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कार्यस्थलों के माहौल में सुधार की जरूरत

इस साल के शुरू में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि 43 प्रतिशत भारतीय तकनीकी-पेशेवर सीधे अपने काम कारण उत्पन्न हुईं स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं का अनुभव करते हैं. लंबे समय तक काम करना इन स्वास्थ्य समस्याओं में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता के रूप में उभरा है. पचास प्रतिशत से अधिक तकनीकी-पेशेवर प्रति सप्ताह औसतन 52.5 घंटे काम करते हैं, जो 46.7 घंटे के राष्ट्रीय औसत से अधिक है, जिससे भारत सबसे लंबे समय तक काम करने वाले देशों में शुमार होता है.

लंबे समय तक कार्यस्थलों पर काम करना, काम के बोझ से तनाव और थकान की समस्या एक जगजाहिर तथ्य है. लेकिन हाल ही में हुई बेहद दुखद दो मौतों के बाद भारत में जड़ें जमा रही नकारात्मक एवं विषाक्त कार्य संस्कृति पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता बहुत बढ़ गयी है.

बीते जुलाई में महाराष्ट्र के पुणे में एक युवा चार्टर्ड अकाउंटेंट की मौत लगातार काम के बोझ से हो गयी और उसके कुछ समय तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में महीनों तक अवसाद और काम के दबाव से जूझने के बाद एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की मौत आत्महत्या से हो गयी. इन घटनाओं ने हमारे देश में संपन्न कंपनियों की वास्तविक प्रकृति का खुलासा किया है. यहां हम ऐसे व्यवसायों के उदाहरण देख रहे हैं, जो बाहर से तो आधुनिक विकास के प्रतीक के रूप में दिखाई देते हैं, लेकिन अंदर से ये वास्तव में उन लोगों की कड़ी मेहनत से बढ़ रहे हैं, जिनकी व्यवस्था में कोई सुनवाई नहीं है. वे लोग भारत के प्रतिभाशाली युवा हैं.

पिछले हफ्ते 38 वर्षीय कार्तिकेयन को एक यात्रा से वापस आयीं उनकी पत्नी जयरानी ने अपने चेन्नई स्थित आवास में बिजली के तार में लिपटा हुआ पाया. रिपोर्टों के मुताबिक, उन्होंने खुद को करंट लगाने से पहले अपने दो बच्चों को उनके नाना-नानी के पास छोड़ दिया था. परिवार के सदस्यों का कहना है कि वे काम के दबाव के कारण अवसाद से पीड़ित थे, जिसका पिछले दो महीने से इलाज चल रहा था. कार्तिकेयन चेन्नई से संचालित होने वाली एक सॉफ्टवेयर कंपनी में 15 वर्ष काम करने के बाद एक नयी नौकरी में थे. जुलाई में, 26 वर्षीय अन्ना सेबेस्टियन पेरायिल बेहोश हो गयीं, जो स्पष्ट रूप से विषाक्त कार्य संस्कृति के प्रभाव का मामला है. उनकी माता द्वारा दिये गये विवरण से एक भयावह कहानी उभरती है, जिसमें एक ऐसे आधुनिक और नींद से वंचित कार्य संस्कृति को सामान्य मान लिया गया है.

अन्ना ने उत्कृष्टता के साथ सीए योग्यता परीक्षा उत्तीर्ण की थी, लेकिन अर्न्स्ट एंड यंग के साथ चार महीने की नौकरी में ही वे चल बसीं. अर्न्स्ट एंड यंग इंडिया के चेयरमैन राजीव मेमानी को लिखे एक पत्र में अन्ना की मां अनीता ऑगस्टिन ने कहा कि कंपनी में हर कोई जानता था कि उनकी बेटी को ऐसे प्रबंधक के अधीन रखा गया था, जो अपने गैर-पेशेवर व्यवहार के लिए जाना जाता है. उन्होंने लिखा है कि ‘वास्तव में, अन्ना को उसके सहकर्मियों से उक्त प्रबंधक के संबंध में अनेक चेतावनियां मिली थीं. वह प्रबंधक अक्सर क्रिकेट मैचों के दौरान बैठकों के समय को बदल देता और दिन के अंत में उसे काम सौंपता था, जिससे उसका तनाव बढ़ जाता था. एक कार्यालय पार्टी में एक वरिष्ठ अधिकारी ने मजाक में यह भी कहा था कि उसे अपने प्रबंधक के अधीन काम करने में बहुत कठिनाई होगी. दुर्भाग्यवश, यह बात एक वास्तविकता बन गयी, जिससे वह बच नहीं सकी.

