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सरसों के उत्पादन पर जोर देना जरूरी

देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष करीब 22 किलोग्राम तेल की आवश्यकता होती है. इस मांग की पूर्ति के लिए देश को प्रतिवर्ष 33 मिलियन टन से अधिक खाद्य तेल की जरूरत पड़ती है. देश में 2021-22 में प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत द्वारा 17 मिलियन टन से अधिक टन तेल का उत्पादन हुआ था.

अधिकतर खाद्यान्न के उत्पादन में हमारा देश न केवल आत्मनिर्भरता को प्राप्त कर चुका है, अपितु वैश्विक बाजार में भी अपना दबदबा बनाये हुए है, लेकिन दलहन व तिलहन में हम दूसरे देशों पर निर्भर हैं. इसका मुख्य कारण इन फसलों के क्षेत्रफल का कम होना है. दलहनी एवं तिलहनी फसलों पर अपेक्षित शोध भी नहीं किया गया है. अब सरकार ने इस दिशा में कोशिश प्रारंभ की है. इसी पहल के तहत इन फसलों पर भी समर्थन मूल्य देने की प्रक्रिया शुरू की गयी है. कृषि वैज्ञानिकों ने अपना शोध भी तसल्ली से प्रारंभ किया है. इसका लाभ भी दिखने लगा है. विगत कुछ वर्षों में तिलहन उत्पादन में काफी प्रगति हुई है. सरसों की खेती में कम लागत के साथ कम सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है. आजकल सरसों की खेती में किसान रुचि भी दिखा रहे हैं, क्योंकि इसमें नकदी फसलों की तरह मुनाफा होता है. आंकड़े बताते हैं कि देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष लगभग 21.70 किलोग्राम तेल की आवश्यकता होती है. इस मांग की पूर्ति के लिए देश को प्रतिवर्ष लगभग 33.20 मिलियन टन खाद्य तेल की जरूरत पड़ती है. देश में 2021-22 में प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत के द्वारा लगभग 17.03 मिलियन टन तेल का उत्पादन हुआ था, जबकि 16.13 मिलियन टन आयात करना पड़ा था. इस अंतर को कम करना बहुत जरूरी है.

हमारे देश में तिलहनी फसलों की खेती ज्यादातर वर्षा आधारित क्षेत्रों में की जाती है, जिसका कुल क्षेत्रफल लगभग 26 मिलियन हेक्टेयर है. क्षेत्रफल के हिसाब से कुल क्षेत्रफल के 34 प्रतिशत भाग में सोयाबीन, 27 प्रतिशत में मूंगफली एवं 27 प्रतिशत क्षेत्र में सरसों की खेती की जाती है, जबकि तिलहन के कुल उत्पादन में सरसों का योगदान 8.43 मिलियन टन है. सरसों के छह प्रमुख उत्पादक राज्य राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात एवं पश्चिम बंगाल हैं. पंजाब, बिहार, झारखंड, असम आदि में भी इसकी खेती अब बड़े पैमाने पर होने लगी है. सरसों फसल का करीब 25 प्रतिशत क्षेत्र असिंचित एवं वर्षाश्रित होने के कारण इन क्षेत्रों की औसत उपज कम है. खाद्य तेलों की मांग को पूरा करने के लिए सरसों के क्षेत्रफल एवं उत्पादन बढ़ाने पर जोर देने की आवश्यकता है. सरसों का उपयोग तेल एवं साग के लिए किया जाता है. इसके बीजों का उपयोग मसाले, अचार, साबुन, ग्लिसरॉल बनाने तथा इसकी खली का उपयोग पशुओं को खिलाने एवं जैविक खाद बनाने में होता है. औषधीय गुणों के कारण सरसों तेल अनेक रूपों में उपयोग में लाया जाता है.

खाद्य तेलों में दो प्रकार के वसीय अम्ल पाये जाते हैं- संतृप्त एवं असंतृप्त अम्ल. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अनुशंसित भोजन में प्राप्त कुल ऊर्जा का 10 प्रतिशत भाग संतृप्त वसीय अम्लों से लेना चाहिए. सरसों के तेल में 60 प्रतिशत एकल असंतृप्त एवं 12 प्रतिशत संतृप्त वसीय अम्ल पाया जाता है. यही नहीं, इसमें 40 से 60 प्रतिशत तक इरुसिक एसिड, 10 से 12 प्रतिशत तक ओलिक एसिड, छह से आठ प्रतिशत तक ओमेगा-3, अल्फा लीलोलेनिक और 10 से 15 प्रतिशत ओमेगा-6 पाया जाता है. हाल में विकसित कुछ नयी किस्मों में कम इरुसिक अम्ल पाया जाता है. इन किस्मों के तेलों की मांग ज्यादा है. सरसों का तेल ओमेगा-3 का अच्छा स्रोत है, जिसके कारण इसमें आंखों एवं हृदय को स्वस्थ रखने के साथ ही साथ कैंसर जैसे रोगों से लड़ने की क्षमता है. राई और सरसों के अलावा कुछ तेलों में संतृप्त वसा एवं ट्रांस फैट रक्त वाहिनी में वसीय पदार्थों को जमा करने का कार्य करती है, जिससे हृदय रोग की आशंका बढ़ जाती है. खराब कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को बढ़ाने में भी मददगार साबित होते हैं.

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सरसों तेल से मालिश करने से शरीर में खून का संचार अच्छी तरह होता है, जिससे मांसपेशियों का तनाव एवं दर्द दूर होता है. साथ ही, यह त्वचा पर निखार भी लाता है. सरसों तेल एंटी फंगल, एंटी बैक्टीरियल एवं एंटीवायरल गुणों से भरपूर होता है. यह बालों के विकास के लिए भी काफी उपयोगी है. इसमें डायसिलग्लिसरॉल पाया जाता है, जो वजन कम करने में सहायता करता है. सरसों तेल को सोने से पहले तलवों में लगाने से आंखों की रोशनी बढ़ती है और नींद भी अच्छी आती है. दांत दर्द में सरसों तेल में नमक मिलाकर मसूढ़ों पर मालिश करने से लाभ होता है. हृदय रोगियों के लिए यह तेल एक सस्ता एवं सुलभ ईलाज है. सर्दी-जुकाम के रोगियों को सरसों के तेल में लहसुन एवं अजवाइन को गर्म कर छाती पर मालिश करने से फायदा मिलता है. यह अस्थमा रोगियों के लिए भी हितकारी है. तिलहन फसलों के उत्पादन में वृद्धि के लिए फसल चक्र में परिवर्तन किया जाना उपयुक्त है. इनका उत्पादन नगदी फसलों के रूप में किये जाने पर जोर दिया जाना चाहिए. किसानों को प्रेरित करने के लिए उत्पादन क्षेत्रों में अनुदान आधारित सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है. दलहन और तिलहन उत्पादन को प्रमुखता देने से हरित क्रांति जैसे लाभ मिलने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.

(ये लेखक के निजी विचार हैं).

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