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धारणा युद्ध से सचेत रहने की जरूरत

इसलिए, यह जरूरी है कि युवाओं को उनके देश और समाज के इतिहास, संस्कृति, धर्मों, परंपराओं और साहित्य के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि शत्रु के बहकावे को जड़ें जमाने का मौका न मिल सके.

ऑल्विन टॉफ्लर के अनुसार, ‘जिसे हम ‘ज्ञान युद्ध की तीसरी लहर’ की संज्ञा देते हैं, उसके समूचे प्रभाव को अभी तक समझा नहीं गया है. भविष्य के युद्धों को सूचना श्रेष्ठता एवं वर्चस्व के आधार पर टाला, जीता या हारा जायेगा. साइबर युद्ध में राजनीतिक छल और धारणा प्रबंधन से लेकर विरोधी के सूचना तंत्रों को बाधित करने तक सब शामिल हैं.’ राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रभाव बढ़ाने के लिए कई अपारंपरिक रणनीतियां विकसित की गयी हैं. उदार समाजों और लोकतंत्रों के लिए इनके खतरे बढ़ते जा रहे हैं. डीपफेक तुरंत विशाल मीडिया पर हलचल मचा सकते हैं. यह छल की लड़ाई है. इससे इंगित होता है कि परदे के पीछे से विरोधी को आंतरिक रूप से नुकसान पहुंचाने के महीन तरीकों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. इस रणनीति के पीछे ‘हजार चोटों से मारने’ का दर्शन है तथा इसके तहत मीडिया, सोशल मंचों, राजनीतिक विमर्श और पॉपुलर कल्चर में छोटे-छोटे जुगत लगाये जाते हैं. कभी-कभी सूचना युद्ध के रूप में समझे जाने वाले ऐसे कृत्य अलग-अलग राजनीतिक प्रणालियों में भिन्न होते हैं.

तानाशाही ऐसे हमलों को संभालने और रोकने में अधिक सक्षम होती है क्योंकि मीडिया पर उसका पूरा नियंत्रण होता है, कोई चुनाव प्रक्रिया नहीं होती है और वह हमेशा हिंसक दमन के लिए तत्पर रहती है. सत्ता पर उनकी मजबूत पकड़ विरोधियों को असंतोष और अराजकता फैलाने का खास मौका नहीं देती. लेकिन लोकतंत्र, विशेषकर भारत जैसे बहुसांस्कृतिक एवं बहुजातीय आबादी वाले देशों, में विध्वंसक गतिविधियों की अधिक गुंजाइश होती है. अतीत के तनावों और शिकायतों को आसानी से तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे इस तरह के समाजों में बाहरी हस्तक्षेप और विध्वंसक कृत्यों की आशंका बढ़ जाती है. इसकी जड़ में तकनीकी औजारों, खासकर हर तरह के मीडिया, का दुरुपयोग है. छवि निर्माण की क्षमता के कारण पॉपुलर कल्चर भी संभावित औजार के रूप में उभरा है. अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हम देख रहे हैं कि इन औजारों का इस्तेमाल युवाओं को निशाना बनाने के लिए किया गया है, जो प्रचार और अधकचरे विचारों के प्रभाव में जल्दी आ जाते हैं. ऐसे तरीकों में संदर्भ और अनुपात की पूरी अवहेलना की जाती है और सतही समझ के आधार पर लोगों को लामबंद करने की कोशिश होती है. समाज में जानकारी के अभाव से भी ऐसे उग्र और नुकसानदेह विचारों को फैलने में मदद मिलती है. होलोकॉस्ट (नाजी जर्मनी में यहूदियों का बड़ी संख्या में जनसंहार एवं उत्पीड़न) की भयावहता के बारे में अमेरिकी युवाओं में जानकारी न होने के कारण वे ऐसे विचारों का समर्थन कर रहे हैं. विडंबना है कि वे उस हमास का समर्थन कर रहे हैं, जिसने होलोकॉस्ट के बाद यहूदियों पर सबसे बड़ा हमला किया है.

