अब जब देश-दुनिया को मुख्यतः आर्थिक दृष्टिकोण से ही आंका जाता है, तो यह स्वाभाविक है कि पर्यावरण और प्रकृति को समुचित प्राथमिकता नहीं दी जाती. हमारा देश भी तेजी से प्रगति कर रहा है और आने वाले समय में दुनिया की शीर्ष तीन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने की होड़ में है. पर पारिस्थितिकी, जो आर्थिक विकास का मूल आधार है, उस पर उतनी चिंता नहींं की जाती, जितनी आवश्यक है.
जबकि इस पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए. मौजूदा समय में जब मानसून के खिसकते हुए अक्तूबर तक पहुंचने की संभावना है, इस वर्ष गर्मी भी प्रचंड रही हो और साथ ही इस बार ठंड भी नये तर्ज में पड़ने की आशंका हो, तब यह आवश्यक हो जाता है कि विकास को विनाशकारी बनने से बचाया जाए. जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे किसी भी तरह से अनदेखा और अनसुना नहीं किया जाना चाहिए.
यह सब कुछ मानवीय लालच की वजह से ही हो रहा है. यदि हम आज नहीं समझे, तो कल स्थिति का बेहद भयावह होना निश्चित है. इस बार की बारिश को ही देखिए कि इसने कैसे देश के कई हिस्सों में तबाही मचायी है. इस साल गर्मी ने सारी दुनिया में पुराने रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं. मतलब अब कोई देश या स्थान विशेष ही प्रकृति के प्रकोप को नहीं झेलेगा, हर जगह हालात बिगड़ते जायेंगे. ऐसे में दुनिया में विकास को विनाशकारी होने से बचाया जाना चाहिए. इसके लिए पारिस्थितिकी पर भी उतना ही ध्यान देना चाहिए, जितना कि आर्थिक विकास पर.
यह तभी संभव होगा, जब हम पारिस्थितिकी का भी बराबर ब्यौरा रखें. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इस मामले में सरकारें कुछ नही करतीं, बस अंतर यही है कि उन्हें यह नहीं पता है कि बढ़ती अर्थव्यवस्था के सापेक्ष उन्हें पारिस्थितिकी के लिए कितना करना चाहिए. उदाहरण के लिए, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जो लगातार आपदाओं का सामना कर रहे हैं, और साथ में भरपाई का भी काम करते हैं, पर कितनी भरपाई हुई, इससे संबंधित आंकड़ों से यह स्पष्ट नहीं होता. यह स्थिति विशेष रूप से बिहार में है, जिसने दशकों से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं का सामना किया है. हाल में बिजली गिरने की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है, जो पारिस्थितिकी में हो रहे बदलावों का संकेत देती है.
इन राज्यों का एक और महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने आर्थिक विकास के साथ-साथ अपनी पारिस्थितिकी को बेहतर बनाने के प्रयास किये हैं. मसलन, बिहार में ‘जल जीवन अभियान’ के तहत नदियों की सुरक्षा और संरक्षण पर उल्लेखनीय ध्यान दिया गया है. खास तौर पर गंगा नदी, जो बिहार में लगभग 400 किलोमीटर तक बहती है, न केवल आर्थिक, बल्कि पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है. पिछले एक दशक में बिहार में वनों के विस्तार के लिए भी गंभीर प्रयास हुए हैं. लेकिन इन प्रयासों का उचित आकलन नहीं किया गया है. बिहार में पारिस्थितिकी को सुधारने के लिए सरकार और आम जनता ने मिलकर कोशिशें की हैं.
यहां की संस्कृति में नदियों का पूजन और वनों की देखभाल का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है. पिछले दशक में सरकार की विभिन्न योजनाओं, विशेषकर जल जीवन और वन संरक्षण की दिशा में की गयी पहलों ने जल संरक्षण और वनों के विस्तार पर जोर दिया है. जल जीवन हरियाली योजना में सभी विभागों को जोड़कर कार्य योजना तैयार की गयी है, जिससे स्वत: जंगल, मिट्टी, पानी एक साथ जुड़ गये.
बिहार के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी का यह मानना कि नदियों की जल निर्मलता से ज्यादा इनका जल प्रवाह बने रहना जरूरी है, महत्वपूर्ण बात है. जब तक नदियों का प्रवाह और जल स्तर नहीं बढ़ेगा, तब तक उन्हें सुरक्षित और प्रदूषण मुक्त नहीं किया जा सकता. बिहार से यह आवाज उठी है कि गंगा और अन्य नदियों के प्रवाह को गंभीरता से लेना चाहिए. असल में पारिस्थितिकी से जुड़े कार्यों का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) की तरह कोई एक आकलन या सूचक नहीं है. यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में है. पारिस्थितिकी विकास कार्यों का व्यवस्थित विवरण आना चाहिए. एक सकल पर्यावरणीय उत्पादन सूचक जैसा कुछ बनाया जाए, जिससे पता चले कि प्रकृति और पर्यावरण की बेहतरी के लिए क्या-क्या प्रयत्न हो रहे हैं और उनके परिणाम क्या हैं.
इससे समुचित लेखा-जोखा मिला जायेगा, जिससे आगे की कार्य-योजना और रणनीति बनाने में बड़ी मदद मिलेगी. उत्तराखंड ने इस वर्ष पहली बार सकल घरेलू उत्पादन के समानांतर अपने वनों, मिट्टी, पानी और हवा का आकलन सकल पर्यावरण उत्पादन के रूप में दिया है.
यह एक संकेत है कि आर्थिक उत्थान के साथ पारिस्थितिकी उत्थान भी होना चाहिए. यह पहल न केवल देश के लिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण हो सकती है. अब यह तो किसी बहस का विषय नहीं रहा है कि हम एक गंभीर पर्यावरणीय संकट से घिर चुके हैं. ऐसे में समाधान की दिशा में बढ़ने और हमारे भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों और परिणामों का ब्यौरा और उसकी ठोस समीक्षा की आवश्यकता बहुत बढ़ गयी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)