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जम्मू क्षेत्र में चौकसी बढ़ाने की जरूरत

लोकसभा चुनाव में स्थानीय दलों को नुकसान हुआ है. उन्हें उस पर समुचित विचार करते हुए जम्मू-कश्मीर को आतंकवाद और अलगाववाद से मुक्त कराने के प्रयासों में साथ देना चाहिए.

बीते कुछ सप्ताह से जम्मू क्षेत्र में आतंकी हमलों की घटनाओं में चिंताजनक बढ़ोतरी हुई है. इसी माह 15 दिनों में ही पांच बड़ी वारदात हुई हैं, जिनमें सुरक्षाकर्मियों समेत कई लोगों की जान गयी है. कुछ साल पहले तक आतंकी घटनाएं मुख्य रूप से कश्मीर घाटी तक सीमित थीं. हालात इस कदर बिगड़ चुके थे कि आतंकवादी गिरोह घाटी में खुलेआम अपनी गतिविधियों को अंजाम देते थे और उनके समर्थन में कुछ लोग सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी भी करते थे. तब जम्मू क्षेत्र में साल भर में ऐसी दो-तीन घटनाएं ही होती थीं. कुछ साल से, विशेष रूप से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के बाद कश्मीर घाटी में बहुत हद तक शांति स्थापित करने में सफलता मिली है. लेकिन जम्मू क्षेत्र में वारदातों की संख्या बढ़ी है. निश्चित रूप से यह प्रशासन और सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है. अलगाववादी और आतंकवादी संगठन मुख्य रूप से कश्मीर घाटी में ही सक्रिय रहे हैं. जनसंख्या की दृष्टि से देखें, तो जम्मू हिंदू-बहुल क्षेत्र है. वहां और लद्दाख में पाकिस्तान-समर्थित अलगाववाद को पैर पसारने की जगह नहीं मिल सकी. अभी तक जो जानकारियां हैं, इन आतंकी घटनाओं में शामिल आतंकी स्थानीय नहीं हैं.

सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से देखें, तो सुरक्षा बलों और संबंधित एजेंसियों का मुख्य ध्यान कश्मीर घाटी में रहा है, जो स्वाभाविक है. इसी तरह हमारा खुफिया तंत्र भी घाटी में ही अधिक मुस्तैद रहा है. जम्मू क्षेत्र में वैसी चौकसी और निगरानी नहीं रही है. इसका फायदा भी आतंकी गिरोह उठाने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ समय से खुफिया जानकारी हासिल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल बढ़ा है और लोगों के जरिये सूचना हासिल करने की प्रक्रिया धीमी पड़ी है. बदलते समय में तकनीक का अधिक इस्तेमाल जरूरी है, पर लोगों के माध्यम से आतंकी और अलगाववादी समूहों की गतिविधियों के बारे में पता करते रहना भी जरूरी है. जो स्थिति जम्मू-कश्मीर में है, उसमें आप छोटी से छोटी सूचना की अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकते. जैसा पहले कहा गया है, आतंकवाद से लड़ने के अधिक तंत्र कश्मीर घाटी में केंद्रित हैं, लेकिन जम्मू क्षेत्र में जो स्थिति पैदा हो रही है, उसे देखते हुए अब वहां भी बहुत सतर्कता एवं निगरानी बढ़ाने की आवश्यकता है. जम्मू क्षेत्र में तैनात सुरक्षाकर्मियों के प्रशिक्षण पर भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि वे आतंकियों का मुकाबला प्रभावी ढंग से कर सकें.

जब 2019 में भारत सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 हटाने का निर्णय लिया गया, तब से ही घाटी के अलगाववादियों, आतंकवादियों तथा उनके पाकिस्तानी प्रायोजकों में एक बड़ी बेचैनी रही है. कुछ मुस्लिम राष्ट्रों ने भी कश्मीर की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया था. लेकिन हाल के वर्षों में कश्मीर घाटी में हालात तेजी से सुधरे हैं तथा आतंकी घटनाओं और अलगाववादी गतिविधियों में बड़ी कमी आयी है. यह सरकार के विरोधी भी स्वीकार करते हैं कि कश्मीर में शांति बहाली से तथा विभिन्न योजनाओं से विकास में उल्लेखनीय तेजी आ रही है. निवेश भी बढ़ रहा है. जी-20 की भारत की अध्यक्षता के दौरान वहां अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए. पर्यटन में निरंतर वृद्धि हो रही है. युवा कश्मीरी, महिलाएं भी, शिक्षा, रोजगार, खेल आदि विभिन्न क्षेत्रों में अधिक भागीदारी कर रहे हैं.

