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जरूरी उपाय है मुफ्त राशन योजना

प्रधानमंत्री मुफ्त अनाज योजना कोरोना के कारण अप्रैल, 2020 में शुरू हुई थी. भारत जीवनयापन के संकट को व्यापक खाद्य संकट में बदलना नहीं चाहता था. इस योजना से हमें बहुत फायदा हुआ है और आज मुद्रास्फीति के दौर में इसने महंगे अनाज की खरीद से भी परिवारों को बचाया है.

By अजीत रानाडे | October 7, 2022 7:58 AM

भोजन का अधिकार वैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार है या मानवाधिकार? भारत ने भी 1966 के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की घोषणा पर हस्ताक्षर किया है, जिससे भोजन का अधिकार निकला है. इस प्रकार इस अधिकार में सीमाओं से परे मानवाधिकार होने के तत्व हैं. भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसे संविधान के अनुच्छेद 21 (सम्मान से जीवन का अधिकार), 39 (ए) और 47 से जोड़ते हुए एक मौलिक अधिकार माना है.

नीति निर्देशक तत्व के हिस्से अनुच्छेद 39 (ए) में जीवनयापन के समुचित साधन मुहैया कराने तथा अनुच्छेद 47 में पोषण और जीवन स्तर बेहतर करने के निर्देश राज्यों को दिये गये हैं. आयोग का कहना है कि भूख का अर्थ मौलिक अधिकारों से वंचित करना है. भूख के सबूत के लिए भुखमरी की आवश्यकता नहीं है. संकट को पहले ही पहचान लेना चाहिए.

मानवाधिकार आयोग ने सार्वजनिक नीति में व्यापक बदलाव करने तथा सभी नागरिकों के लिए विशेष प्राथमिकता के तौर पर भोजन व पोषण सुनिश्चित करने का आह्वान किया है. भूख और परेशानी को जख्म के रूप में देखा जाना चाहिए तथा ऐसी स्थिति के लिए राज्य को दंडित किया जाना चाहिए. संक्षेप में अगर राजकोष का भारी खर्च भी हो, तब भी भूख मिटाना प्रमुख नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की दृष्टि मुफ्त राशन कार्यक्रम की अवधि को तीन महीने और बढ़ाने के सरकार के हालिया निर्णय के मद्देनजर महत्वपूर्ण हो जाती है. इसका अतिरिक्त खर्च 44 हजार करोड़ रुपये होगा. प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना राशन दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे अधिक समय तक चलने वाली मुफ्त राशन वितरण योजना होगी, जो 33 माह चलेगी. भोजन के अधिकार के प्रति भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भोजन मुफ्त में दिया जाना चाहिए, लेकिन भुखमरी से हुई मौतों द्वारा इंगित गंभीर स्थिति ने मुफ्त राशन देना जरूरी कर दिया है.

बीस साल पहले भारत में भोजन के अधिकार का अभियान शुरू हुआ था, जिसकी जड़ें सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका में थीं. उस याचिका की जरूरत इसलिए पड़ी थी कि सरकारी गोदाम अनाज से भरे थे, लेकिन देशभर में भूख और कुपोषण के सबूत सामने थे. राष्ट्रव्यापी अभियान का एक परिणाम यह हुआ कि 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया. इस पर कई लोगों, विशेषकर वित्तीय आयामों को लेकर चिंतित लोगों, ने आपत्ति जतायी, जो भारी वित्तीय बोझ को लेकर चिंता जता रहे थे.

कुछ कैबिनेट मंत्रियों ने भी सवाल उठाये थे. इस कानून के तहत हर परिवार को प्रति व्यक्ति पांच किलो चावल, गेहूं या ज्वार/बाजरा क्रमशः तीन, दो और एक रुपये किलो की दर से हर माह देने का प्रावधान है. एक मंत्री ने कहा था कि चूंकि एक किलो चावल पैदा करने में 20 रुपये लगते हैं, पर अब इस कानून के तहत तीन रुपये में एक किलो चावल मिलेगा, तो कोई किसान चावल पैदा करने के लिए क्यों परेशान होगा. यह व्यंग्य नहीं था, बल्कि भारी वित्तीय खर्च की ओर संकेत था. इस कानून के दायरे में ग्रामीण आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा तथा शहरी आबादी का आधा हिस्सा आते हैं. यह संख्या लगभग 81 करोड़ है.

