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सेना की शह पर पाकिस्तान लौटे नवाज

सेना भले उन्हें गद्दी पर बिठाना चाहती हो, लेकिन उसे इस बात का भरोसा नहीं है कि कहीं नवाज फिर से पलट न जाएं. पिछले तीनों कार्यकालों में नवाज की विदाई फौज के साथ टकराने की वजह से हुई.

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के देश लौटने को लेकर महीनों से जारी अटकलों पर पिछले सप्ताह विराम लग गया. चार साल के आत्मनिर्वासन के बाद वह देश लौट आये हैं. इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि उनकी वापसी सेना के आशीर्वाद के सहारे ही मुमकिन हुई है, जो पाकिस्तान का स्थायी सत्ता प्रतिष्ठान है. तकनीकी तौर पर, नवाज कानून की नजरों में भगोड़े हैं. लेकिन इसके बावजूद वापसी पर उनका किसी भावी प्रधानमंत्री की तरह सत्कार हुआ. उनके खिलाफ दिखने वाली और वर्ष 2017 में उन्हें सत्ता से बाहर करने में प्रमुख निभाने वाली अदालतों का भी मिजाज अलग है.

उन्हें आने के साथ ही भ्रष्टाचार के दो बड़े मामलों में जमानत मिल गयी. तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ एक बार फिर से सेना के पसंदीदा उम्मीदवार हैं, जो उन्हें इस दफा इमरान खान के खिलाफ खड़ा करना चाहती है. एक तरह से, नवाज शरीफ की वापसी से पाकिस्तान में पहिया एक बार फिर घूमकर पुरानी जगह लौट आया है. ना केवल 2017 में हुई संदिग्ध विदाई के बाद वह वापस राजनीति के केंद्र में आ गये हैं, बल्कि उनकी राजनीति भी 1980 के दशक के दौर में पहुंच गयी है जब सेना ने बेनजीर भुट्टो को चुनौती देने के लिए उन्हें सियासत में उतारा. इस बार फिर राजनीतिक जमीन उनके पक्ष में तैयार की जा रही है. इस बात की पूरी कोशिश हो रही है कि किसी भी प्रकार से इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ को बेअसर किया जाए और उन्हें भी चुनावी मैदान में प्रभावी तरीके से उतरने से रोका जा सके.

लेकिन, नवाज शरीफ चार साल बाद जिस पाकिस्तान में लौट रहे हैं, वह बदल चुका है. देश में जबरदस्त ध्रुवीकरण है, वह आर्थिक रूप से खस्ताहाल है, और जिहादी हिंसा में घिरा है. खास तौर पर आर्थिक दुश्वारियों से निपटने के लिए अपनायी गयी नीतियों की वजह से उसका जनाधार सिमटा है. एक ताजा सर्वे की मानें तो आज यदि निष्पक्ष चुनाव हों, तो इमरान खान की एकतरफा जीत होगी और नवाज की पार्टी धूल चाटती दिखेगी. अब नवाज शरीफ से उम्मीद होगी कि वह खासतौर से पंजाब में अपना मूल जनाधार मजबूत करें. हालांकि, सेना भले उन्हें गद्दी पर बिठाना चाहती हो, लेकिन उसे इस बात का भरोसा नहीं है कि कहीं नवाज फिर से पलट न जाएं.

पिछले तीनों कार्यकालों में नवाज की विदाई फौज के साथ टकराने की वजह से हुई. नवाज हमेशा अपने रास्ता चलना चाहते थे, लेकिन जनरलों को यह बात मंजूर नहीं थी कि वह किसी असैनिक का आदेश मानें. ऐसे में सेना की यह कोशिश होगी कि नवाज भले ही चौथी बार सरकार बनायें, लेकिन वह गठबंधन सरकार हो, जिसकी डोर सेना मुख्यालय से संचालित होती हो. पाकिस्तान में पीटीआइ से अलग होकर निकले इमरान खान के दो करीबी लोगों, जहांगीर तरीन और परवेज खटक, के नेतृत्व में दो नयी पार्टियां चुनाव में हाथ आजमाएंगी. इस बात की पूरी कोशिश होगी कि जनादेश ऐसा बंटा आए कि केंद्र के अलावा पंजाब और खैबर-पख्तूनख्वा प्रांतों में सत्ता संतुलन की चाभी उनके हाथों में भी रहे. हालांकि पाकिस्तान में बहुत लोगों को लगता है कि ऐसी कोई सरकार टिकाऊ नहीं होगी क्योंकि उसके लिए देश को पटरी पर लाने के लिए सख्त फैसले लेना मुमकिन नहीं होगा.

