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नये नामों की जगह नया शहर चाहिए

आजादी के 77वें वर्ष में भारत को नया भारत बनने के लिए किसी रेलवे स्टेशन पर नया नेमप्लेट लगाने की जरूरत नहीं. उसे नये नामों की जगह नये शहर चाहिए, और पुराने शहरों को और साफ और बेहतर होना चाहिए.

भारत इन दिनों नाम-बदलो अभियान के भंवर में फंसा हुआ है. शहर, एयरपोर्ट, यूनिवर्सिटी, सरकारी भवन, रेलवे स्टेशन, सड़क, अस्पताल आदि – सबके नाम बदले जा रहे हैं. सत्ता के केंद्रों में इनपर ज्यादा समय खर्च होता है, मानसून के समय सड़कों, नालों और गटर की सफाई पर कम जिससे कि हर बड़ा शहर त्रस्त है. कुछ राज्यों में तो नाम बदलाव के प्रस्तावों की फाइलें बेहतर शासन के प्रस्तावों की फाइलों से ज्यादा होती हैं.

शायद ही कोई महीना बीतता होगा जब कोई प्रदेश या केंद्र सरकार किसी संस्थान का कानून का नाम बदलने की बात नहीं छेड़ देती. इन दिखावटी या नामों के उच्चारण में बदलावों के पीछे बस एक ही सिद्धांत रहता है, कि कैसे उसे कोई सांस्कृतिक या उस क्षेत्र के गौरव वाला नाम दे दिया जाए. अभी तक नाम बदलने के इस अभियान में भगवा तंत्र ने अगुआई की है. उनके विरोधी भले उन पर इतिहास को दोबारा लिखने या अतीत को मिटाने के प्रयासों का आरोप लगाएं, नाम बदलना सारे राजनीतिक दलों का नया मंत्र बन गया है, जिससे जनता की कीमत पर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं.

नाम बदलने की इस कवायद के लिए केवल बीजेपी को दोष देना ठीक नहीं. केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने सभी केरलवासियों की ओर से द्रविड़ शब्दकोष के पन्ने पलटे और एक नया नाम निकाला. उन्होंने एक प्रस्ताव पेश किया कि 1956 में गठित राज्य का नाम केरलम कर दिया जाए, और कांग्रेस समेत तमाम दलों ने इसका समर्थन किया. इस राज्य की आधिकारिक भाषा ‘केरलम’ कहलायेगी ना कि ‘मलयालम’.

और यह सभी दूसरी भाषाओंं और केंद्र सरकार के रिकॉर्ड्स में भी लागू होगा. ‘केरलम’ दो शब्दों से बना है – ‘केरा’ (नारियल) और ‘अलम’ (भूमि), जिससे इसका मतलब निकलता है ‘नारियल के पेड़ों की भूमि’. देश के कुल नारियल में से 45 प्रतिशत केरल में उपजता है.

यह पहली बार नहीं है जब केरल में लोग नाम को लेकर पिल पड़े हैं. इससे पहले औपनिवेशिक पहचान को खत्म करने के लिए, वहां की राजधानी का नाम त्रिवेंद्रम से बदल तक तिरुअनंतपुरम कर दिया गया. वहां एलडीएफ और यूडीएफ ने स्थानीय इतिहास और संस्कृति का हवाला देकर एक दर्जन से ज्यादा शहरों और कस्बों के नाम बदल डाले हैं. हालांकि, ऐसे हर फैसले का मकसद किसी खास क्षेत्र में खास वोट बैंक को हथियाना था.

अब राज्य और इसकी भाषा का नाम बदलने का फैसला ऐसे समय लिया गया है जब लोकसभा चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं. देवताओं की भूमि कहलाने वाले केरल में नाम बदलाव के लिए ना तो किसी ने उकसाया था, ना ही जनता का कोई दबाव था. लेकिन, केरल अकेला राज्य नहीं है, जहां ब्रिटिश और मुगलकालीन नामों के भारतीयकरण की कोशिश चल रही है. नये नाम गढ़ने में बीजेपी सबसे आगे है. पिछले संसद सत्र में गृह मंत्री अमित शाह ने भारतीय न्याय संहिता में सुधार के लिए कई विधेयक पेश किए.

बीजेपी के भारतीयता के प्रति आग्रह को दर्शान के लिए ब्रिटिश जमाने के इंडियन पीनल कोड (आइपीसी) जैसे नामों को बदलकर संस्कृतनिष्ठ नाम सुझाये गये. चुनाव-पूर्व नाम बदलने की इस कवायद को भाषा, संस्कृति और धार्मिक लाइनों पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की तरह देखा जा रहा है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने केंद्र पर भाषाइ वर्चस्व थोपने का आरोप लगाया और कहा कि वह इसका अपने प्रदेश में तथा बाहर विरोध करेंगे.