अमेरिका और पश्चिम के कई शिक्षा संस्थानों में हिंदू घृणा का आख्यान भी व्यापक हुआ है, जिसे छिटपुट घटना कह परे रखने की कोशिश होती है. पक्षपाती रिपोर्टिंग और भारत के प्रति नकारात्मक दृष्टि रखने वाले विचारधारा से प्रेरित लोगों ने ऐसे आख्यान को आगे बढ़ाया है. इसी तरह हाल में भारतीय गृह मंत्री अमित शाह का एक डीपफेक वीडियो वायरल हुआ, जिसके बारे में लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने खबर बनायी, पर बाद में भूल सुधार भी नहीं किया गया. अजीब है कि भारत में जिनके मताधिकार नहीं हैं, वे भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं के विशेषज्ञ माने जाते हैं. आकलन सही नहीं होने पर वे अपनी गलती भी नहीं मानते और इसका दोष किसी कथित छुपे एजेंडे पर मढ़ देते हैं. उग्र विचारों का प्रसार इतना आसान और असरदार हो गया है कि कई देशों में विरोध का वित्तपोषण एक बड़ी चिंता बन गयी है. ऐसे में मीडिया संस्थानों और खराब इरादों वाले संगठनों पर नजर रखना जरूरी हो गया है. इस संबंध में द वाशिंगटन पोस्ट एक अच्छा उदाहरण है, जो ऐसे झूठे आख्यान गढ़ता है कि भारत और इस्राइल जैसे देशों को भी जवाब देना पड़ता है. आदर्श स्थिति में ऐसा नहीं होना चाहिए. कई मामलों में मीडिया संस्थाओं के झूठ को देखा जा सकता है, जो कथित ‘लोकतंत्र की मृत्यु’ का आख्यान फैलाते रहते हैं.

तीन मुख्य प्राथमिकताओं पर गंभीर चर्चा की जानी चाहिए. पहली बात, युवा शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, विशेषकर उन देशों में, जहां युवा आबादी बढ़ रही है. अपेक्षाकृत अधिक संसाधन होने के बावजूद पिछली पीढ़ियों से शिक्षा एवं बुद्धि का संचार समुचित ढंग से नहीं हो सका है. इसलिए यह जरूरी है कि युवाओं को उनके देश और समाज के इतिहास, संस्कृति, धर्मों, परंपराओं और साहित्य के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि शत्रु के बहकावे को जड़ें जमाने का मौका न मिल सके. ऐसे प्रयासों के क्रम में पाठ्यक्रमों को भी विचारधारात्मक पक्षपात और दुष्प्रचार से मुक्त कराया जाना चाहिए. दूसरी बात यह है कि तकनीक विशिष्ट और विध्वंसक विचारों के प्रसार का एक सक्षम औजार है. यह आवश्यक है कि उसके सकारात्मक पहलुओं का अधिक से अधिक उपयोग हो और नकारात्मक हिस्से को नियंत्रण में रखा जाए. इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस समेत साइबर व्यवहार साफ-सुथरे हों और गलत सूचनाएं प्रसारित करने वालों को दंडित किया जाए. मीडिया संस्थानों को भी जवाबदेह बनाना होगा और उनकी गलतियों की सार्वजनिक निंदा होनी चाहिए. तीसरी बात यह है कि ऐसे विध्वंस से रक्षा की सबसे कारगर व्यवस्था है सामाजिक मूल्य एवं नैतिकता. कोई भी शत्रु किसी समाज या देश को उतना नुकसान नहीं पहुंचा सकता है, जितना कि वह स्वयं का कर सकता है. इसलिए ठोस नैतिक आधार से मजबूत और कोई आधार नहीं हो सकता है.

भारत भाग्यशाली है कि उसके पास एक ऐतिहासिक विरासत है, जिससे वह बुद्धि ग्रहण कर सकता है और ज्ञान प्रणालियों की अपनी परंपराओं को विकसित कर सकता है. भारत एक विविधतापूर्ण और सहिष्णु समाज है, जिसने किसी सभ्यता के सामने आने वाली लगभग सभी चुनौतियों का सामना किया है, फिर भी अपनी परंपराओं एवं मूल्यों, जो संघर्ष के ऊपर साहचर्य को आगे बढ़ाते हैं, के कारण इसका अस्तित्व बना रहा. जो अमेरिका में हो रहा है, उसे केवल अमेरिकी मामला नहीं समझना चाहिए. हमें धारणा युद्ध की घातक प्रकृति और प्रक्रिया को लेकर सचेत रहने की आवश्यकता है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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