नयी राजनीति और मुख्यमंत्रियों का चयन
साल 2018 में भाजपा तीनों राज्यों में हार गयी थी, फिर भी 2019 में मोदी ने 65 में 62 सीटें जीतीं. राज्य के मामलों में उनकी सक्रिय भागीदारी मजबूत राज्य और मजबूत केंद्र को एकजुट करती है. ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ सुनिश्चित करने के लिए मोदी का एजेंडा है- ‘एक देश, एक नेता.’
यह नयी राजनीति का प्रारंभ है. इस नये दौर की राजनीति में मीडिया के पास संदेश नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही संदेश, संदेशवाहक और माध्यम है. भाजपा की संस्कृति में नव सामान्य को कोई अन्य रहस्यात्मक सूत्र कैसे विश्लेषित कर सकता है, जहां राज्यों के नये नेता पूर्ण आश्चर्य की तरह हैं? कोई राजनीतिक या मीडिया विशेषज्ञ दूर-दूर तक नहीं भांप सका कि मोदी लहर की बड़ी जीत के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नये राजनीतिक सीइओ कौन बनेंगे. जब इनके नाम सामने आये, तब सैकड़ों पत्रकार नये मुख्यमंत्रियों के गुण खोजने लगे. सबने कहा कि तीनों मोदी की अभिव्यक्ति हैं. तीनों मुख्यमंत्रियों- पहली बार विधायक बने राजस्थान के भजन लाल शर्मा, तीन बार के विधायक मध्य प्रदेश के मोहन यादव और राज्य इकाई के पूर्व अध्यक्ष रहे छत्तीसगढ़ के विष्णु देव साय- के चयन में जो समान कारक है, वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा. मोदी के इस आश्चर्यजनक चयन ने टीवी पर बतकही के लिए पूरा माहौल बना दिया. विश्लेषक इन निर्णयों को जातिगत समीकरण, क्षेत्र और संघ से जुड़ाव के आधार पर देख रहे थे. आगामी लोकसभा चुनाव में उनकी प्रासंगिकता पर भी चर्चा हुई. लेकिन इन नेताओं के बारे में जानने से अलग ही कहानी उभरती है.
क्या मोदी ने जातिगत राजनीति की है? बिल्कुल नहीं. अद्भुत अनपेक्षित मतैक्य के तत्व के साथ-साथ पुराने नेताओं की जगह नये चेहरों की मोदी की तलाश जारी है. छत्तीसगढ़ में आदिवासी नेता विष्णु देव साय का चयन पर आदिवासी क्षेत्र में भाजपा को मिले बड़े समर्थन का प्रभाव रहा. प्रधानमंत्री को आशा है कि यह समर्थन 2024 में भी बना रहेगा. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 29 सीटों में से 17 पर भाजपा ने जीत दर्ज की है. साल 2018 में उसे केवल तीन सीटें मिली थीं. राज्य में 15 साल शासन चलाने वाले कद्दावर नेता रमन सिंह के बाद उनकी जगह लेने वाला साय के अलावा कोई और नहीं था. साय पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष, तीन बार विधायक तथा एक बार सांसद रहे हैं. राजस्थान में जाति से ब्राह्मण भजन लाल शर्मा प्रधानमंत्री की पसंद हैं. चूंकि राज्य भाजपा में बहुत गुटबाजी है, इसलिए मोदी ने स्वच्छ छवि के व्यक्ति को चुना है. उन्होंने ताकतवर गुर्जर, मीणा और जाट नेताओं, जिनके पास जीती गयीं 115 सीटों का एक तिहाई से अधिक हिस्सा है, के दावों की अनदेखी कर सोचा-समझा जोखिम उठाया. मध्य प्रदेश में तीन बार के विधायक मोहन यादव गुटबाजी से परे हैं और जब स्थानीय नेता अपने पसंदीदा उम्मीदवारों के लिए लड़ रहे थे, तब वे धैर्य के साथ खड़े थे. इसी कारण उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. अगले साल के चुनाव में संख्या के लिहाज से मध्य प्रदेश में यादव और राजस्थान में ब्राह्मण कोई महत्वपूर्ण कारक नहीं हैं.