लेकिन यह विडंबना है कि यह उनके ही पिता के करुणानिधि थे, जिन्होंने एक समय मद्रास का नाम बदलकर चेन्नई रख दिया था. इससे भी पहले मद्रास राज्य का नाम तमिलनाडु रखने वाले नेता भी उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री सी एन अन्नादोराई थे. द्रविड़ दलों के पांच दशकों के राज में तमिलनाडु के कई और शहरों के नाम बदले गये. पूर्व फ्रेंच उपनिवेश पांडिचेरी का नाम पुदुचेरी कर दिया गया.

नाम परिवर्तन का चलन सामान्यतः पुराने साम्राज्योंं की समाप्ति और एक नये राष्ट्र के उदय से जुड़ा है. स्वतंत्रता के फौरन बाद कई राज्यों ने अपने और अपने शहरों के अंग्रेजी नाम बदल डाले. उड़ीसा ओडिशा बन गया, मैसूर कर्नाटक हो गया. हाल ही में, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आग्रह पर प्रदेश विधानसभा ने पश्चिम बंगाल का नाम बंगाल रखने का प्रस्ताव पारित किया. यह प्रस्ताव केंद्र के पास लंबित है क्योंकि इससे पड़ोसी बांग्लादेश की संप्रभुता का संवेदनशील मुद्दा जुड़ा है.

दक्षिण भारत में अंग्रेजी नामों के लिए स्थानीय नाम इतिहास से खंगाल कर निकाले गए. उत्तर और पश्चिम भारत में, संस्कृति, इतिहास और राजनीतिक हस्तियों के सम्मान में अंंग्रेजी और मुगल नामों को ठिकाने लगाया जाने लगा. जैसे, उत्तर प्रदेश में कॉनपोर को कानपुर और मध्य प्रदेश में जब्बलपोर को जबलपुर कर दिया गया. सरकारी दस्तावेजों के अनुसार, 1947 से अब तक 500 से ज्यादा शहरों और दर्जन भर राज्यों के नाम बदले जा चुके हैं.

दक्षिण भारत इसमें आगे है. हर राज्य में हर क्षेत्रीय नेता या दल सत्ता में आने के बाद नाम कमाने के लिए नाम बदलने की नीति पर चलना शुरू कर देता है. बड़ौदा को वडोदरा, बंबई को मुंबई, कलकत्ता को कोलकाता, बैंगलोर को बेंगलुरू, मैसूर को मैसूरु, गुड़गांव को गुरुग्राम, इलाहाबाद को प्रयागराज, मुगलसराय को पंडित दीन दयाल उपाध्याय नगर, गोहाटी को गुवाहाटी, पूना को पुणे और बनारस को वाराणसी करने के पीछे जातीय और राजनीतिक कारण थे.

यह दुखद है, कि मौजूदा दशक के खत्म होने तक पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की राह पर बढ़ते भारत विविधता के साथ छेड़छाड़ करने वाले जहरीले रास्ते पर चल पड़ा है. सरकारी नौकरियों से लेकर आवासीय या व्यावसायिक भवनों जैसे हर तरह के नामों का चुनाव अब उस राज्य या क्षेत्र में संभावित सामाजिक प्रभाव को ध्यान में रखकर किया जा रहा है. नाम बदलने के बाजार में इतिहास या सांप्रदायिक वंशावलियों के आधार पर गढ़े गये नामों की पूछ ज्यादा है. अंग्रेज 1947 में चले गये.

मगर वह अपनी फूट डालो और शासन करो की नीति छोड़ गये. तुष्टिकरण अपवाद की जगर एक नियम बन चुका है. आजादी के 77वें वर्ष में भारत को नया भारत बनने के लिए किसी रेलवे स्टेशन पर नया नेमप्लेट लगाने की जरूरत नहीं. उसे नये नामों की जगह नये शहर चाहिए, और पुराने शहरों को और साफ और बेहतर होना चाहिए. विकास के पिरामिड पर ऊपर बढ़ने के लिए उसे स्वस्थ और समृद्ध भारतीय चाहिए. पहचान की राजनीति के लिए अनावश्यक परिवर्तनों से अमृत काल को अनचाहा और गैर-इरादतन नुकसान पहुंच रहा है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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