हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांचवीं बार नेपाल का दौरा किया. मीडिया में इस दौरे को लेकर काफी चर्चा भी रही. मीडिया ने दोनों देशों के बीच गर्मजोशी को दिखाया, लेकिन दोनों के बीच पहले से जो मुद्दे हैं, वे अब भी बरकरार हैं. गर्मजोशी का एक कारण यह भी है कि पहली बार इस दौरे पर सांस्कृतिक जुड़ाव को दिखाने और संबंधों को मजबूत करने की एक कोशिश दिखी.
बौद्ध धर्म के माध्यम से परस्पर जुड़ाव को मजबूत करने की दिशा में प्रयास किया गया. पिछले एक-डेढ़ महीने के भीतर दोनों ही देशों के प्रधानमंत्रियों ने एक-दूसरे देश की यात्राएं की हैं. इससे भी प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे का महत्व बढ़ जाता है. इससे लगता है कि आपसी संबंधों में धीरे-धीरे सुधार आ रहा है. नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में दोनों के बीच सीमा विवाद का मुद्दा छाया रहा है. हालांकि, अब भी उसका समाधान नहीं हुआ है और न ही उसके समाधान का कोई रास्ता दिख रहा है.
वह इसलिए भी हल नहीं हो सकता है, क्योंकि नेपाल के लोगों ने उसे संविधान में शामिल कर रखा है. जब तक संविधान में बदलाव नहीं होगा, तब तक वे कुछ नहीं कर सकते. उन्होंने मानचित्र जारी कर दिये हैं और उन्होंने दावा किया है कि यह हमारी जमीन है. इस मुद्दे को नेपाली राजनेताओं ने राष्ट्रवाद से जोड़ दिया है.
सीमा विवाद के मुद्दे का ज्यादा राजनीतीकरण हो जाने से विवाद के समाधान की राह मुश्किल हो गयी है. वहां का कोई भी नेता इस स्थिति में आसानी से बदलाव नहीं कर सकता और न ही उसके साथ वह कोई समझौता कर सकता है. सीमा के जिस हिस्से को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद उत्पन्न हुआ, उसका भारत के लिए विशेष सामरिक महत्व है, क्योंकि वह चीन को जोड़ने का अहम मार्ग है.
हमारी चीन के साथ उससे सीमा लगी हुई और हम बीते कुछ वर्षों से सामरिक नजरिये से महत्वपूर्ण उन सड़कों को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसी दशा में भारत भी इससे समझौता नहीं करेगा. दूसरी बात, सीमा का जो भी मसला तय होना है, वह प्रधानमंत्रियों के बीच नहीं होगा. उसके लिए सीमा से संबंधित एक समिति बनी हुई है, उसमें सीमा से जुड़े मसले हल होते हैं. उसी के माध्यम से इस समस्या का भी हल हो सकता है.
नेपाल में अभी चुनाव हो रहे हैं. कुछ महीने बाद वहां दिसंबर में फिर से चुनाव होंगे. तब तक हमारे यहां 2024 नजदीक आ जायेगा. इस प्रकार देखें, तो सीमा का मसला बहुत उलझा हुआ लगता है. राजनीतिक दृष्टिकोण से इस मसले का कोई आसान समाधान नहीं दिखता. फिलहाल, बेहतर यही होगा कि दोनों देशों की सरकारें इस मसले पर चुप रहें. इसे विवाद का मुद्दा न बनायें.
इसे राष्ट्रवाद के रूप में न देखा जाए. साथ ही, सीमा के मुद्दों को हल करने के लिए जो व्यवस्था बनायी गयी है, उससे ही इसका हल निकालने की कोशिश की जाए. बीते कुछ वर्षों में जिस तरह से चीन की नेपाल में दखल बढ़ रही है, वह भारत के लिए भी चिंताजनक है और यह चिंता केवल नेपाल को लेकर ही नहीं है, बल्कि दक्षिण एशिया के हमारे सभी पड़ोसी देशों को लेकर यह गंभीर चिंता का विषय है, चाहे वह श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान हो, यहां तक कि म्यांमार हो, मालदीव हो या भूटान हो, वह भारत के लिए एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है.
इसके लिए हमें एक स्पष्ट और ठोस नीति बनाने की दिशा में प्रयास करना होगा. चीन आक्रामक रूप से दक्षिण एशिया के देशों में अपनी पैठ बढ़ाना चाहता है. उसके पास आर्थिक साधन भी हैं. चीन इन देशों को आर्थिक प्रलोभन देकर उन देशों में अपनी दखल बढ़ा भी रहा है. इन सभी देशों में चीन राजनीतिक हस्तक्षेप भी कर रहा है. निश्चित ही चीन की चुनौती बढ़ी है, उसका सामना करने के लिए भारत की अभी बहुत ज्यादा सतर्कता नहीं दिखती है.
लेकिन, नेपाल में अभी प्रधानमंत्री का जो दौरा हुआ है, उससे यह संदेश दिया गया है कि सांस्कृतिक तौर पर हम ज्यादा मजबूत हैं और साझी सभ्यता हमें बेहतर तरीके से जोड़ती है. इसीलिए, हम सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बनाकर अपने हितों की रक्षा करेंगे और उसे बढ़ावा देंगे. निश्चित तौर पर यह एक बेहतर पहल है और इससे बेहतर तालमेल भी दिखता है.
दूसरी अहम बात है कि नेपाल में हमारी जो पहले से परियोजनाएं हैं, उसमें बहुत सारी लंबित भी हैं, उन सभी को ठीक करने की जरूरत है. हमें आर्थिक सहायता भी बढ़ाने की आवश्यकता है. सबसे महत्वपूर्ण है कि हमें राजनीतिक संवेदनशीलता से काम करना पड़ेगा. पिछली बार हमने नेपाल की नाकाबंदी कर दी थी. ऐसा हमें नहीं करना है. अगर हम ऐसे फैसले करेंगे, तो स्वभाविक तौर पर चीन के साथ नेपाल की नजदीकी बढ़ेगी.
इन बातों को ध्यान में रखते हुए बहुत हद तक हमें अपनी नीति में परिवर्तन करने की आवश्यकता है. हालांकि, चीन भी नेपाल के साथ सांस्कृतिक संबंधों को साधने की कोशिश कर रहा है. वहां भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं. कम्युनिस्ट सरकार ने पहले कहा कि हमें बौद्ध धर्म से कोई मतलब नहीं है, लेकिन अब उन्हें समझ में आ गया है और वे इसका राजनीतिक फायदा उठाने का प्रयास कर रहे हैं. दक्षिण एशिया के कई देशों में बौद्ध धर्म माननेवालों की काफी तादाद है. इसे देखते हुए चीन अपने दृष्टिकोण में बदलाव ला रहा है. इन सभी बातों पर गौर करते हुए हमें पड़ोसियों के साथ संबंधों की बेहतरी के लिए निरंतर प्रयत्न करना होगा. (बातचीत पर आधारित).