भी कम किया जाना चाहिए तथा इसमें ठीक बढ़ोतरी भी होनी चाहिए ताकि श्रमिक अपना और परिवार का पालन-पोषण ठीक से कर सकें.
मेहनताने के संदर्भ में पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण खबर यह आयी है कि सरकार न्यूनतम मजदूरी (हर स्तर पर) की व्यवस्था में बदलाव कर एक नयी व्यवस्था लाने पर विचार कर रही है, जिसके तहत न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण जीवनयापन के खर्च के हिसाब से किया जायेगा. इसके लिए सरकार अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन जैसी संस्था की सहायता भी लेने के लिए सोच रही है. उल्लेखनीय है कि 2017 में अंतिम बार न्यूनतम मजदूरी तय की गयी थी.
यह भी देखा गया है कि न्यूनतम मजदूरी देने के नियम का सही ढंग से पालन नहीं किया जाता है. नयी व्यवस्था में इस संबंध में ठोस प्रावधान किये जाने चाहिए. चाहे न्यूनतम मेहनताना हो या जीवनयापन के हिसाब से मजदूरी तय हो, अगर श्रमिकों को ठीक से पैसा नहीं मिलेगा, तो ऐसी व्यवस्था का उद्देश्य अधूरा ही रह जायेगा. बहरहाल, जो विचार-विमर्श इस नयी व्यवस्था के बारे में चल रहा है, उसमें यह कहा जा रहा है कि मजदूरी तय करने का आधार यह होगा कि श्रमिक को इतना मिल जाए कि वह अच्छी तरह से जीवनयापन कर सके.
इसका अर्थ यह है कि इसमें केवल दो वक्त के भोजन के लिए ही नहीं, बल्कि आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि कारकों को भी ध्यान में रखा जायेगा. उल्लेखनीय है कि मनरेगा की निर्धारित मजदूरी ग्रामीण इलाकों में मेहनताने का एक आधार बन चुकी है. इसकी वजह से अन्य श्रमिकों को भी फायदा पहुंचा है. उसी प्रकार से अच्छे जीवनयापन के हिसाब से जब न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण होगा, तो उससे मजदूरों की आमदनी में निश्चित ही वृद्धि होगी.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन से सहयोग लेना भी उत्साहजनक बात है क्योंकि उस संस्था के पास दुनियाभर का अनुभव है तथा विभिन्न प्रकार के अध्ययन हैं. यदि यह नयी व्यवस्था की रूप-रेखा बन जाती है, तो उसे मनरेगा के साथ भी जोड़ देना चाहिए. इससे मेहनताने के निर्धारण में जो मौजूदा विसंगतियां हैं और नियमित रूप से उनमें संशोधन नहीं होता है, ऐसी कमियों को दूर किया जा सकता है. जीवनयापन के खर्च और मुद्रास्फीति के तथ्यों के आधार पर मेहनताने में बदलाव होता रहेगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि महामारी के कारण श्रमिकों की हालत और बिगड़ी है. समुचित मेहनताने से आर्थिक विषमता की खाई को कुछ कम करने में भी मदद मिलेगी और मजदूरों की आमदनी बढ़ाने से उनकी क्रय शक्ति भी बढ़ेगी. वह पैसा जब बाजार में आयेगा, तो मांग एवं उत्पादन पर उसका सकारात्मक असर होगा. हमारी अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से बढ़ रही है और इसमें मजदूरों की बड़ी भूमिका है. लेकिन आर्थिक वृद्धि का लाभ उन तक ठीक से नहीं पहुंच रहा है. मजदूरी बढ़ाने से विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को सफल बनाने में भी सहयोग मिलेगा तथा उन योजनाओं पर से दबाव भी कम होगा. आशा है कि यह व्यवस्था जल्दी ही साकार होगी.