कृषि क्षेत्र के विकास की जरूरी पहल
बेहतर होगा कि सरकार पहले उन परिस्थितियों को तैयार करे, जो किसानों को आंत्रप्रेन्योर बनाने की तरफ ले जाती हैं. इसमें देश में कई सफल उदाहरण भी हैं.
हरवीर सिंह, एडिटर इन चीफ, हिंद किसान
harvirpanwar@gmail.com
आजकल सरकार कृषि क्षेत्र को लेकर काफी गंभीर दिख रही है. कृषि और किसानों से जुड़े एक के बाद एक लगातार कई बड़े फैसले लिये जा रहे हैं. सरकार इन फैसलों को चरणबद्ध कड़ी के रूप में पेश कर रही है, जो किसानों की आमदनी बढ़ाने में सहायक होंगे और साथ ही कृषि क्षेत्र को मजबूत करेंगे. कोविड-19 महामारी के चलते जहां देश की अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्र भारी संकट में हैं, उस समय कृषि क्षेत्र कुछ उम्मीद दिखा रहा है. यही वजह है कि सरकार का फोकस कृषि क्षेत्र पर बढ़ गया है. इसके लिए सरकार ने कृषि मार्केटिंग सुधारों को लागू करने के लिए तीन अध्यादेश जारी किये. साथ ही अब एक लाख करोड़ रुपये का एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड बनाने के साथ ही उस पर अमल भी शुरू किया दिया है.
इस फंड के तहत चार साल के भीतर किसानों और कृषि से जुड़े कारोबार के लिए एक लाख करोड़ रुपये के रियायती कर्ज मुहैया कराये जायेंगे. चालू साल (2020-21) में इसके तहत 10,000 करोड़ रुपये का कर्ज मुहैया कराया जायेगा, जबकि अगले तीन साल तक हर साल 30,000 करोड़ रुपये के कर्ज मुहैया कराये जायेंगे. इस कर्ज पर सरकार तीन फीसदी की ब्याज सब्सिडी देगी. इस फंड के जरिये किसानों को कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण की सुविधा स्थापित करने, पैकेजिंग यूनिट लगाने, ग्रेडिंग शेड बनाने, कोल्ड स्टोरेज और दूसरी भंडारण सुविधाएं स्थापित करने और ट्रांसपोर्टेशन की सुविधाएं स्थापित करने के लिए कर्ज दिये जायेंगे.
सरकार का दावा है कि इसके जरिये किसानों को उनकी फसलों के बेहतर दाम मिल सकेंगे और आमदनी बढ़ने के साथ ही उनको आंत्रप्रेन्योर के रूप में स्थापित कि जा सकेगा. ग्रामीण आबादी के कौशल का बेहतर उपयोग करने के साथ वहां रोजगार के ज्यादा अवसर मुहैया कराये जा सकेंगे. अब एग्री टेक, एग्री बिजनेस, फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन (एफपीओ), सहकारी समितियों और किसानों व बिजनेस इकाइयों को कर्ज दिया जा सकेगा. किसी भी कर्ज की अधिकतम सीमा दो करोड़ रुपये रखी गयी है.
यह कर्ज निजी बैंकों के जरिये दिया जायेगा और उनके साथ एक सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किये जायेंगेे हैं. कर्ज का कोऑर्डिनेशन का काम नाबार्ड करेगा. यानी सरकार पूरी तैयारी के साथ इस एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड को कामयाब करना चाहती है. उसका मानना है कि इससे ग्रामीण क्षेत्र और कृषि क्षेत्र में एक तरह की औद्योगिक और कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन की क्रांति आ जायेगी, जो किसानों की आय को दोगुना करने के सरकार के लक्ष्यों को हासिल करने में मददगार साबित होगी.