वैसे चुनाव में यदि इमरान खान को हिस्सा नहीं लेना दिया गया, तो ऐसे किसी चुनाव की वैधता पर सवाल जरूर उठेंगे. लेकिन पाकिस्तान की राजनीति में जायज-नाजायज को लेकर शायद ही कोई बहस होती हो. बलूचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री असलम रायसानी का एक कथन मशहूर है, कि ग्रैजुएशन की डिग्री एक डिग्री ही होती है, वह चाहे असल हो या जाली. यही बात पाकिस्तान की राजनीति पर भी लागू होती है, कि चुनावी जीत का मतलब जीत है, वह चाहे जनसमर्थन से मिली हो या जोड़-तोड़ से. लेकिन नवाज शरीफ की चिंता दूसरी है, और वह है उनकी पार्टी की घटती लोकप्रियता. उनके समर्थक जरूर हैं, मगर अब उनकी ताकत वैसी नहीं रही जैसी पांच साल पहले होती थी. ऐसे में उन्हें सत्ता चलाने के लिए फिर से अपनी राजनीतिक जमीन को तैयार करना होगा.

वतन वापसी पर लाहौर में हुई उनकी पार्टी में भीड़ जरूर जुटी, लेकिन यह इतनी बड़ी नहीं थी, जिसके बूते पर उनकी पार्टी लहर होने का दावा कर सके. इस सभा में वह ऊर्जा और उत्साह नहीं था, जो इमरान खान की रैलियों में झलकता है. नवाज शरीफ ने इसमें सभी जरूरी मुद्दों को छुआ, लेकिन उनके समर्थकों की प्रतिक्रियाएं बनावटी लगीं. उन्होंने आर्थिक मुश्किलें दूर करने की चर्चा की, लेकिन यह नहीं बता सके कि यह कैसे हो पाएगा. वह केवल सामान्य बातें करते रहे, जो पहले भी कही जाती रही हैं, कि निर्यात बढ़ाना है, आइटी क्रांति करनी है, सरकारी खर्चे घटाना है, सरकारी क्षेत्र में सुधार करना है, टैक्स सुधार करना है, रोजगार बढ़ाना है, आदि. वह ऐसा कुछ नहीं बता सके कि अपने चौथे कार्यकाल में वह क्या अलग करेंगे.

भारत के साथ संबंधों के संदर्भ में ऐसी एक सोच रही है कि नवाज शरीफ के सत्ता में आने से दोनों देशों के रिश्तों में प्रगति होगी. अपने भाषण में उन्होंने इसकी चर्चा भी की. लेकिन, एक बार फिर इसमें ऐसा कुछ भी नया नहीं था, जो पहले नहीं कहा गया हो. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान अपने पड़ोसियों से लड़ने के साथ-साथ विकास जारी रखने की भी उम्मीद नहीं रख सकता. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को भारत समेत, हर किसी से रिश्ते सुधारने चाहिए. उन्होंने कश्मीर मुद्दे के एक सम्मानजनक समाधान की भी इच्छा जतायी. लेकिन, जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने की घटना से बात इतनी आगे निकल चुकी है कि नवाज यदि उसे पलटने की बात करते भी हैं तो वह किसी और दुनिया की बात लगेगी. हालांकि अभी भी यह उम्मीद जरूर है कि उनके सत्ता में लौटने से दोनों देशों के रिश्तों में थोड़ी हलचल होगी. भारत भी इस दिशा में की गयी पहलों का जवाब देगा, बशर्ते वे गंभीर हों. पाकिस्तान को अब व्यावहारिक होकर समझना होगा कि पुराने मुद्दे अब पुराने पड़ चुके हैं. वैसे नवाज शरीफ अगर वास्तव में भारत के करीब आने की कोशिश करते हैं तो उसकी उनके देश में क्या प्रतिक्रिया होती है, यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा. आखिरी बार उनकी सत्ता जाने की एक बड़ी वजह यह थी कि वह पाकिस्तान में जिहादियों पर लगाम लगाना चाहते थे, और भारत के साथ संबंध सामान्य करने का रास्ता तलाश रहे थे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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