खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के नायक
भारत का खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना बीसवीं सदी की दुनिया की सबसे बड़ी उपलब्धि थी. और इसके नायक एमएस स्वामीनाथन थे. इसे पहले गेहूं और फिर हरित क्रांति कहा गया.
एमएस स्वामीनाथन के निधन से जो एक युग समाप्त हुआ है, उसका एक ऐतिहासिक योगदान था. आजादी के बाद भारत के सामने सबसे बड़ा सवाल भूख का सवाल था. अमेरिकी लेखकों पैडॉक ब्रदर्स ने अपनी एक किताब में लिखा था कि 70 के दशक के खत्म होने तक आधा भारत कसाईखाने तक पहुंच चुका होगा. और भी कई लोगों ने भारत के बारे में ऐसी ही आशंका जतायी थी. भारत को आजादी 1943 के बंगाल के भीषण अकाल के चार साल बाद मिली थी. आजादी के बाद भारत को अमेरिका और कनाडा से जहाजों से अनाज मंगवाना पड़ता था. भारत यदि उन हालात से बाहर निकला है तो यह एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व से ही संभव हुआ. उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि 1966 में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ कार से पूसा स्थित कृषि अनुसंधान संस्थान आ रहे थे, जिसके वह निदेशक थे. रास्ते में इंदिरा गांधी ने उनसे पूछा- क्या अगले कुछ साल में आप 10 मिलियन टन की सरप्लस पैदावार सुनिश्चित कर सकते हैं, क्योंकि मैं इन बदमाश अमेरिकी लोगों से पिंड छुड़ाना चाहती हूं.
स्वामीनाथन ने कहा- यस मैम. उन्होंने मुझे बताया कि कार में हुई उस आधे घंटे की यात्रा में इतिहास लिखा गया. उन्होंने बताया कि तब मेक्सिको से बीजों को लाने को लेकर कई तरह के तर्क-वितर्क चल रहे थे, लेकिन श्रीमती गांधी से किये गये उस वादे के बाद सब दुरुस्त हो गया. भारत का खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना बीसवीं सदी की दुनिया की सबसे बड़ी उपलब्धि थी. और इसके नायक एमएस स्वामीनाथन थे. इसे पहले गेहूं क्रांति और फिर हरित क्रांति कहा गया. भारत यदि उस भूख के कुचक्र से बाहर नहीं आया होता तो हमारी स्थिति पता नहीं क्या होती.
स्वामीनाथन की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियों की चर्चा तो होती ही है, मगर सबसे बड़ी बात ये थी कि नायक होने के बाद भी उनके सारे काम जमीन पर होते थे. बतौर पत्रकार मैंने उनके साथ कई दौरे किए और जब भी मैं कुछ बताता था तो उन्हें वह पहले से पता होती थी. यदि मैं दुनिया के किसी शोध की भी बात करता, तो वह उसकी लिखी बातें बताना शुरू कर देते थे. वह बहुत पढ़ते भी थे, और जमीन से भी जुड़े रहते थे. बहुत सारे लोग हरित क्रांति से पर्यावरण को हुए नुकसान के लिए उन्हें दोषी ठहराते हैं. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वर्ष 1968 में उन्होंने एक लेख में लिखा था कि हरित क्रांति से जमीन को हो रहे नुकसान को नहीं ठीक किया, तो यह एक बहुत बड़े संकट में बदल जाएगा. ऐसे ही जीन संवर्धित बीटी बैंगनों के मुद्दे पर उन्होंने सरकार को लिखा था कि इनका इस्तेमाल तभी करना चाहिए जब कोई रास्ता ना हो. उनका मानना था कि जिन फसलों की हमारे यहां विविधता है, उनमें जीएम फसलों को नहीं लाना चाहिए. ऐसे ही कुछ गैर सरकारी संगठनों ने जब इन फसलों पर सारी दुनिया में उठे सवालों को लेकर एक किताब छापी तो उसकी भूमिका स्वामीनाथन ने लिखी. उन्हें खेती में तकनीक का पैरोकार माना जाता है, लेकिन वह ये चेतावनी देते थे कि तकनीक से देश का नुकसान तो नहीं हो रहा.
मनीला में जब वह अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक थे तो मैं भी उनके साथ बतौर संपादक वहां आठ महीने रहा था. मुझे याद है कि तब उनके पास दुनिया के नामी नेता मिलने आते थे, जिनमें फिलीपींस की तत्कालीन राष्ट्रपति तथा पूर्व सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव जैसी हस्तियां शामिल थीं. ऐसे ही सीजीआइएआर नाम की एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय शासकीय समिति में एक समिति के वह चेयरमैन थे और मैं एक दूसरी समिति का सदस्य था. उस समय दुनिया की विभिन्न जगहों पर मौजूद पौधों की सात लाख प्रजातियों को निजी क्षेत्र को देने की कोशिश हो रही थी. लेकिन, स्वामीनाथन ने उसको रुकवाने में अहम भूमिका निभायी. आज भारत के पास तीन लाख से ज्यादा पौधों की प्रजातियां हैं. यदि उनका नियंत्रण निजी कंपनियों के हाथों में चला जाता तो भारत की बड़ी धरोहर हमारे हाथ से निकल जाती. ऐसे ही विश्व व्यापार संगठन के दौर में एक समझौता करवाने की कोशिश हो रही थी जिससे भारत को नुकसान होता. तब देश में सबसे बड़ा मुद्दा यही था और इसके विरोध के लिए तब चार पूर्व प्रधानमंत्रियों- वीपी सिंह, चंद्रशेखर, आइके गुजराल और एच ी देवगौड़ा- से मदद ली गयी. तब एमएस स्वामीनाथन ने उनके साथ एक बैठक में इसकी खामियों के बारे में बताया, और इसके बाद चारों पूर्व प्रधानमंत्रियों ने प्रधानमंत्री वाजपेयी जी से मुलाकात की और उस प्रस्ताव को रुकवाया जा सका.
उनसे जुड़ी एक और महत्वपूर्ण बात उनकी चर्चित स्वामीनाथ समिति के दौर की है, जिसका शुरुआती जीरो ड्राफ्ट बनाने की जिम्मेदारी उन्होंने मुझे दी थी. इसका मतलब यह था कि मुझे रिपोर्ट में कृषि की बुनियादी आवश्यकताओं के बारे में लिखने के लिए कहा गया. उस समय उन्होंने मुझसे कहा कि आप जो भी लिखेंगे उसके केंद्र में किसान होना चाहिए और तब उसके आस-पास नीतियों का जिक्र करें. लेकिन, इसके 25-30 पन्ने लिखने के बाद में मुझे एक बड़े अधिकारी की ओर से सभी पक्षों के हितों का ध्यान रखकर रिपोर्ट लिखने के लिए कहा जिसमें कंपनियां भी शामिल होतीं. इसके बाद मैंने रिपोर्ट से हाथ खींच लिए. लेकिन, स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट में किसान को लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा लाभ मिलने की जो चर्चा की है, उस बात पर उनके साथ मेरी बहुत चर्चा हुई थी और हमने किसानों की आय बढ़ाने के बारे में घंटों विचार-विमर्श किया. तब उसके बाद उन्होंने इस पंक्ति को रिपोर्ट में शामिल किया, जो आज एक बड़ा मुद्दा बन चुका है. स्वामीनाथन तब कहते थे कि जब आप कंपनियों को 500 प्रतिशत का लाभ दे सकते हैं तो किसानों को 50 प्रतिशत का लाभ क्यों नहीं दे सकते. वह किसानों के हितों के बड़े समर्थक थे.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)