बीती सदी के अंतिम दशकों में उनके योगदानों के आधार पर सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव का आकलन किया जाना चाहिए. सोवियत संघ के शांतिपूर्ण विघटन से पहले की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को देखें. इसमें सबसे प्रमुख है बर्लिन की दीवार का गिरना और पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण. इस प्रक्रिया में सोवियत संघ ने हस्तक्षेप नहीं करने का निर्णय लिया था.
यह निर्णय उस समय पश्चिमी जर्मनी के चांसलर हेल्मुट कोल और राष्ट्रपति गोर्बाचेव के बीच समझौते का परिणाम था. पोलैंड, रोमानिया आदि जैसे पूर्वी यूरोप के देशों, जो वारसा समझौते में शामिल थे और सोवियत प्रभाव क्षेत्र में थे, में हो रहे तत्कालीन बदलावों में भी गोर्बाचेव ने सैन्य या अन्य प्रकार के हस्तक्षेप से इनकार कर दिया था. इस प्रकार शीत युद्ध का अंत सोवियत पतन से पहले की घटना है. यह गोर्बाचेव की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी. उनकी अन्य उल्लेखनीय उपलब्धियों में अफगानिस्तान से 1989 में सोवियत सेना की वापसी है.
उस समय जो सोवियत संघ के भीतर हलचलें थीं, उसमें लोकतांत्रिक चुनाव कराने का फैसला बहुत अहम था, जो सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के अब तक के रुख से बिल्कुल विपरीत था. अनेक विद्वानों ने रेखांकित किया है कि वे सोवियत संघ में एक दलीय व्यवस्था को हटाकर समाजवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था लाने के लिए प्रयासरत थे. ऐसा नहीं है कि वे ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका जैसी नीतियों के जरिये देश में पूरी तरह निजीकरण लाना चाहते थे.
वे समाजवादी लोकतांत्रिक आदर्शों पर आधारित सुधारों के पक्षधर थे. यह उनके सकारात्मक उपलब्धियों में प्रमुखता से गिना जाना चाहिए. उल्लेखनीय है कि गोर्बाचेव सोवियत संघ के पहले और आखिरी निर्वाचित राष्ट्रपति थे. उनसे पहले कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव का पद होता था, जो सोवियत संघ का राष्ट्राध्यक्ष एवं शासनाध्यक्ष होता था. उनके पद ग्रहण से पूर्व ब्रेझनेववादी नीतियों के कारण असंतोष को सरकार बर्दाश्त नहीं करती थी, पर इस परिपाटी को उन्होंने न केवल बदला, बल्कि उन्होंने सिविल सोसाइटी संगठनों को सक्रिय होने की अनुमति भी दी.
गोर्बाचेव की असफलता यह रही कि वे कम्युनिस्ट पार्टी के उस रूढ़िवादी तबके को समझा नहीं सके, जो उनके सुधारों का विरोध कर रहे थे. इस धड़े ने अगस्त, 1991 में तख्ता पलटने का असफल प्रयास भी किया था. ऐसे तत्वों के कारण ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका को ठीक से लागू नहीं किया जा सका तथा पार्टी में कई धड़े बनते गये. सोवियत संघ के पतन में जिस व्यक्ति ने सबसे अधिक योगदान दिया था,
वे रूसी राष्ट्रवादी नेता बोरिस येल्त्सिन थे, जो विघटन के बाद रूस के राष्ट्रपति बने. सोवियत संघ का केंद्र रूस था और अगर वहीं का नेता अलग होना चाहे, तो फिर विघटन को रोकना असंभव था. उन्होंने यूक्रेन और बेलारूस के साथ मिलकर सोवियत संघ के विघटन का निर्णायक फैसला लिया. इससे अन्य हिस्सों को प्रोत्साहन मिला और यह संघ विघटित हो गया. इस परिघटना के लिए गोर्बाचेव को दोष देना उनके प्रति बहुत कठोर होना होगा. ऐसे माहौल में उनकी खुलेपन की नीतियां कारगर न हो सकीं. देश में आर्थिक विकास पूर्व सोवियत नेता ब्रेझनेव के समय से ही ठप पड़ा था. उसे गति दे पाने में भी गोर्बाचेव विफल रहे.
वैश्विक शांति और स्थिरता में गोर्बाचेव के एक बड़े अहम योगदान की चर्चा कम होती है. परमाणु और विनाशक हथियारों की होड़ को समाप्त करने के उद्देश्य से अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जितने समझौते हुए, वे सभी गोर्बाचेव के कार्यकाल में ही हुए. अमेरिकी विद्वान स्टीफेन कोहेन ने लिखा है कि अगर खुश्चेव और गोर्बाचेव जैसे नेताओं के सुधारों को आगे बढ़ने दिया था, तो आज जो पश्चिम और पूर्व के बीच तनातनी है, उसकी नौबत नहीं आती.
यह भी उल्लेखनीय है कि गोर्बाचेव वर्तमान रूसी राष्ट्रपति पुतिन के दो से अधिक कार्यकाल हासिल करने के रवैये के कठोर आलोचक थे, पर वे जॉर्जिया के कुछ हिस्सों और क्रीमिया को रूस में मिलाने के पुतिन के निर्णयों के समर्थक थे. शीत युद्ध की समाप्ति के दौर में उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपतियों- रीगन और बुश सीनियर- से यह आश्वासन मिला था कि नाटो का पूर्वी यूरोप में विस्तार नहीं होगा.
साथ ही, गोर्बाचेव रूस को यूरोप का हिस्सा बनाकर पूरे महादेश और विश्व की सुरक्षा के हिमायती थे. जब ऐसा नहीं हुआ, तो उन्हें लगा कि रूस के साथ पश्चिम ने धोखा किया है. बीते कुछ वर्षों से वे लगातार इस भावना को व्यक्त कर रहे थे. मिखाइल गोर्बाचेव के निधन से दुनिया ने ऐसे राजनेता को खो दिया है, जो विश्व शांति और देशों के परस्पर सहकार के हिमायती थे.