Loading election data...

जेनरिक दवाओं पर कारगर नीति की जरूरत

जेनरिक दवाओं को अनिवार्य करने का सरकार का फैसला एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन जेनरिक दवाएं नहीं लिखने पर डॉक्टरों को दंडित करने की धमकी देना गलत है.

By चिनु श्रीनिवासन | August 28, 2023 8:07 AM

डॉक्टरों के लिए मरीजों को जेनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य करने वाले आदेश पर रोक लगा दी गयी है. चिकित्सकों की नियामक संस्था नेशनल मेडिकल कमीशन यानी एनएमसी ने इस महीने यह आदेश जारी किया था. इसमें डॉक्टरों के ऐसा नहीं करने पर उन्हें दंडित करने और लाइसेंस के निलंबन करने की बात कही गयी थी. डॉक्टरों और दवा कंपनियों ने इसका विरोध किया. जेनरिक दवाओं को लेकर बहस लंबे समय से और पूरी दुनिया में चल रही है.

वर्ष 1978 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से पूर्व सोवियत संघ के अल्मा आटा में एक सम्मेलन हुआ था, जहां अनेक देशों के विशेषज्ञ एकत्र हुए थे. वहां यह तय हुआ था कि हरेक देश में आवश्यक दवाओं की एक सूची होनी चाहिए. इनमें ज्यादातर जेनरिक दवाएं शामिल थीं. इनके पीछे अवधारणा थी कि इनसे स्वास्थ्य का खर्च कम होगा. जैसे, यदि पैरासिटामोल को केवल पैरासिटामोल के ही नाम से बेचा जायेगा, तो उसके प्रचार की जरूरत नहीं होगी,

लेकिन यदि उसके आगे क्रोसिन या अन्य कोई नाम लगा दिया जाए, तो उसकी जानकारी उपभोक्ताओं को देने के लिए मार्केटिंग करनी होगी, जिसकी लागत दवा की कीमत में जोड़ दी जायेगी और दवा महंगी हो जायेगी. साथ ही, यदि पैरासिटामोल को ही 100 कंपनियां अलग-अलग नामों से बनाती हैं, तो उनमें ऐसी कंपनियों के कामयाब होने की संभावना ज्यादा रहती है, जिनके पास मार्केटिंग या डॉक्टरों को गिफ्ट जैसे प्रलोभन आदि देने की क्षमता ज्यादा होती है.

एक ही दवा को अलग-अलग नाम से बेचने की प्रतियोगिता अनावश्यक है और इससे लोगों में भी भ्रम पैदा होता है. इस पर रोक लगने से दवाएं सस्ती जायेंगी. हालांकि, केवल इस एक कदम से ऐसा नहीं हो सकता. इसके लिए दवाओं के मूल्य के नियंत्रण की व्यवस्था होनी चाहिए. भारत में इसके लिए नीति है, लेकिन यह बाजार में बिकने वाली केवल 18 प्रतिशत दवाओं पर लागू है. बाकी 82 प्रतिशत दवाओं की बिक्री में मनमानी चल रही है.

अक्सर दवा कंपनियां किसी एक दवा के साथ दो-तीन ऐसी अन्य दवाएं मिला कर बेचती हैं, जिनकी कोई जरूरत नहीं होती. इससे वह दवा फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवा बन जाती है और उसकी कीमत भी बढ़ जाती है और ज्यादातर मामलों में एफडीसी दवाओं की कीमत का नियंत्रण नहीं हो पाता है. मैंने अमेरिका, यूरोप के कई देशों और बांग्लादेश की कई बार यात्राएं की हैं और वहां यह समस्या नहीं देखी. वहां ऐसी दवाएं, जिनके पेटेंट की अवधि समाप्त हो चुकी है, उनमें से लगभग सारी दवाएं जेनरिक नामों से बेची जाती हैं, ना कि किसी ब्रांड के नाम से.

इन देशों में दवाओं को लेकर नियमों का अच्छी तरह से पालन होता है. जेनरिक दवाएं होती तो एक ही हैं, लेकिन उन्हें अलग तरह से बेचा जा रहा है. दुनियाभर में ऐसी दवाओं को जेनरिक कहा जाता है, जिनके पेटेंट की अवधि समाप्त हो चुकी है. भारत में बिकने वाली लगभग 95 प्रतिशत दवाएं जेनरिक हैं, लेकिन यहां उनको अलग-अलग नामों से बेचा जा रहा है.

जैसे, पैरासिटामोल की एक ब्रांडेड दवा में ब्रांड का नाम प्रमुखता से लिखा होता है और नीचे कहीं पैरासिटामोल लिख दिया जाता है. सरकार ने जेनरिक दवा का नाम पहले और प्रमुखता से तथा कंपनी का नाम नीचे रखने का नियम बना रखा है, मगर इसका पालन नहीं होता. ऐसी दवाएं ब्रांडेड जेनरिक दवा बन कर बिकती हैं, जैसे क्रोसिन. जेनरिक दवाओं के कारोबार को बासमती चावल के व्यापार से समझा जा सकता है.

भारत में एक किसान बासमती चावल उगाता है, मगर विभिन्न व्यापारी पैकिंग और उसके बारे में तमाम तरह के प्रचार कर उसे खास चावल बनाकर बेचते हैं यानी एक ही किसान का और एक ही खेत का चावल विभिन्न तरह का ब्रांडेड जेनरिक बासमती चावल बन कर बिकता है. ब्रांडेड जेनरिक दवाएं किसी जेनरिक दवा से बेहतर होती है, इस बात को सिद्ध करने का एकमात्र तरीका उनकी टेस्टिंग करवाना है, मगर यह व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है.

जेनरिक दवाओं को अनिवार्य करने का सरकार का फैसला एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन जेनरिक दवाएं नहीं लिखने पर डॉक्टरों को दंडित करने की धमकी देना गलत है. समस्या दूसरी है. यदि डॉक्टर किसी मरीज को कोई जेनरिक दवा लिखते हैं, मगर केमिस्ट के पास वह दवा उपलब्ध ही नहीं है, तो केमिस्ट वह दवा कैसे दे सकेगा? ऐसे में वह मरीज को जेनरिक दवा से युक्त कोई दूसरी ब्रांडेड दवा दे देगा.

ऐसी परिस्थिति में यह नीति कैसे कामयाब होगी? जेनरिक दवाओं के व्यापक इस्तेमाल की नीति तभी कारगर होगी, जब ये दवाएं जेनरिक दवाओं के ही नाम से उपलब्ध होंगी. इसे प्रभावी बनाने के लिए ब्रांडेड दवाओं की बिक्री पर पूरी तरह से रोक लगनी चाहिए. अमेरिका, यूरोप और बांग्लादेश में यही होता है. भारत सरकार ने 1975 में दवाओं को लेकर हाथी कमेटी गठित की थी, जिसने बहुत अच्छी सिफारिशें की थीं,

मगर यह दिलचस्प है कि उस रिपोर्ट पर अमल बांग्लादेश ने किया, भारत ने नहीं. जेनरिक दवाएं अनिवार्य करने का काम एक दिन में नहीं होगा. इसके लिए समयबद्ध योजना बना कर अलग-अलग चरणों में ब्रांडेड दवाओं की बिक्री बंद की जानी चाहिए.

(बातचीत पर आधारित)

Next Article

Exit mobile version