दवा उद्योग पर नकेल की जरूरत
भारत के बढ़ते दवा उद्योग ने दुनियाभर में अपनी अलग पहचान बनायी है, लेकिन कुछ दवा कंपनियां उसका बेजा इस्तेमाल कर रही हैं और वर्षों की मेहनत पर पानी फेर रही हैं.
भारत दुनिया की फार्मेसी माना जाता है. कोरोना संकट के दौरान भारत ने सारी दुनिया को वैक्सीन और दवाओं की आपूर्ति कर यह साबित भी किया. भारत के बढ़ते दवा उद्योग ने दुनियाभर में अपनी अलग पहचान बनायी है, लेकिन कुछ दवा कंपनियां उसका बेजा इस्तेमाल कर रही हैं और वर्षों की मेहनत पर पानी फेर रही हैं. हाल में अफ्रीकी देश गांबिया से यह गंभीर खबर आयी कि वहां एक भारतीय दवा कंपनी के बनाये कफ सिरप 66 बच्चों की मौत का कारण बन गये.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका संज्ञान लेते हुए इन दवाओं के बारे में चेतावनी जारी की है. अभी इन दवाओं की पहचान केवल गांबिया में ही हुई है, पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सभी देशों को उनकी बिक्री रोकने की अनुशंसा की है, ताकि मरीजों को नुकसान से बचाया जा सके. संगठन के अनुसार इन 66 बच्चों की मौतों में एक समान लक्षण थे. सबकी उम्र पांच साल से कम थी और वे तीन से पांच दिन खांसी की दवा लेने के बाद बीमार पड़े थे. चारों कफ सिरप में डाई इथिलीन ग्लायकॉल और इथिलीन ग्लायकॉल तय मात्रा से अधिक पायी गयी. भारत के केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन ने भी जांच शुरू कर दी है.
इस घटना से पूरे भारतीय दवा उद्योग को ही संदेह के घेरे में ला दिया है. इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की फार्मा रिपोर्ट के अनुसार, भारत का दवा उद्योग दुनियाभर में लगभग 50 फीसदी, अमेरिका में जेनेरिक दवाओं की मांग का लगभग 40 फीसदी, ब्रिटेन में सभी दवाओं का 25 फीसदी आपूर्ति करता है. देश में लगभग तीन हजार दवा कंपनियां और 10,500 दवा निर्माण इकाइयां सक्रिय हैं. विश्व स्तर पर उपयोग की जाने वाली 80 फीसदी से अधिक एंटीरेट्रोवायरल दवाओं की आपूर्ति भारतीय फर्मों द्वारा की जाती है.
कम लागत और उच्च गुणवत्ता के कारण भारत को दुनिया की फार्मेसी के रूप में जाना जाता है, लेकिन हाल की घटना से इस साख पर बट्टा लगा है. यह पहली घटना भी नहीं है. दो साल पहले डाई इथाइलीन ग्लायकॉल मिले एक अन्य ब्रांड के कफ सिरप के सेवन के बाद जम्मू में कई बच्चों की मौत हो गयी थी. दिल्ली में भी तीन बच्चों की मौत हुई थी. अधिक कमाई के लालच में कुछ कंपनियां घटिया दवाओं के निर्माण और उन्हें घरेलू व अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने का तिकड़म अपना रही हैं.
इसमें डॉक्टरों की सांठगांठ के मामले भी सामने आये हैं. कुछ समय पहले एक बड़ी दवा कंपनी पर छापे के बाद आयकर विभाग को पता चला कि बुखार उतारने की गोली को बढ़ावा देने के लिए इस कंपनी ने पिछले कुछ वर्षों में डॉक्टरों पर एक हजार करोड़ से अधिक की राशि खर्च की थी. नकली व घटिया दवाओं की बिक्री के भी मामले भी सामने आते रहते हैं. यूपी, बिहार, झारखंड और बंगाल इसके प्रमुख केंद्र बताये जाते हैं. केंद्र सरकार ने इस संबंध में अहम कदम उठाते हुए दवाओं की प्रामाणिकता सत्यापित करने के लिए उत्पाद पर क्विक रिस्पांस (क्यूआर) कोड लगाने का निर्णय लिया गया है.
कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जेनेरिक दवाओं के पक्ष में पहल की थी. जनहित में हुई यह पहल कुछ डॉक्टरों और दवा कंपनियों को रास नहीं आयी. प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की थी कि कानून बना कर डॉक्टरों के लिए सस्ती जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य किया जायेगा. केंद्र सरकार ने सस्ती दवाओं की उपलब्धता और जरूरी दवाओं के मूल्य तय करने समेत कई कदम उठाये हैं. जेनेरिक और अन्य दवाओं में कोई फर्क नहीं होता है.
इस अफवाह पर ध्यान न दें कि सस्ती जेनेरिक दवाएं उतनी कारगर नही होती, जितनी महंगी दवाएं होती हैं. हम देखते हैं कि निम्न व मध्य वर्ग के परिवार में एक भी व्यक्ति के गंभीर बीमार हो जाने से परिवार का पूरा अर्थतंत्र गड़बड़ा जाता है. मकान खरीदने और बेटी की शादी जैसे अन्य बेहद जरूरी काम रुक जाते हैं. निश्चित ही डॉक्टरों का पेशा बहुत महान है. अच्छे डॉक्टर तो देवदूत की तरह होते हैं, लेकिन हम जानते हैं कि कुछ मछलियां पूरे तालाब को खराब कर देती हैं. कुछ डॉक्टर लोगों को लूट रहे हैं.
इससे पूरे डॉक्टर समुदाय की छवि खराब हुई है. दवाओं और अनावश्यक परीक्षणों को लेकर उन पर सवाल उठते रहे हैं. अमूमन दवा कंपनियां मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के जरिये डॉक्टरों को प्रलोभन देकर अपनी ब्रांडेड दवाएं लिखवाती हैं. डॉक्टर, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव और मेडिकल स्टोर की मिलीभगत से यह धंधा चलता है. सामान्य तौर पर यह दवा मरीज को कहीं और उपलब्ध नहीं होती है.
यही वजह है कि ब्रांडेड दवाओं का कारोबार लगातार बढ़ता जा रहा है. कई बार तो ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की कीमतों में 90 प्रतिशत तक का अंतर होता है. कैंसर, हृदय रोग, डायबिटीज जैसे रोगों में तो ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की कीमतों में बहुत ज्यादा अंतर देखने को मिलता है. केंद्र सरकार ने जरूरी दवाओं के दाम तय करने और हृदय रोग के लिए जरूरी स्टेंट की कीमत घटायी थी, लेकिन देखने में आ रहा है कि डॉक्टर स्टेंट की तो निर्धारित कीमत रखते हैं,
लेकिन उसमें अनेक अन्य खर्चों को भी जोड़ देते हैं और मरीज का बिल बढ़ा देते हैं. यदि डॉक्टर दवा का रासायनिक नाम लिख दे, तो मरीज उसे ब्रांडेड या जेनेरिक में खरीदने का खुद निर्णय कर सकता है. मरीज चाहे, तो महंगी ब्रांडेड दवा खरीदें या फिर सस्ती जेनेरिक, फैसला उसका होगा. एक अहम तथ्य यह भी है कि जहां पेटेंट ब्रांडेड दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, वहीं जेनेरिक दवाओं की कीमत निर्धारित करने में सरकार की भूमिका होती है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यदि डॉक्टर मरीजों को जेनेरिक दवाएं लिखें, तो विकासशील देशों में स्वास्थ्य खर्च 70 फीसदी और इससे भी अधिक कम हो सकता है. हालांकि केंद्र सरकार जेनेरिक औषधियां उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र चलाती है. जैसा कि किसी भी सरकारी पहल का हश्र होता है, इन केंद्रों पर अमूमन पर्याप्त दवाइयां उपलब्ध होती ही नहीं हैं.
साथ ही, इनका ठीक से प्रचार-प्रसार नहीं होता, जिसके कारण इसका लाभ आम जनता को नहीं मिल पाता. भारत दुनिया के 130 देशों में सस्ती जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराता है, लेकिन अपने गरीब मरीजों को सस्ती दवाएं नहीं मिल पा रही हैं. इसके लिए एक कठोर नियामक व्यवस्था की आवश्यकता है, जो सभी पक्षों को अनुशासित कर सके.