हिमाचल की त्रासदी से सीखने की जरूरत
वह हिमालय जो आसमान को छूता था, आज टूट-टूटकर मैदानों में बिखर रहा है. यह बड़ा प्रश्न है कि हम कैसे तय करें कि हमारा मॉडल क्या हो. एक मॉडल जो आर्थिकी के साथ पारिस्थितिकी और हिमालय को भी बचा पाये, वही यहां के लिए सटीक साबित होगा.
हिमाचल में बीते दिनों जो कुछ भी हुआ, वह हम सब की आंखें खोलने वाला है. यहां हुई इस बड़ी त्रासदी को हम हिमालय के त्रासदी के शुरुआत के रूप में देखें, तो ज्यादा बेहतर होगा. इसे देवभूमि भी कहते हैं, पर यहां इंद्रदेव की ऐसी कुदृष्टि पड़ी कि सब कुछ तहस-नहस हो गया. ऐसा कोई भी तथाकथित विकसित हिमाचल का शहरनुमा गांव नहीं बचा जो प्रकृति के इस रौद्र रूप से अपने को बचा सका हो. कुछ इस तरह के हालात पैदा हुए कि लगातार एक के बाद एक कहर ढाती बारिश ने पूरे राज्य की आर्थिक व सामाजिक पारिस्थितिकी को तहस-नहस कर दिया.
दुनिया में जाने जाने वाला हिमाचल प्रदेश, विकास के अग्रिम पायदानों पर खड़ा हिमालयी राज्य के रूप में जाना जाता रहा है. औद्योगिक विकास में यह एशिया के ऐसे प्रमुख राज्यों में शामिल है, जहां की आर्थिकी इस पर केंद्रित है. यह राज्य लंबे समय से पर्यटन पर भी केंद्रित रहा है. हिमाचल कई उद्योगों का घर भी बना. खासतौर से सीमेंट की फैक्ट्री हो या अन्य उद्योग, इन सबने भी हिमाचल में अपनी प्रभावी जगह बनायी. पर आज हिमाचल प्रकृति के एक झटके से कई वर्ष पीछे पहुंच गया है. यह न प्रकृति की देन थी, न ही प्रभु के किसी श्राप की.
इसका कोई बड़ा कारण था, तो वह मानव जनित था. अब हम चाहे हिमाचल में होने वाली सड़क निर्माण की बात करें, जिसकी सीधी कटाई को हम दोष देते हों, या फिर जगह-जगह बहुमंजिला इमारतों को खड़ा करने को. एक छोटे से गांव के बड़े शहर के रूप में परिवर्तित होने वाले शिमला की बात हो, या फिर अन्य वे विकास कार्य, जिनमें अंधाधुंध वनों के कटान की आवश्यकता हुई हो. यह सब मानव जनित अंधे विकास का प्रताप था. इसके अतिरिक्त, हाइड्रोपावर के लिए जिस तरह से नदियों में पनबिजली योजनाओं से लेकर बड़े बांधों तक का केंद्र हिमाचल प्रदेश रहा, और इन सबके अलावा जो सबसे ज्यादा भारी था, वह विकास की आड़ में यहां के पानी के रास्तों को अवरुद्ध करना था.
जब कभी भी विकास के ढांचे स्थान-विशेष के लिए बनाये जाते हैं, तो समुचित जल निकासी उसका महत्वपूर्ण हिस्सा होती है. कम से कम पहाड़ों के संदर्भ में इसका महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि यहां तमाम छोटी-मोटी नदियां पनपती हैं और उनके रास्ते इन्हीं पहाड़ों की गोद से निकलते हैं. किसी भी तरह के बड़े वन कटाव बहाव गति को चार गुना कर देते हैं. यही कारण है कि गर्मियों में हिमाचल के अधिकांश हिस्से पानी के अभाव में तरसते हैं और बरसात में इस तरह के संकट खड़े कर देते हैं.
इन सबके बावजूद हिमालय और हिमाचल के लोग ज्यादा दोषी नहीं समझे जा सकते, जितना कि अनिश्चित मौसम का बदलाव. दुनियाभर में होनेवाले बदलाव, जो पर्यावरण से संदर्भित हैं, चाहे वह वैश्विक तापन हो या जलवायु परिवर्तन, उन सबका सबसे अधिक असर यदि कहीं पड़ता है, तो वह हिमालयी क्षेत्र ही है. यह मात्र अपने देश की कहानी नहीं है, दुनियाभर के तमाम पर्वत आज जलवायु परिवर्तन के निशाने पर हैं. इसी कारण चीन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या यूरोप, सब बदलते पर्यावरण की सर्वाधिक क्षति को झेल रहे हैं.
हिमाचल की खबरें अपने देश में ताजी हैं, लेकिन अभी दुनियाभर में इस तरह की त्रासदियां बहुत अधिक कहर ढा रही हैं, ये वो त्रासदियां हैं जो प्रकृति की देन हैं. पर्यावरण ने इसी तरह से बदलाव दिखाकर हम सबको यह सबक देने की कोशिश की है कि हम कितने स्वार्थी हो चुके हैं. हिमालय के लोग बदलते पर्यावरण के लिए उतने दोषी नहीं हैं जितना वे लोग, जिनके विलासिता भरे जीवन से धरती का तापमान बढ़ा है और जलवायु परिवर्तन हो रहा है.
यहां का बड़ा दोष संभवत: यह है कि हम आज तक अपनी विकास की नीतियों को तय नहीं कर पाये, न ही उस शैली को, जो पहाड़ के अनुरूप हो. उसका कोई रोडमैप नहीं बना पाये. हमने हिमालय में तमाम राजनीतिक दलों को इस रूप में भी नहीं साधा कि उनकी प्राथमिकता क्या होनी चाहिए. हमने भी उसी रूटीन डेवलपमेंट के आधारों पर सरकारों को चुना है, तो इसमें राजनीतिक समाज को कैसे दोषी समझा जा सकता है. जबकि हम ही उनके विकास के एजेंडे पर अपने मतों का बलिदान कर देते हैं. यदि यहां की आर्थिकी प्रकृति, पर्यावरण या संसाधनों पर आधारित होती, तो शायद आज ऐसा कुछ नहीं होता जैसा हम देख रहे हैं.
एक बड़ी चुनौती हम सबके सामने यह है कि क्या हम हिमालयी राज्यों में हिमाचल को एक मॉडल मान सकते हैं? शायद अब इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें स्थानीय लोग भी कुछ दोषी हैं ही. शिमला, मंडी या फिर कुल्लू आदि पर जो भी कहर पड़ा, उसके नुकसान के लिए समाज भी बराबर का दोषी है. जब तक हम इसे स्वीकारेंगे नहीं, एक-दूसरे पर लांछन लगाते हुए हिमालय की बर्बादी के दोषी भी बनेंगे और उसको झेलेंगे भी. वह हिमालय जो आसमान को छूता था, आज टूट-टूटकर मैदानों में बिखर रहा है. यह बड़ा प्रश्न है कि हम कैसे तय करें कि हमारा मॉडल क्या हो. एक मॉडल जो आर्थिकी के साथ पारिस्थितिकी और हिमालय को भी बचा पाये, वही यहां के लिए सटीक साबित होगा.
(ये लेखक के निजी विचार है.)