इन तीन नेताओं में जो समान कारक है, वह है उनकी ठोस हिंदुत्व पृष्ठभूमि. उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा संघ के जरिये शुरू की थी. उपमुख्यमंत्रियों के लिए मोदी के चयन में भी जाति महज संयोग की बात रही. छह नये खिलाड़ियों में केवल दो ब्राह्मण हैं- मध्य प्रदेश में राजेंद्र शुक्ल और छत्तीसगढ़ में विजय शर्मा. शेष चार विभिन्न समुदायों से हैं. ये चयन जाति की बाधाओं को तोड़ने या उन्हें कमजोर करने के मोदी के दर्शन के विस्तार हैं. यह प्रक्रिया महाराष्ट्र और हरियाणा से शुरू हुई थी. नागपुर के युवा ब्राह्मण देवेंद्र फड़नवीस को मराठा-बहुल महाराष्ट्र के लिए चुना गया था. हरियाणा को मनोहर लाल खट्टर के रूप में पहला पंजाबी संघ प्रचारक मुख्यमंत्री मिला. तब वे पहली बार विधायक बने थे. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का चयन अंतिम समय में हुआ था. तब वे विधायक भी नहीं थे. जब आनंदीबेन पटेल को अहमदाबाद से राज्यपाल बनाकर उत्तर प्रदेश भेजा गया, तब उनकी जगह कोई पटेल मुख्यमंत्री नहीं बना, बल्कि एक जैन विजय रुपाणी को चुना गया. अभी भाजपा के 12 मुख्यमंत्रियों से उनके राज्य के जातिगत समीकरणों का आभास नहीं होता. एक ब्राह्मण, दो अन्य पिछड़ा वर्ग और एक अनुसूचित जनजाति से है. शेष उच्च जातियों से हैं. कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं है, फिर भी महिलाओं ने बड़ी संख्या में मोदी को वोट दिया.
जैसे नयी पीढ़ी का चयन हो रहा है, वह उस भविष्य का सूचक है, जहां भाजपा आलाकमान को स्थानीय नेताओं से क्षेत्रीय स्तर पर केसरिया दूत बनने तथा बिना शर्त संघ के एजेंडे को आगे ले जाने की अपेक्षा होगी. यह भी इससे इंगित होता है कि मुख्यमंत्री के चयन में राज्य के नेताओं की भूमिका अत्यंत न्यून है. पुरानी भाजपा में पर्यवेक्षकों की राय के आधार पर संसदीय बोर्ड निर्णय लेता था. इस बार ऐसी कोई औपचारिक बैठक नहीं हुई. पर्यवेक्षक सीलबंद लिफाफा लेकर गये थे, जिसमें प्रधानमंत्री द्वारा चुना हुआ नाम था. उसे अंतिम क्षण में खोला गया. विधायक दल की बैठक से पहले ही यादव का नाम टीवी पर घोषित हुआ. किसी भी रिपोर्टर को भनक तक नहीं थी कि बैठक में क्या हो रहा है. मोदी ने अपने बड़े समर्थकों- खट्टर, राजनाथ सिंह, अर्जुन मुंडा- को पर्यवेक्षक बनाया, जो न तो मीडिया में छाये रहने की ललक रखते हैं और न ही लुटियन दिल्ली के बौनों के साथ उठते-बैठते हैं. आदिवासी नेता मुंडा को एक आदिवासी मुख्यमंत्री के लिए भेजा गया, तो खट्टर का जिम्मा शिवराज सिंह चौहान जैसे सफल एवं लोकप्रिय नेता की भावनाओं को शांत करना था. वरिष्ठ राजपूत और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह को ठाकुर और रजवाड़ा वर्चस्व वाले राज्य में एक नये चेहरे को पदस्थापित करने का कार्यभार दिया गया.
नये चेहरों से 2024 में मदद मिलने की गुंजाइश बहुत कम है. पिछले दोनों आम चुनाव राज्य के क्षत्रपों ने नहीं जीते थे, बल्कि जीत नरेंद्र मोदी के दमदार करिश्मे का नतीजा थी. उन्हें राम ने राजमुकुट दिया है और राम भक्ति उनका रथ चलाती है. वे अपने नये साथियों के लिए अल्फा और ओमेगा दोनों है तथा राम में आस्था उन्हें परस्पर जोड़ती है. साल 2018 में भाजपा तीनों राज्यों में हार गयी थी, फिर भी 2019 में मोदी ने 65 में 62 सीटें जीतीं. राज्य के मामलों में उनकी सक्रिय भागीदारी मजबूत राज्य और मजबूत केंद्र को एकजुट करती है. ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ सुनिश्चित करने के लिए मोदी का एजेंडा है- ‘एक देश, एक नेता.’ अपने दांवों से प्रधानमंत्री ने साबित कर दिया है कि वे पार्टी के मुख्य संरक्षक भी हैं और उसके रणनीतिक मानसिक संचालक भी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)