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ढहते पहाड़ से बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन

पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते. वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं. जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है, तो पहाड़ की नाराजगी भी समय-समय पर सामने आ रही है

मानसून हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का आधार है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के असर के गहराते ही पहाड़ों पर पावस एक त्रासदी के रूप में कहर बरपा रहा है. वर्ष 2015 से जुलाई, 2022 के बीच देश में पहाड़ों पर भूस्खलन की 2239 घटनाएं दर्ज हुईं. देश के लगभग 13 फीसदी क्षेत्र यानी 4.3 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अब भूस्खलन-संभावित माना गया है. बीते सात साल के आंकड़े बताते हैं कि भूस्खलन की घटनाओं में 10 गुना से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है.

वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि बढ़ते भूस्खलनों के लिए जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में बदल रही बरसात की प्रकृति और मानवीय गतिविधियों के चलते पर्वतों के आकार और ढलान में हो रहे परिवर्तन इसकी प्रमुख वजह हैं. पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते. वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं. जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है, तो पहाड़ की नाराजगी भी समय-समय पर सामने आ रही है.

यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है, तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है. ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिये गये पहाड़ों से ही हुआ है. यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए पहाड़ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना. पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया, तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आये वाहनों के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया.

भारत में भूस्खलन के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, पश्चिमी घाट, दार्जिलिंग, सिक्किम और उत्तराखंड आते हैं. पूर्वोत्तर राज्य, पूर्वी घाट, कोंकण पर्वतमाला, नीलगिरी के पहाड़ को उच्च संवेदनशील इलाकों में गिना जाता है. जबकि हिमालय के उस पार के इलाके, हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति, गुजरात से दिल्ली तक की अरावली पर्वत, दक्कन का पठार, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा को कम संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है.

सड़कों और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ ढलानों से नीचे आता मलबा नदी-नाले को अवरुद्ध कर देता है. इस कारण दुर्घटनाएं होती हैं. जल धारा अवरुद्ध होने से उसके जल पर निर्भर आबादी को स्वच्छ जल मिलना मुश्किल हो जाता है. पहाड़ के क्षरण से गिरता मलबा नदियों को उथला बना देता है. ऐसे में यदि बरसात भी हो रही हो, तो बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है.

भूस्खलन का सबसे बड़ा कारण धरती से हरियाली की छतरी का कम होना है. जिस अरुणाचल प्रदेश को भूस्खलन के लिए सर्वाधिक संवेदनशील माना गया है, वहां 2021 में 2,57,500 वर्ग किलोमीटर में वनों की कटाई दर्ज की गयी. पूर्वोत्तर राज्य पहाड़ गिरने से अत्यधिक प्रभावित हैं और यहां वनों की कटाई भी सर्वाधिक है.

पेड़ों की अनुपस्थिति में मिट्टी और चट्टानों को बांध कर रखने वाले प्राकृतिक गुण कम हो जाते हैं. बगैर पेड़ के धरती पर बरसात की बूंदें चोट करती हैं, जिससे मिट्टी की ऊपरी परत कमजोर हो जाती है. जियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने भी पुष्टि की है कि अंधाधुंध वनों की कटाई के चलते पश्चिमी महाराष्ट्र और कोंकण क्षेत्र में भूस्खलन में इजाफा हुआ है. उत्तर पूर्व के राज्यों में पहाड़ ढहने का एक कारण झूम खेती भी है, जिसके लिए जंगलों को जलाने से धरती की ऊपरी परत को गंभीर नुकसान होता है और जब तेज बरसात होती है, तो जमीन का क्षरण होता है.

हिमालय न केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक भी चलती रहती हैं. हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है, जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरूपण होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिये सामने आती है. जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ होती है, तो दिल्ली तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं, यमुना में कम पानी का संकट भी खड़ा होता है.

जलवायु परिवर्तन के चलते भारी और अनियमित बरसात पहाड़ों के गिरने का बड़ा कारण है. उत्तराखंड में भूस्खलन की तीन-चौथाई घटनाएं बरसात के कारण हो रही हैं. कुमाऊं हिमालयी क्षेत्र का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा भूकंप के कारण भूस्खलन की चपेट में है. पहाड़ों की नाराजगी का बड़ा कारण खनन है. खनन जैसी इंसानी मनमानी हरियाली आवरण और मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान पहुंचा रही है.

इससे धरती की भूजल ग्रहण क्षमता कम हो जाती है, फलस्वरूप बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है. इसलिए भूकंप और भारी वर्षा के दौरान कमजोर हो गयी धरती के टुकड़े गिरने लगते हैं. पहाड़ को सबसे बड़ा खतरा बढ़ते शहरीकरण और निर्माण कार्यों से है. यदि पहाड़ से गिरने वाली आफत से निजात पाना है, तो पहाड़ों पर हरियाली को बढ़ाना होगा.

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