Loading election data...

लोहिया के विचारों को समझने की जरूरत

डॉ राम मनोहर लोहिया को गुजरे 56 वर्ष हो गये, लेकिन आज भी इस तरह की गिरफ्तारियां हो रही हैं. सरकारों का विरोधी स्वरों को दबाना और उन्हें जेल में डालना उतना हैरतंगेज नहीं है, जितना परेशान करने वाली है ऐसे मामले में देश की चुप्पी

By अभिषेक रंजन | March 23, 2023 6:04 AM

आज समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया की 113वीं जयंती है. अनैतिकता, भ्रष्टाचार और पाखंड के दौर में उन्हें याद करना आत्मबल देने वाला है. उनके निधन से दो वर्ष पहले आधी रात को पटना के सर्किट हाउस से उनकी गिरफ्तारी हुई थी. उनका जुर्म केवल इतना था कि उन्होंने बिहार सरकार की नीतियों की आलोचना की थी.

उन्हें गुजरे 56 वर्ष हो गये, लेकिन आज भी इस तरह की गिरफ्तारियां हो रही हैं. सरकारों का विरोधी स्वरों को दबाना और उन्हें जेल में डालना उतना हैरतंगेज नहीं है, जितना परेशान करने वाली है ऐसे मामले में देश की चुप्पी. ऐसे में डॉ लोहिया को याद करना आंदोलन और असहमति की परंपरा को एक बार फिर से जीना है. डॉ लोहिया कई बार जेल गये. नौ अगस्त, 1965 को भी उन्हें गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि उन्होंने बिहार की तत्कालीन सरकार की जनविरोधी नीतियों की आलोचना की थी.

तब कृष्ण बल्लभ सहाय राज्य के मुख्यमंत्री थे. कहने को तो वे गांधीजी के अनुयायी थे और आजादी की लड़ाई में जेल जा चुके थे, लेकिन विरोध का स्वर उनसे बर्दाश्त नहीं हो सका. पटना के जिलाधिकारी जेएन साहू ने ‘डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स, 1962’ के नियम 30 के तहत उन्हें गिरफ्तार कर पटना के बांकीपुर जेल भेजने का आदेश जारी किया. डॉ लोहिया को सर्किट हाउस से रात के 12 बजे आगजनी एवं उपद्रव के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी गिरफ्तारी के बाद मुख्यमंत्री को लगा कि उन्हें बांकीपुर जेल में रखने से लाखों लोग आंदोलन के लिए उतर आयेंगे, इसलिए उन्होंने हजारीबाग सेंट्रल जेल ले जाने को कहा. हजारीबाग मुख्यमंत्री सहाय का गृह जिला था.

शासन के खिलाफ लड़ने वाला जब स्वयं शासक बन जाता है, तो वह पूर्ववर्ती सरकार की उन्हीं दमनकारी नीतियों पर चलने लगता है जिसके खिलाफ उसने जंग छेड़ी थी. स्वतंत्रता संग्राम के अनथक योद्धा डॉ लोहिया के साथ मुख्यमंत्री सहाय ने यही किया और अनैतिक तरीके से उन्हें गिरफ्तार करने की भूल कर बैठे. लोकतंत्र में तो पार्टियां आती-जाती रहती हैं और जनता ही स्थायी प्रतिपक्ष होता है. भारत में लोकतंत्र का स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी चिंता सदैव डॉ लोहिया को रहती थी.

नौ अगस्त, 1965 के अपने भाषण में डॉ लोहिया ने उस वर्ष आये अकाल का भी जिक्र किया था. उन्होंने मुख्यमंत्री के दायित्व पर कई तरह के प्रश्न उठाये और कहा कि राज्य की भूखी जनता को अन्न के बजाय भाषण खिलाया जाता है. यह अकाल प्राकृतिक हो या कृत्रिम, लेकिन भूख नकली नहीं है. इस जनसभा के बाद मुख्यमंत्री को लगा कि अगर डॉ लोहिया को गिरफ्तार नहीं किया गया तो उनकी सरकार के खिलाफ वे और जहर उगलेंगे. लोहिया सत्ता के नशे को लोकतंत्र का बड़ा शत्रु मानते थे. इसलिए वे बार-बार सत्ता से टकराते और जनमानस को जगाने का प्रयास करते थे.

दस अगस्त, 1965 को उन्हें हजारीबाग सेंट्रल जेल ले जाया गया. वहां से उन्होंने हिंदी में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जीबी गजेंद्र गडकर और लोकसभा अध्यक्ष हुकुम सिंह को चिट्ठी लिखी. पत्र मिलते ही न्यायालय ने मामले का गंभीरता से संज्ञान लिया और उनकी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर 23 अगस्त,1965 को सुनवाई की तिथि मुकर्रर कर दी. डॉ राम मनोहर लोहिया ने अपने मुकदमे की पैरवी खुद करने की मांग की, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया.

उन्होंने हिंदी में जिरह करना शुरू किया तो न्यायाधीशों ने उनसे अंग्रेजी में बोलने को कहा. इस पर उन्होंने कहा कि अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद भी कांग्रेस सरकार भारत को अंग्रेजी भाषा का गुलाम बनाये रखना चाहती है. जस्टिस एके सरकार, एम हिदायतुल्ला, दयाल रघुबर, जेआर मुढोलकर और आरएस बछावत समेत पांच न्यायाधीशों की पीठ बैठी. डॉ लोहिया ने संविधान के मूल अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद 21 और 22 का हवाला देते हुए तर्कपूर्ण बहस से सरकार की पूर्वाग्रह युक्त मंशा को साबित कर दिया. न्यायालय ने सात सितंबर, 1965 को डॉ लोहिया को बाइज्जत बरी करने का आदेश दिया, साथ ही पटना के जिलाधिकारी को कड़ी फटकार भी लगायी.

मौजूदा राजनीतिक विद्रूपताओं को देखते हुए डॉ लोहिया जैसी जुझारू व नैतिक आवाज की कमी खलती है. वे गांधीजी के सच्चे वैचारिक उत्तराधिकारी थे. समाज जब-जब अपनी विभूतियों को भूलता है, तब-तब वह भटकाव का शिकार होता है. क्या आज के वैचारिक शून्यता में हम उनके विचारों को फिर से समझने की कोशिश करेंगे?

Next Article

Exit mobile version