वैसे देखने सुनने में यह फार्मूला बहुत आकर्षक लगता है. लेकिन असली चुनौती इसे जमीन पर उतारने की है. इसके साथ ही यहां यह बात साफ करनी जरूरी है कि यह फंड कर्ज है और इसमें सरकार का जिम्मा जहां क्रेडिट गारंटी देने का है, वहीं वह इस पर ब्याज सब्सिडी देगी. यानी हर साल कुछ सौ करोड़ की ब्याज सब्सिडी ही वह पैसा है, जिसे सरकार को अपने बजट से देना होगा. लेकिन इसे बताया जा रहा है कि सरकार कृषि ढांचागत सुविधाओं के लिए एक लाख करोड़ रुपये खर्च कर रही है, जो पूरी तरह से सच नहीं है.
वहीं, क्या देश में कृषि ढांचागत सुविधाएं विकसित करने के लिए यह फंड काफी है. खुद नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि ढांचागत सुविधाओं पर छह लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश की जरूरत है. यह निवेश करने की क्षमता किसानों की नहीं है, क्योंकि अधिकांश किसानों की जोत का आकार छोटा है और 85 फीसदी किसान एक हेक्टेयर से भी कम भूमि के मालिक हैं. देश में जोत का औसत आकार 1.08 हेक्टेयर पर आ गया है.
ऐसे में किसानों की खुद की क्षमता कर्ज लेकर प्रसंस्करण इकाई स्थापित करने या गोदाम बनाने की नहीं दिखती है. ऐसे में उनके ग्रुप या सहकारी समितियां यह काम कर सकती हैं, लेकिन उसके लिए पहले यह ग्रुप स्थापित करने होंगे. हालांकि, देश में लाखों सहकारी समितियां हैं और काम भी कर रही हैं, लेकिन उनमें बहुत बड़ी तादाद ऐसी समितियों की है, जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हैं और उनको चलानेवाले लोग तकनीकी या प्रबंधन के मामले में दक्ष नहीं हैं.
इसलिए इस गैप को पूरा करना सरकारी की सबसे बड़ी चुनौती है. साथ ही कुछ राज्यों को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्यों में सहकारी समितियों को बेहतर स्वायत्तता हासिल नहीं है और उन पर राजनीतिक लोगों या प्रशासनिक अधिकारी काबिज रहते हैं. बेहतर होगा कि सरकार पहले उन परिस्थितियों को तैयार करे, जो किसानों को आंत्रप्रेन्योर बनाने की तरफ ले जाती हैं. इसमें देश में कई सफल उदाहरण भी हैं. अमूल यानी गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) का उदाहरण हमारे सामने है, जिसे अकेले गुजरात में तीस लाख किसान दूध की आपूर्ति करते हैं और सही मायने में वही इसके मालिक भी हैं.
वे अपने दूध की बेहतर कीमत पाते हैं. इस तरह की कई अन्य राज्य दुग्ध फेडरेशन हैं, जो कामयाब हैं, लेकिन काफी बड़ी संख्या में नाकाम संस्थाएं भी हैं. हालांकि, विकल्प के रूप में केंद्रीय कृषि मंत्रालय का फोकस देश में दस हजार एफपीओ स्थापित करने पर है और उसके लिए संसाधन भी मुहैया कराये जा रहे हैं. इसका जिम्मा नाबार्ड और स्माल फार्मर एग्रीबिजनेस कंसोर्सियम को दिया गया, जो कृषि मंत्रालय के अधीन काम करता है. लेकिन अभी जो एफपीओ काम कर रहे हैं, उनके कारोबार का आकार बहुत कम है और बेहतर प्रदर्शन करनेवाले एफपीओ की संख्या भी सीमित है.
एक लाख करोड़ रुपये का एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड एक बेहतर शुरुआत तो हो सकता है. लेकिन जब तक सरकार इसे जमीन पर लागू करने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाती है और इस कर्ज को लेकर परियोजनाएं स्थापित करनेवाले कुशल लोगों को तैयार नहीं करती है, तो इसका मकसद पूरा होना मुश्किल है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)