पिछले दो महीने से हिमालयी राज्य, खास तौर पर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड भारी बारिश और उससे आयी बाढ़ की चपेट में हैं. हिमाचल प्रदेश आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. बहुत सारे लोग अभी भी लापता हैं और 300 से ज्यादा लोग घायल हैं. लगभग 1800 घर पूरी तरह से नष्ट हो गये हैं, जबकि लगभग 9000 घरों को आंशिक तौर पर क्षति हुई है.
हिमाचल प्रदेश में पिछले दो महीनों में 100 से ज्यादा भूस्खलन हुए हैं. और वहां 60 फ्लैश फ्लड, यानी बादल फटने से बाढ़ आने की घटनाएं हुई हैं. हालांकि, यह सरकारी आंकड़े हैं और आपदा से हुआ नुकसान कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है. हिमाचल में आपदा की एक बड़ी वजह वहां आठ से 11 जुलाई के बीच भारी बारिश को बताया जा रहा है. मौसम विभाग के अनुसार, इस दौरान कई जगहों पर 400 प्रतिशत से ज्यादा बारिश हुई. इससे खास तौर पर चार जिलों- कुल्लू, मंडी, सिरमौर और शिमला- में भारी नुकसान हुआ है. दूसरे जिलों में भी बाढ़ से नुकसान हुआ है.
हिमाचल की बाढ़ इतनी गंभीर थी कि उससे पड़ोसी राज्य पंजाब में भी इसका प्रभाव दिख रहा है. दूसरी ओर, पिछले कई सालों से आपदाएं झेल रहे हिमाचल के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी भारी बारिश और भूस्खलन से नुकसान हुआ. केदारनाथ जाने वाले मार्ग पर स्थित गौरीकुंड में भूस्खलन की एक घटना में 23 लोग लापता हो गये जिनमें से कम से कम आठ लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है. इसके अलावा, चमोली जिले में भी भारी तबाही हुई है. कुमाऊं क्षेत्र में भी काफी घर नष्ट हुए जिनमें नैनीताल जिले के मैदानी इलाकों में स्थित घर भी शामिल हैं.
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में आपदाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखा जा रहा है. इस कारण से वहां भारी और अप्रत्याशित बारिश बढ़ रही है और बादल फटने जैसी घटनाओं की संख्या भी बढ़ रही है. लेकिन, इन इलाकों में लोगों के जान-माल को हो रहे नुकसान को केवल कुदरत या क्लाइमेट चेंज का कहर बता कर जिम्मेदारी नहीं टाली जा सकती. पहाड़ी राज्यों में पिछले दो दशकों में बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर बेतहाशा तोड़फोड़ हुई है. पर्यटन और रिहाइश के लिए बहुमंजिला इमारतें बनीं जिनमें होटल और निजी भवनों का निर्माण शामिल है.
तेज रफ्तार ट्रैफिक के लिए चौड़े हाइवे का निर्माण और जल विद्युत के लिए हाइड्रोपावर बांधों का निर्माण जैसे काम शामिल हैं. जानकारों का मत है कि इन सभी कार्यों में टिकाऊ और समावेशी विकास की अनदेखी हुई है. पहाड़ों पर विस्फोट किये जा रहे हैं, उन्हें अवैज्ञानिक तरीके से काटा जा रहा है और उनसे निकले मलबे के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं है.
पर्यावरणीय नियमों की अवहेलना कर लगभग सभी मामलों में मलबा नदियों में फेंक दिया जाता है. इससे नदियों का तल ऊंचा हो गया और अंधाधुंध निर्माण की वजह से उनके बहाव क्षेत्र में बाधाएं खड़ी हो गयी हैं. इससे बाढ़ का स्वरूप विकराल होता जा रहा है. उत्तराखंड में 900 किलोमीटर लंबी चारधाम यात्रा को लेकर पहले भी सवाल उठे हैं. मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन जानकारों की सभी चेतावनियों को नजरअंदाज किया जाता रहा है.
राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआइ) हिमाचल प्रदेश में भी कई चौड़े हाइवे बना रहा है. विशेष रूप से कीरतपुर से मनाली तक करीब 250 किलोमीटर लंबा हाइवे बहुत जोर-शोर से बनाया गया, लेकिन उद्घाटन से पहले ही उसके कई हिस्से ढह गये. इसी प्रकार, होटलों और घरों के ढहने तथा वहां पानी भरने से भी नुकसान हुआ.
उत्तराखंड में जहां इस मौसम में ज्यादातर नदियां उफान पर रहती हैं, वहीं हिमाचल प्रदेश में इस साल विशेष रूप से ब्यास और सतलुज नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया, जिससे कुल्लू, मंडी, किन्नौर और सिरमौर जिलों समेत राज्य में व्यापक तबाही हुई. ऐसे ही दोनों राज्यों में बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर डैम बनाये गये. उत्तराखंड में लगभग 5000 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है और 100 से ज्यादा छोटी-बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं. हिमाचल प्रदेश में इन परियोजनाओं की संख्या लगभग 150 है और वहां लगभग 11000 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है.
आनेवाले दिनों में दोनों ही राज्यों में हाइड्रोपावर ऊर्जा को बढ़ाने के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं चलाये जाने पर विचार हो रहा है. इसे लेकर भी दोनों राज्यों में असंतोष दिखता रहा है क्योंकि इन जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जलाशयों से छोड़े जाने वाले पानी से नदियों का जलस्तर अचानक से बहुत बढ़ जाता है. इस बार हिमाचल प्रदेश में खास तौर पर सेंज घाटी और पंडोह गांव में इससे काफी नुकसान हुआ.
इन चिंताओं के बीच जलवायु परिवर्तन और भूविज्ञान से जुड़े विशेषज्ञों ने लगातार बताया है कि आने वाले दिनों में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का असर बढ़ेगा, वैसे-वैसे चरम मौसमी घटनाओं की ताकत भी बढ़ेगी जिससे क्षति और बढ़ेगी. ऐसे में, अगर इन क्षेत्रों में हाइवे, होटलों और हाइड्रोपावर परियोजनाओं को यदि सतत और टिकाऊ तरीके से नहीं बनाया गया, तो आने वाले दिनों में इनसे विभीषिका की आशंका और बढ़ेगी.
पनबिजली परियोजनाओं को बनाने, उनमें पानी के प्रबंधन और मलबे के निस्तारण की व्यवस्था को सुदृढ़ करने के साथ-साथ बाढ़ की समयपूर्व चेतावनी देने वाला सिस्टम भी बनाया जाना चाहिए. यह हैरानी की बात है कि बाढ़ की पूर्व चेतावनी देने वाली एकमात्र एजेंसी, केंद्रीय जल आयोग का हिमाचल प्रदेश में ऐसा कोई बाढ़ पूर्वानुमान केंद्र है ही नहीं. इससे पहले भी 2013 की उत्तराखंड की बाढ़ हो, या कश्मीर की 2014 की बाढ़ या इस वर्ष हिमाचल और पंजाब में आयी बाढ़, वहां केंद्रीय जल आयोग ने कभी भी बाढ़ का कोई पूर्वानुमान नहीं किया और चेतावनी नहीं दे सका.
इसलिए इस व्यवस्था को दुरुस्त करना जरूरी है. साथ ही, हाइवे और हाइड्रोपावर बांधों के निर्माण के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल होना और इन बांधों में जल निकासी का ऐसा प्रबंधन होना चाहिए कि नदियों का जलस्तर अचानक न बढ़े. निर्माण से निकले मलबे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. नियमों की अवहेलना करने वाली कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. कुदरत को काबू करने की कोशिश कभी भी कामयाब नहीं हुई है और इंसान को कुदरत के साथ जीना सीखना पड़ेगा. इसका सीधा रास्ता यह है कि विकास से संबंधित जो भी परियोजनाएं बनें, उनमें पर्यावरणीय नियमों और सामाजिक सरोकारों का पूरा ध्यान रखा जाए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)