सबसे गरीब तबके को हर माह प्रति परिवार 35 किलो अनाज अंत्योदय अन्न योजना के तहत दिये जाते हैं. बहुत अधिक अनुदान पर मिलने वाले अनाज के साथ यह संभावना हमेशा रहती है कि लाभार्थी इसे खुले बाजार में बेच दें, पर प्रधानमंत्री अन्न योजना ने अनाज को पूरी तरह मुफ्त कर दिया. अगर खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मिलने वाले अनाज को बाजार में बेचा जा सकता है, तो वह संभावना मुफ्त अनाज के साथ भी है.

इसे कैसे रोका जा सकता है? प्रधानमंत्री मुफ्त अनाज योजना कोरोना के कारण अप्रैल, 2020 में शुरू हुई थी. भारत जीवनयापन के संकट को व्यापक खाद्य संकट में बदलना नहीं चाहता था. इस योजना से हमें बहुत फायदा हुआ है और आज खाद्य मुद्रास्फीति के दौर में इसने महंगे अनाज के खरीद से भी परिवारों को बचाया है. खाते में निर्धारित नगदी लाभार्थी को मुद्रास्फीति से नहीं बचाती है.

इस योजना की अवधि छह बार बढ़ायी गयी है और अब यह दिसंबर, 2022 तक जारी रहेगी. यह वृद्धि हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव को देखते हुए की गयी है. इस बात के ठोस सबूत हैं कि इस योजना से सत्तारूढ़ पार्टी को चुनावी लाभ मिला है. यह दिलचस्प है कि भारी वित्तीय बोझ के कारण इस वृद्धि का वित्त मंत्रालय ने विरोध किया है.

इस बढ़ोतरी पर 44 हजार करोड़ रुपये का खर्च आयेगा. कुल मिलाकर इस अन्न योजना का खर्च 4.5 लाख करोड़ रुपया है, जो भारत की जीडीपी का दो प्रतिशत है. तेल की कीमतें बढ़ने के कारण खाद अनुदान इस साल दो लाख करोड़ रुपये तक जा सकता है, भले ही बजट आवंटन केवल एक लाख करोड़ रुपया है. वित्त सचिव इस साल वित्तीय घाटा लक्ष्य को पूरा करने को लेकर आश्वस्त थे क्योंकि कर संग्रहण बहुत अच्छा रहा है. पर उनका बयान अन्न योजना के विस्तार से पहले आया था. आयकर का एक बड़ा हिस्सा वापस भी होगा, जिसका पता अगले साल हो सकेगा.

अब सवाल यह है कि क्या अन्न योजना को समाहित करने के लिए कोई और त्याग करना होगा. वित्तीय दबाव के कारण ही सरकार को अग्निपथ योजना लानी पड़ी, जिसके तहत कम अवधि के लिए सेना में भर्ती हो रही है. कुछ हवाई अड्डों पर अर्द्धसैनिक सुरक्षाकर्मियों की संख्या कम की गयी है. मुफ्त अनाज योजना के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर, सेना, पेंशन आदि में कुछ कटौती हो सकती है.

सरकार इन कठिन वित्तीय चुनौतियों से भाग नहीं सकती है. यदि आर्थिक वृद्धि धीमी होती है और अपेक्षित कर संग्रहण नहीं होता है तथा अनुदान और कल्याण योजनाओं पर खर्च बढ़ता है, तो हिसाब संतुलित करना आसान नहीं होगा. याद रहे, ब्याज दरें बढ़ रही हैं, इसलिए सरकार का उधार लेना भी महंगा होगा.

जीडीपी के बरक्स कर्ज का अनुपात 95 फीसदी है. ब्याज का भार ही सात लाख करोड़ या अधिक हो सकता है. इसी समय अनुदान पर भोजन, मिड-डे मील योजना, गर्भवती महिलाओं के लिए पोषण योजना आदि में भी मानवाधिकार और मौलिक अधिकार के तत्व हैं. इन पर लाभार्थियों का ‘दावा’ बनता है. भारत सार्वभौमिक बुनियादी आय पर भी विचार कर रहा है, जिससे भी वित्तीय बोझ बढ़ेगा. सरकार के लिए संतुलन साधना कठिन होगा.

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