डॉ रिपुसूदन श्रीवास्तव
पूर्व कुलपति व साहित्यकार
मृदुला सिन्हा सौम्य, मृदुभाषी और सांस्कृतिक चेतना से जुड़ी महिला थीं. उनका जीवन उन सभी के लिए आदर्श है, जो लोक चेतना से जुड़े होकर बिना किसी प्रभावशाली पृष्ठभूमि के एक ऐसे शीर्ष पर पहुंचने की आकांक्षी हो, जो अक्सर संभव नहीं दिखता़.
मुजफ्फरपुर में मृदुला जी ने अपने सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का प्रारंभ नया टोला के एक छोटे सरस्वती शिशु सदन से किया था. बच्चों की यह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक द्वारा संचालित थी. मृदुला जी के पति डॉ रामकृपाल सिंह स्थानीय रामदयालु सिंह कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक के साथ भाजपा के कर्मठ कार्यकर्ता थे और चुनाव जीतकर केंद्रीय मंत्री बने.
उन दिनों मृदुला जी हिंदी साहित्य में अपनी लेखनी चला रही थीं, किंतु यहां के साहित्यिक जगत में चर्चित नहीं हो पायी थीं. संभव है उनसे व्यक्तिगत स्तर पर जुड़े कुछ मित्रों को उनकी प्रारंभिक साहित्यिक गतिविधि का कलेवर ज्ञात हो, किंतु वे चर्चा में तब आयीं, जब मुजफ्फरपुर से निकल कर दिल्ली पहुंचीं और उनका एक उपन्यास विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में लागू हुआ, तब कहा गया था कि प्रेमचंद के उपन्यास को हटाकर उस पुस्तक को पाठ्यक्रम में रखा गया .
यह वह समय था, जब वाजपेयी जी देश के प्रधानमंत्री का पद सुशोभित कर रहे थे. विश्वविद्यालय की हलचलें इस तरह की होती ही रहती हैं, लेकिन इस घटना ने उनके साहित्यिक अवदान की ओर सबका ध्यान खींचा. मृदुला जी का उपन्यास ‘घरवास’ प्रकाशित हुआ. मृदुला जी ने मुझसे कहा था कि दिल्ली में बड़ी चर्चा हुई कि घरवास का अर्थ क्या हो सकता है ? उन्होंने कहा कि वाजपेयी जी ने कहा था कि मृदुला लोकभाषी हैं और निश्चय ही इसका अर्थ लोकजीवन से जुड़ा होगा. यह शब्द ‘गृहप्रवेश’ का भोजपुरी रूपांतर है.
मृदुला जी से मेरी पहली मुलाकात पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ पूनम सिन्हा के आवास पर कवि-गोष्ठी में हुई थी. यह लगभग तीन दशक पहले की बात है. मृदुला जी ने उस समय तीन कविताएं सुनायी थीं. वे कविताएं जिस पृष्ठभूमि पर खड़ी थीं, वह निश्चय ही ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि थी. कविताओं की विशिष्टता कवयित्री के मुंह से सुनने में थी, उनकी कविताएं छोटी थीं, किंतु विचारों की अभिव्यक्ति से सजी हुई थीं. बाद में उनसे संपर्क बढ़े.
उनके तीन कथा-संग्रह और दो उपन्यास मैंने पढ़े. भावाभिव्यक्ति समान, किंतु कालक्रम के कारण नैतिक मूल्यों पर विशेष बल. मुझे तार्किकता पसंद है, किंतु वे अपने साहित्य में तर्कशास्त्र को अपनी भावनाओं से पस्त कर देती थीं. मैंने कई बार सोचा कि उनके साहित्य पर उनकी उपस्थिति में चर्चा करूं, किंतु उनकी व्यस्तता और लोकप्रयिता के कारण संभव नहीं हो सका. मृदुला जी की कई पुस्तकें आज भी लोकप्रिय हैं.
इनके उपन्यास नई देवयानी, ज्यों मेंहदी को रंग, घरवास और सीता पुनि बोलीं पाठकों को पसंद आयी थी. सामाजिक और पारिवारिक जीवन के चित्रण वे बहुत अच्छी तरह से करती थीं. उनके कहानी-संग्रह देखन में छोटे लगें, बिहार की लोककथाएं (भाग एक और दो), ढाई बीघा जमीन और साक्षात्कार ने उनके लेखन को विस्तृत फलक दिया.
स्त्री-विमर्श में भी मृदुला जी का योगदान अहम रहा है. स्त्री-विमर्श पर इनकी पुस्तक ‘मात्र देह नहीं है औरत’ ने भी काफी प्रसिद्धि पायी. इसके अलावा इनके कई लेखों के संग्रह और निरंतर प्रकाशित आलेख ने साहित्य-विमर्श को आगे बढ़ाया. नये साहित्यकारों को भी वे अपनी पत्रिका पांचवां स्तंभ पत्रिका में स्थान देती रहीं.
मृदुला जी का संपूर्ण साहित्य उनकी लोक चेतना (भोजपुरी, बज्जिका) की अभिव्यक्ति है. उनके साथ ढेर सारे कार्यक्रमों में शामिल रहते हुए मैंने पाया कि उनका प्रत्येक व्याख्यान लोकगीतों से समन्वित होता था. अगर वे किसी विशिष्ट व्यक्ति के जन्मदिन के सुअवसर पर आयोजित कार्यक्रम में पहुंचतीं, तो आशीर्वचनों के साथ एक सोहर अवश्य सुनातीं. लोकसंस्कृति की धारा उनके सामान्य वचनों से भी प्रस्फुटित होती थी. राजनीति से जुड़े रहने के बावजूद वे साहित्य की लोकधारा में अंत तक स्नात रहीं.
अपने राज्यपाल की अवधि में मुजफ्फरपुर के प्रत्येक आमंत्रण को स्वीकार करते हुए यहां के सभी साहित्य प्रेमियों को उन्होंने अपने प्रिय आशीर्वचनों से आप्यायित किया है. अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं पाया था. वे सभी से समान भाव से मिलती थीं. सभी को सम्मान देतीं. सबसे बड़ी बात है कि व्यस्तता के बावजूद वे लेखकों की किताबें पढ़ती थीं और उस पर टिप्पणी भी देती थीं.
अपने सहज और सरल व्यक्तित्व के कारण वे आम लोगों के बीच भी लोकप्रिय थीं. मुजफ्फरपुर आतीं तो लोग उन्हें सुनना चाहते. किसी महत्वपूर्ण विषय पर व्याख्यान के साथ वे लोकगीत जरूर सुनातीं. आज उनके नहीं होने की खबर से शहर और बाहर के प्रत्येक संस्कृतिकर्मी मर्माहत है.
मृदुला जी का मृदुल मुस्कराहट और हार्दिक स्नेह से यहां के छोटे-बड़े सभी साहित्यकार अपने को धन्य मानते रहे. उनकी अनुपस्थिति शहर के साहित्यकास को प्रकाशविहीन बना गई. उनकी रचनाएं उन्हें चतुर्दिक जीवंत रखेगी, ऐसा मेरा विश्वास है.
posted by : sameer oraon