नवीन संसद को आलोकित करेंगे नंदी

शत्रुओं के खेमे में सेंध लगा कर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को विपदाओं के मध्य स्थिर और प्रगतिशील रखने का कीर्तिमान बनाने वाले मोदी ने जब नवीन संसद का उद्घाटन किया

By तरुण विजय | May 29, 2023 7:57 AM
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नवीन भारत अभ्युदय का पथ सदैव कंटकाकीर्ण रहा है. रविवार को जब ब्रिटिश दास मानसिकता से संघर्षरत राष्ट्र औपनिवेशिक मानस की जकड़न से मुक्त हो भारतीयों द्वारा भारत के लिए स्वतंत्र देश में बनी नवीन संसद का भव्य उद्घाटन देख रहा है, तो वह क्षण 15 अगस्त, 1947 के पुण्यदायी क्षण से कम महत्वपूर्ण नहीं था. यह नवीन संसद तमिल सम्राट राजराज चोल के समय प्रयुक्त शिव के नंदी को शिखरस्थ विराजमान किये राजदंड से आलोकित, प्रेरित और स्पंदित होगी, जो स्वतंत्रता के समय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के परामर्श और सहायता से वायसरॉय माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक स्वरूप पंडित नेहरू को प्रदान किया था.

यह एक शुद्ध निर्मल भारतीय वैदिक परंपरा का प्रतीक था, इसलिए कांग्रेस और पंडित नेहरू को भाया नहीं और इसको प्रयाग स्थित सरकारी संग्रहालय में बंद कर दिया गया. यह दैवी कृपा और नरेंद्र मोदी की दूरदर्शिता थी कि इसकी स्मृति जगी और इसे इसके सही उपयुक्त स्थान पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया गया. ब्रिटिश असेंबली को हमने बाद में नवीन भारत की संसद के रूप में संगठित किया. संसद का भवन हमारा, पर उसके भीतर स्मृतियां सब ब्रिटिश और दासता की.

नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने ब्रिटिश कालीन दास मानसिकता के चिह्नों को मिटाना प्रारंभ किया और स्वदेशी चेतना से उत्स्फूर्त नावीन्य का सृजन पर्व प्रारंभ किया. नवीन संसद वास्तव में उसी नव चैतन्य का वह प्रतीक है, जिसे शिव की शक्ति और महान तमिल पराक्रमी स्मृति सेंगोल राजदंड के रूप में शक्ति दे रही है. नवीन संसद भारतीय नव जागरण के सूर्योदय का, राष्ट्रीयता की आभायुक्त लोकतंत्र का संयुक्त तीर्थ है, जो अपराजेय भारत के शौर्य और आध्यात्मिक आत्मा को प्रतिबिंबित करती है.

नवीन संसद उस महान तमिल शौर्य और धर्माधिष्ठित सत्ता को भी प्रतिबिंबित कर रही है, जो अब तक सेक्युलर, वामपंथी बौद्धिक तत्वों की घृणा के कारण दबी रही थी. तमिल भाषा संसार की प्राचीनतम भाषाओं में एक है और उसमें अनेक प्राचीन महान ग्रंथ हैं. थिरूवल्लुवर जैसे वैश्विक संत और दार्शनिक तमिल जनजीवन के हर पक्ष को प्रभावित करते आ रहे हैं , लेकिन नरेंद्र मोदी से पहले इस अपार तमिल गौरव के संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर कभी जानकारियों का प्रसार नहीं किया गया था.

जब भी भारत अपने मूल स्वरूप और सांस्कृतिक सभ्यतामूलक गौरव की ओर लौटना चाहता है, तो ब्रिटिश दास मानसिकता के सेक्युलर वाम पंथी और दाम पंथी उसके विरोध में खड़े दिखते हैं. मुहम्मद गोरी के विरुद्ध बहादुरी से लड़े राजा सुहेलदेव हों या असम के पराक्रमी सेनापति लशित बड़फूकन- केवल नरेंद्र मोदी स्मृति के पुनर्जागरण और दास मानसिकता के विरुद्ध वीरता से लड़ते दिखते हैं.

यह दुर्भाग्य है कि जिस प्रधानमंत्री को नागरिकों ने प्रधानमंत्री पद हेतु अभिषिक्त किया, उनके लोकतांत्रिक पुनर्जागरण एवं राष्ट्रीय गौरव प्रतिष्ठापना कार्यों पर इतना बावेला मचाया जा रहा है, मानो भारतीयता का जागरण कोई अपराध हो. राष्ट्रीयता के प्रश्नों पर भारत में मतैक्य क्यों नहीं हो सकता? भारत और भारतीयता के प्रश्नों पर क्यों हमें एक दूसरे के विरूद्ध खड़े होने की जरूरत महसूस होती है? क्या भारतीयता किसी एक पार्टी के एकाधिकार में मानी जा सकती है? शत्रु को ऐसी ही मानसिकता के लोगों द्वारा सहायता मिलती है. भारत आज संपूर्ण विश्व के लिए शक्ति और विश्वास का केंद्र बना है.

शत्रुओं के खेमे में सेंध लगा कर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को विपदाओं के मध्य स्थिर और प्रगतिशील रखने का कीर्तिमान बनाने वाले मोदी ने जब नवीन संसद का उद्घाटन किया, वह एक नवीन राष्ट्रीय चैतन्य के अभ्युदय का महान क्षण था, जो युगों-युगों तक हमें अपनी आत्मा की शक्ति और हमारी असंदिग्ध भारत भक्ति का स्मरण कराता रहेगा.

मुझे इस क्षण राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां याद आ रही हैं- ‘एक हाथ में कमल एक में धर्मदीप्त विज्ञान, लेकर उठने वाला है धरती पर हिंदुस्तान.’ पांच दशक पूर्व जब उन्होंने यह लिखा होगा, तब किसी को आभास तक नहीं होगा कि राष्ट्रीयता के भाव में रचे पगे मतदाता एक ऐसे वीतरागी प्रधानमंत्री को पद सौंपेंगे, जो वस्तुतः इस कविता को सार्थक सिद्ध करता दिखेगा.

संपूर्ण विश्व में राष्ट्रीयता के बोध ने वहां के समाज के नवजागरण को प्रेरित किया है. दक्षिण कोरिया ने जापानियों द्वारा बनायी संसद की इमारत को तोप से ध्वस्त किया और अपनी नवीन संसद का निर्माण किया. पोलैंड ने रूसियों द्वारा निर्मित चर्च को ध्वस्त कर अपने नवीन पोलिश चर्च का निर्माण किया. इस्राइल ने रूसी, अंग्रेजी, जर्मन भाषाओं का मोह छोड़ अपनी दो हजार वर्ष से अप्रयुक्त हिब्रू भाषा को संसद, सरकार और समाज की भाषा के रूप में अंगीकार किया.

भारत को जो कार्य आजादी के तुरंत बाद करना चाहिए था, उसको वह आज आजादी के अमृत महोत्सव काल में कर रहा है. शायर अकबर इलाहाबादी ने इन विरोधियों को ही समझाते हुए लिखा था- ‘तेरे लब पे है इराको शामो मिस्रो रोमो चीं, लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ नहीं/ अरे सबसे पहले मर्द बन हिन्दोस्तां के वास्ते, हिन्द जाग उठे तो फिर सारे जहां के वास्ते.’

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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