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नारी के प्रति सम्मान की चेतना की जरूरत

महिलाओं को जब भी मौका मिला है, उन्होंने कमाल कर दिखाया है, लेकिन देखने में आया है कि नवरात्र के दौरान उपजा आदर का यह भाव कुछ समय तक ही रहता है. महिला उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि हम जल्द ही इसे भुला देते हैं. यह अवधारणा अचानक प्रकट नहीं हुई है.

By Ashutosh Chaturvedi | October 23, 2023 8:03 AM

हम सब अभी नवरात्र का पर्व मना रहे हैं. नौ दिनों तक नारी स्वरूपा देवी की उपासना कर रहे हैं. कई राज्यों में कन्या जिमाने और उनके पैर पूजने की भी परंपरा है. भारतीय परंपरा में महिलाओं को उच्च स्थान दिया गया है. एक तरह से यह त्योहार नारी के समाज में महत्व और सम्मान को भी रेखांकित करता है. नवरात्र सिर्फ पूजा और अनुष्ठान का पर्व ही नहीं है, बल्कि नारी सशक्तिकरण के संदेश का भी पर्व है. देवी दुर्गा के तीन रूप हैं- सृजन, पालक और दुष्टों का संहार. कभी वह मां के रूप में सृजन करती हैं, तो कभी पालन करती हैं और कभी महिषासुर जैसे दानवों का संहार करती हैं. हम सब ये पंक्तियां सुनते आये हैं- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः, यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः’ – अर्थात जहां स्त्रियों का आदर-सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं. जहां उनका तिरस्कार होता है, वहां संपन्न कार्य सफल नहीं होते हैं.

पिछले कुछ समय में शिक्षा से लेकर खेलकूद और विभिन्न प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं में बेटियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. चाहे वह राजनीति हो या फिर शिक्षा, कला-संस्कृति अथवा आइटी या फिर मीडिया का क्षेत्र, सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने सफलता के झंडे गाड़े हैं. सामाजिक जीवन में महिलाओं की जबरदस्त भागीदारी रही है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान महिला सशक्तिकरण की दिशा में उल्लेखनीय काम हुए हैं. भारत के संसदीय इतिहास में 20 सितंबर, 2023 की तारीख ऐतिहासिक दिन के रूप में दर्ज है, क्योंकि इस दिन नारी शक्ति वंदन विधेयक अर्थात महिला आरक्षण बिल को संसद के विशेष सत्र के दौरान लोकसभा में पारित किया गया था. राज्यसभा ने भी लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करनेवाले विधेयक को पारित कर दिया है.

महिलाओं को जब भी मौका मिला है, उन्होंने कमाल कर दिखाया है, लेकिन देखने में आया है कि नवरात्र के दौरान उपजा आदर का यह भाव कुछ समय तक ही रहता है. महिला उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि हम जल्द ही इसे भुला देते हैं. यह अवधारणा अचानक प्रकट नहीं हुई है. हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है, जिसमें बचपन से ही यह बात मन में स्थापित कर दी जाती है कि लड़का, लड़की से बेहतर है. परिवार और समाज का मुखिया पुरुष है और महिलाओं को उसकी व्यवस्था का पालन करना है. यह सही है कि परिस्थितियों में भारी बदलाव आया है. बैंड-बाजा-बारात के साथ शादी के बाद बेटी को विदा करते तो आपने हमेशा देखा होगा, लेकिन कभी ब्याही बेटी को इसी उल्लास के साथ हमेशा के लिए मायके से लाते आपने शायद न देखा हो. रांची के एक पिता अपनी बेटी को ससुराल से वापस मायके ले आये.

पिता का कहना था कि उनके दामाद ने उन्हें धोखा दिया. इसलिए वे अपनी बेटी को पूरे सम्मान के साथ वापस ले आये. इसका वीडियो उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर साझा किया और लिखा- ‘‘जब अपनी बेटी की शादी बहुत धूमधाम से की जाती है और यदि जीवनसाथी और परिवार गलत निकलता है, तो आपको अपनी बेटी को आदर और सम्मान के साथ अपने घर वापस लाना चाहिए, क्योंकि बेटियां बहुत अनमोल होती हैं. ’’ समाज को एक बेहतर संदेश देने वाले इन सज्जन की लोग सराहना कर रहे हैं, लेकिन अब भी ऐसे पिताओं की संख्या कम है, जिनमें बेटे और बेटी के बीच भेदभाव न किया जाता हो. बेटियों के सामने चुनौती केवल अपने देश में ही नहीं है. यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में गरीब घरों की हर तीन लड़कियों में से एक लड़की को स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाता है.

समय-समय पर लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े होते रहते हैं. महिला उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि यह समस्या गंभीर है. देश में बच्चियों व महिलाओं के साथ दुष्कर्म और छेड़छाड़ के बड़ी संख्या में मामले इस बात के गवाह हैं. दरअसल, समाज में महिलाओं के काम का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता है. घर को सुचारू रूप से संचालित करने में उनके दक्षता की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है. आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के मामले में तो भारत दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले बहुत पीछे है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का मानना है कि अगर भारत के आर्थिक विकास में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाये, तो उसकी जीडीपी में भारी वृद्धि हो सकती है.

भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 25.5 फीसदी है और कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग 63 फीसदी खेतीबाड़ी के काम में लगी हैं. 2011 के जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार, जब करियर बनाने का समय आता है, उस समय अधिकांश लड़कियों की शादी हो जाती है. भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है. यह पाया गया है कि एक बार किसी महिला ने नौकरी छोड़ी, तो ज्यादातर दोबारा नौकरी पर वापस नहीं लौटी है. यदि महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भागीदारी बढ़ा दी जाये, तो न केवल सामाजिक,बल्कि अर्थव्यवस्था में भी भारी बदलाव लाया जा सकता है.

पिछले कुछ वर्षों में सरकारी कोशिशों और सामाजिक जागरूकता अभियानों के कारण महिलाओं की स्थिति में धीरे-धीरे ही सही, मगर सुधार आया है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. सरकारी प्रयासों के कारण शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुंच लगातार बढ़ रही है. मिड डे मील योजना बड़ी कारगर साबित हुई है. एक दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1 प्रतिशत थी, जो अब बढ़ कर 68.4 तक पहुंच गयी है यानी शिक्षा के क्षेत्र में 13 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गयी है. बाल विवाह की दर में गिरावट को भी महिला स्वास्थ्य और शिक्षा के लिहाज से अहम माना जा रहा है.

कानूनन अपराध घोषित किये जाने और लगातार जागरूकता अभियान के कारण बाल विवाह में कमी तो आयी है, लेकिन इसका प्रचलन खासकर गांवों में अब भी बरकरार है. शिक्षा और जागरूकता का सीधा संबंध घरेलू हिंसा से भी है. हालांकि, अब इन मामलों में भी कमी आयी है. रिपोर्ट के मुताबिक, वैवाहिक जीवन में हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घटकर 28.8 प्रतिशत रह गया है. लेकिन जान लीजिए, जब तक महिलाओं के प्रति समाज में सम्मान की चेतना पैदा नहीं होगी, तब तक ये सारे प्रयास नाकाफी हैं.

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