Tradition of India : कहां गुम हो गयी है भारत की संत परंपरा? यह सवाल मेरे जेहन में महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मौझारी गांव के श्रीगुरुदेव आध्यात्मिक गुरुकुल में आया. शाम ढल चुकी थी, चारों तरफ मेले का माहौल था. हजारों ग्रामवासी भजन-प्रवचन सुन रहे थे. चर्चा आत्मा-परमात्मा, पाप और पुण्य, स्वर्ग और नरक या पूजा-अर्चना की नहीं थी, बल्कि ग्राम निर्माण, आरोग्य, खेती और लोकतंत्र में नागरिकों की जिम्मेदारी जैसे विषयों पर भाषण चल रहे थे. भजन भी अंधविश्वासों का खंडन करने वाले थे. अवसर था राष्ट्र संत तुकडोजी महाराज का 56वां निर्वाण दिवस, जिसे ग्रामगीता तत्वज्ञान आचार महायज्ञ की तरह मनाया जा रहा था. यह सवाल इसलिए मन में आया, चूंकि संत परंपरा ने भारत देश को बनाया है, बचाया है, जोड़े रखा है, जिंदा रखा है. चाहे रामानुज हों या बसवाचार्य, नानक हों या कबीर, रैदास हों या घासीदास, मीराबाई हों या लाल देद, मोईनुद्दीन चिश्ती हों या बाबा फरीद- देश के अलग-अलग कोने में इन संतों ने देश की आत्मा को जिंदा रखा, राजनीतिक उठापटक के दौर में समाज को बांधे रखा. यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि भारत को सत्ता ने नहीं, संतों ने परिभाषित किया है, देश को भाषणों ने नहीं, भजनों ने बांध कर रखा है.
इस संदर्भ में महाराष्ट्र में संतों की परंपरा अनूठी है. संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव, जनाबाई, रामदास, शेख मोहम्मद, गोटा कुम्हार और रोहिदास की परंपरा ने सदियों तक इस प्रदेश की संस्कृति को परिभाषित किया. लेकिन 20वीं सदी आते-आते यह परंपरा लुप्त प्राय हो जाती है. ढूंढने पर श्री नारायण गुरु जैसे अपवाद मिल जाते हैं, पर यह एक सिलसिला या परंपरा नहीं बनता. ऐसा क्यों हुआ? तुकडोजी महाराज की पावन भूमि में पहुंच कर यह सवाल उठना स्वाभाविक था, चूंकि वे 20वीं सदी के उन अपवादों में से एक थे. जन्म 1909 में अमरावती जिले के एक गरीब दर्जी परिवार में हुआ. औपचारिक शिक्षा ना के बराबर हुई, पर बचपन से भजन की लगन लग गयी. घर छोड़ जंगल में रहे और साधु बनकर वापस आये, लेकिन चमत्कार वाले साधु नहीं, अंधविश्वास का खंडन करने और समाज सुधार के लिए जन जागरण करने वाले साधु. महात्मा गांधी ने सेवाश्रम आमंत्रित कर उनके भजन सुने. तुकडोजी भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गये. आजादी के बाद विनोबा भावे के आग्रह पर भूदान आंदोलन में सहयोग भी किया. बाबासाहब आंबेडकर और संत गाडगे से स्नेह का रिश्ता रहा.
तुकडोजी महाराज ने गांवों में घूम-घूमकर स्वराज को सुराज्य बनाने के लिए आदर्श गांव बनाने की मुहिम चलायी और ‘ग्रामीणगीता’ की रचना की. जाति व्यवस्था के विरुद्ध अभियान चलाया, हिंदू-मुसलमान में भेद का विरोध किया. मूर्तिपूजा और कर्मकांड से दूर रहकर मिट्टी से जुड़ते हुए भगवान से जुड़ने की प्रेरणा दी. जापान में विश्वधर्म विश्वशांति परिषद में गये और ‘भारत साधु समाज’ की स्थापना की. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद उनके भजनों से इतने अभिभूत हुए कि राष्ट्रपति भवन आमंत्रित कर उन्हें ‘राष्ट्रसंत’ नाम से नवाजा. वर्ष 1968 में उनके निधन के बाद से कुछ शिष्यों ने उन्हें भगवान का दर्जा देने की कोशिश की, पर उनकी वैचारिक परंपरा को मानने वाले आज भी अंधश्रद्धा निर्मूलन, शिक्षा के प्रचार प्रसार और खेती को सशक्त करने के अभियान चलाते हैं, सर्वधर्म प्रार्थना आयोजित करते हैं. आयोजन को देखकर मुझे पिछले वर्ष कबीर गायक प्रह्लाद टिपणियां जी की सभाओं की याद आ गयी. मध्यप्रदेश में उनके कबीर भजन और सीधी तीखी बातों को सुनने के लिए हजारों ग्रामीण बैठे रहते थे. यही बात जब नेता और सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, तो उनके लिए श्रोता जुटाने पड़ते हैं. उनकी कड़वी बातें लोग हजम कर लेते हैं, पर वही अगर प्रगतिशील लोग कहते हैं, तो यही लोग काटने को दौड़ते हैं.
भारत की भाषा, मुहावरे और संस्कार के अनुरूप समाज को सुधारने वाली संत परंपरा के खंडित होने का कारण औपनिवेशिक आधुनिकता है. अंग्रेजी राज के बाद समाज सुधार और परिवर्तन की चिंता एक अंदरूनी मुहावरे को छोड़ आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं की भाषा में होने लगी, चाहे वह राष्ट्रवाद हो या समाजवाद, समता का मुहावरा हो या स्वतंत्रता का. समाज परिवर्तन का मुख्य कार्यक्षेत्र अब समाज के बजाय राजनीति हो गया. समाज बदलने की जिम्मेदारी समाज सुधारकों, साधुओं, संतों के बजाय अब आधुनिक क्रांतिकारियों ने ले ली. निश्चित ही समाज में अंदरूनी परिष्कार की क्षमता क्षीण हो गयी थी, शायद जाति व्यवस्था के कोढ़ ने समाज को सड़ा दिया था. जो भी हो, आधुनिकता के आगमन और संत परंपरा के लुप्त हो जाने से धर्म, समाज और राजनीति सभी का नुकसान हुआ है. संत का चोला पहन कर ढोंगी और पाखंडी बाबा लोगों का साम्राज्य फैल रहा है. समाज परिवर्तन की धार कमजोर हुई है, सुधार के प्रयास जातियों के भीतर सिमट गये हैं और राजनीति अमर्यादित हुई है. धर्म, समाज और राजनीति को जोड़ने के लिए आधुनिक राजनीतिक साधुओं की जमात खड़ा करना राष्ट्र निर्माण की जरूरत है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)