यह एक बेहद गंभीर मामला है क्योंकि इससे पता चलता है कि उक्त कंपनी को काम कराने के ऐसे तौर-तरीके की जानकारी थी, वह इसे सहन करती थी और शायद इसे प्रोत्साहित भी किया जाता था. इससे लेखांकन फर्मों की सबसे बड़ी वैश्विक चार संस्थाओं में से एक मानी जाने वाली इस कंपनी में पेशेवर व्यवहार की कमी पर सवाल खड़े होते हैं. क्या भारत को इन कंपनियों को ऐसी खुली छूट देनी चाहिए? जो गलत हुआ है, उसके लिए प्रमुख को जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए? मामले में कैसी जांच की जा रही है? ‘सौहार्दपूर्ण कार्यस्थल को पोषित करने’ की अपनी प्रतिबद्धता के बारे में बोलने के अलावा इस कंपनी ने अब तक इस मामले में क्या किया है? अर्न्स्ट एंड यंग तो एक वैश्विक संस्था है, भारत के घरेलू प्रौद्योगिकी क्षेत्र ने बहुत ही अलग लोकाचार और पृष्ठभूमि से उभरकर तेजी से विकास किया है. इसने देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभायी है.

इसने विशेष रूप से महामारी के दौरान अपनी पकड़ बनाये रखी तथा अपने विशाल कार्यबल को घर से काम का अवसर देकर बड़ी गति और दक्षता के साथ काम किया. इस क्षेत्र के कर्मी तब लंबे समय तक काम करते थे क्योंकि उन्हें कार्यस्थल तक आवाजाही नहीं करनी पड़ती थी. इससे कंपनियों को महंगे कार्यालयों का किराया बचाकर मुनाफा बढ़ाने में भी मदद मिली.

अब आईटी क्षेत्र में कई लोग घर से कार्य करना जारी रखने में सक्षम हो गये हैं. हालांकि कर्मचारियों के काम के घंटे कम नहीं हुए हैं, पर तनाव बढ़ रहा है. इस साल के शुरू में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि 43 प्रतिशत भारतीय तकनीकी-पेशेवर सीधे अपने काम कारण उत्पन्न हुईं स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं का अनुभव करते हैं. लंबे समय तक काम करना इन स्वास्थ्य समस्याओं में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता के रूप में उभरा है.

पचास प्रतिशत से अधिक तकनीकी-पेशेवर प्रति सप्ताह औसतन 52.5 घंटे काम करते हैं, जो 46.7 घंटे के राष्ट्रीय औसत से अधिक है, जिससे भारत सबसे लंबे समय तक काम करने वाले देशों में शुमार होता है. एक अन्य सर्वे में आधे से अधिक उत्तरदाताओं ने अनेक तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं सहित प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों का अनुभव करने की जानकारी दी. मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं भी गंभीर हैं. सर्वे में 45 प्रतिशत तकनीकी-पेशेवरों ने तनाव, चिंता और अवसाद से जूझने का खुलासा किया. ऐसी रिपोर्टों से पहले शायद इतनी चिंता नहीं हुई होगी. लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि सदमे और आलोचनाओं की बाढ़ ने सरकार के पास संज्ञान लेने और कार्रवाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा है.

केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने अन्ना के मामले और अर्न्स्ट एंड यंग में कार्य संस्कृति की जांच की घोषणा की है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को यह सुझाव देने के लिए विपक्षी दलों की आलोचना का सामना करना पड़ रहा है कि शैक्षणिक संस्थानों और अभिभावकों को बच्चों को चुनौतियों का सामना करने और काम में समस्याओं को हल करने के लिए आंतरिक शक्ति बनाने में मदद करनी चाहिए, न कि उनके नीचे दबकर रह जाना चाहिए. ऐसे समय में इंफोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति के बयान से होने वाले नुकसान का ख्याल आना स्वाभाविक है. कुछ समय पहले उन्होंने कहा था कि भारत के युवाओं को राष्ट्रीय उत्पादकता बढ़ाने में मदद के लिए सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए. पर हम देख सकते हैं कि कार्यस्थल उत्पादकता में वृद्धि नहीं करते, बल्कि निर्दोष नागरिकों की जान लेते हैं.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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