बीते लोकसभा चुनाव में कई दशकों बाद बड़ी संख्या में कश्मीरियों ने मतदान किया है. इन सबसे यही इंगित हो रहा है कि आम कश्मीरी देश के विकास की मुख्यधारा से उत्साहपूर्वक जुड़ रहा है. इससे आतंकियों में हताशा का भाव पैदा होना स्वाभाविक है. अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि आतंकी गुट कश्मीरी युवाओं को बरगलाकर आतंक से जोड़ने में विफल हो रहे हैं. इससे पाकिस्तान भी बेचैन हो उठा है. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा की ओर से कहा गया कि अगले कार्यकाल में पाक-अधिकृत कश्मीर को हासिल करने की कोशिश की जायेगी. इससे भी अलगाववादी दबाव में आ गये. इन हताशाओं का एक परिणाम हम जम्मू क्षेत्र में आतंकी घटनाओं के रूप में देख रहे हैं.

जगजाहिर है कि आज जो पाकिस्तान में बदहाली है, उसका एक बड़ा कारण उसका आतंकवाद को शह देना है. पड़ोसी देशों को अस्थिर और अशांत करने की उसकी पुरानी नीति रही है. कुछ समय पहले पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के प्रमुख नवाज शरीफ ने कहा था कि करगिल में घुसपैठ और लड़ाई पाकिस्तान की गलती थी. उन्होंने यहां तक कहा था कि ऐसा करना तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ किये गये समझौते के साथ विश्वासघात था. अनेक ऐसे बयान भी वहां दिये गये हैं कि भारत से कारोबारी संबंध बढ़ाना चाहिए. पाकिस्तान ने बातचीत के प्रस्ताव भी भेजे हैं. हाल में यह प्रस्ताव भी आया कि दोनों देशों को द्विपक्षीय क्रिकेट खेलना चाहिए.

पर भारत ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि आतंकवाद और द्विपक्षीय वार्ता एक साथ नहीं चल सकते. बातचीत तभी संभव होगी, जब पाकिस्तान आतंकवाद को रोकेगा. पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण के अवसर पर सभी पड़ोसी देशों को आमंत्रित किया गया था, लेकिन पाकिस्तान को नहीं. साल 2014 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आमंत्रित थे और उसके बाद कुछ समय के लिए सकारात्मक माहौल भी बना था, पर कुछ समय बाद आतंकी घटनाओं में वृद्धि होने लगी. पाकिस्तान को अपनी ध्वस्त अर्थव्यवस्था और देश में बढ़ती अस्थिरता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए तथा भारत में आतंक को प्रश्रय देने से बाज आना चाहिए.

जिस प्रकार से कश्मीर घाटी में लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ जुड़े हैं तथा मुख्यधारा में अपनी भागीदारी बढ़ा रहे हैं, वह उत्साहजनक है. विकास कार्यों से कश्मीर में एक नयी इबारत लिखी जा रही है. निश्चित रूप से केंद्र सरकार और प्रदेश प्रशासन को अपने कार्यक्रमों का विस्तार करना चाहिए. इसमें राजनीतिक दलों, विशेषकर क्षेत्रीय दलों की भी सकारात्मक भूमिका हो सकती है. लोकसभा चुनाव में स्थानीय दलों को नुकसान हुआ है. उन्हें उस पर समुचित विचार करते हुए जम्मू-कश्मीर को आतंकवाद और अलगाववाद से मुक्त कराने के प्रयासों में साथ देना चाहिए. जम्मू-कश्मीर ने हिंसा व आतंक का बहुत लंबा दौर देखा है, जो अपने अंतिम चरण में है. पाकिस्तान और आतंकी गिरोह नहीं चाहते कि राज्य में अमन-चैन हो. हालिया हमलों को देखते हुए सुरक्षा इंतजामों को बढ़ाया जा रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बचे-खुचे आतंकियों पर जल्दी ही काबू पा लिया जायेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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