हर साल कुछ सबक देकर जाता है. हर साल नयी उम्मीदें लेकर आता है. नये साल का उत्सव मनाने के पीछे मान्यता यही है कि साल का पहला दिन अगर उल्लास के साथ मनाया जाए, तो पूरा साल उसी तरह बीतेगा. भारतीय मनीषीयों ने भी कहा है- बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय. जीवन के कुछ क्षेत्र हैं, जिनमें हस्तक्षेप करने पर हम सब विचार कर सकते हैं. सूचना तकनीक के क्षेत्र में हम भले ही सरताज हों, लेकिन हम अपनी परीक्षा पद्धति को सुधार नहीं पाये हैं. साल भर किसी न किसी राज्य से या तो बोर्ड अथवा प्रतियोगी परीक्षाओं के पर्चा लीक होने की खबर आती रहती है.
पेपर लीक के पीछे कोई गैंग योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहा होता है और हमारी व्यवस्था उनसे निपटने में नाकामयाब रहती है. ऐसी खबरें न केवल बच्चों, बल्कि उनके माता-पिता के लिए भी तनाव पैदा करती हैं. परीक्षाओं को लेकर बच्चे भारी तनाव में रहते हैं. कई बार यह तनाव दुखद हादसों को जन्म दे देता है. सरकारों को सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने वालों अपराधियों को कड़ी सजा मिले.
हाल में क्रिकेट खिलाड़ी ऋषभ पंत सड़क दुर्घटना में घायल हो गये. मुझे लगता है कि सड़क दुर्घटनाओं को लेकर व्यापक विमर्श की जरूरत है. एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में डेढ़ लाख से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी. वैसे तो ट्रैफिक नियमों की अनदेखी जैसे हमारे समाज में रची बसी है. नाबालिगों का वाहन चलाना और उल्टी दिशा में वाहन चलाना आम बात है और लगता है कि हम सभी ने इसे स्वीकार कर लिया है.
रात में तो ट्रैफिक नियमों को कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं की दो बड़ी वजहें बतायी गयी हैं- तेज रफ्तार और लापरवाही से वाहन चलाना. शराब पीकर वाहन चलाना देश में जन्मसिद्ध अधिकार जैसा माना जाने लगा है. दुनिया भर में सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाएं भारत में होती हैं. जान गंवाने वालों में सबसे अधिक संख्या युवाओं की होती है.
आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किसी युवा का किसी हादसे में चले जाना परिवार पर कितना भारी पड़ता होगा. हर जगह लोग यातायात नियमों की अनदेखी करते नजर आते हैं. यही लापरवाही सड़क हादसों को जन्म देती है. यदि सड़क हादसों से बचना है, तो हम सबको यातायात नियमों का पालन करना होगा.
साल दर साल यह कहानी दोहरायी जाती है. जाड़े का मौसम आते ही हवा भारी हो जाती है और उत्तर भारत के अनेक शहरों में प्रदूषण की चादर छा जाती है. पिछले कई वर्षों से लगातार प्रदूषण को लेकर चिंताजनक रिपोर्ट आ रही हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है. जैसे हम सभी किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहे हैं. देश की राजधानी गैस चैंबर बन जाए और वह भी मानव निर्मित कारणों से, लेकिन समाज में इसको लेकर कोई विमर्श नहीं हो रहा है.
हर साल दिल्ली में प्रदूषण को काबू करने के तमाम जतन फेल हो जाते हैं, क्योंकि दिल्ली से सटे राज्यों में बड़े पैमाने पर पराली जलायी जाती है. यह देश का दुर्भाग्य है कि हल निकालने के बजाय गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंकने की कोशिश की जाती है. बिहार और झारखंड के कई शहरों में भी हालात बहुत बेहतर नहीं हैं.
देश के विभिन्न शहरों से अगर व्यवस्था ठान ले, तो परिस्थितियों में सुधार लाया जा सकता है. सबसे पहले हमें प्रदूषण की गंभीरता को समझना होगा, फिर उससे निपटने के उपाय करने होंगे. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि लोगों को स्वच्छ हवा में सांस लेने का बुनियादी अधिकार है और कोई भी समाज पर्यावरण की अनदेखी नहीं कर सकता है.
दुनिया के लगभग सभी मतों में उपवास का महत्वपूर्ण स्थान है. इसका एक बड़ा वैज्ञानिक पहलू भी है. यह शरीर को स्वस्थ रखता है और अनेक व्याधियों से भी निजात दिलाता है. उपवास से तन और मन दोनों की शुद्धि होती है. कुछ समय पहले मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से एक दिलचस्प खबर आयी कि वहां एक अलग तरह का उपवास रखा गया. वहां सैकड़ों लोगों ने एक दिन के लिए मोबाइल, लैपटॉप सहित अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से दूरी बनाने का संकल्प लिया और अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण एक दिन के लिए मंदिर में जमा कर दिये.
इसे ई उपवास अथवा डिजिटल फास्टिंग का नाम दिया गया है. जैन समाज ने पर्यूषण के दौरान इस ई-उपवास की शुरुआत की. इसमें बड़ी संख्या में युवक-युवतियों ने हिस्सा लिया. जैन समाज की यह पहल सराहनीय है क्योंकि अब मोबाइल एक लत व बीमारी बन चुका है. उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में तो मोबाइल व इंटरनेट की बढ़ती लत से छुटकारा दिलाने के लिए मोतीलाल नेहरू मंडलीय अस्पताल में एक मोबाइल नशा मुक्ति केंद्र स्थापित किया गया है.
डॉक्टरों का कहना है कि मोबाइल की लत इतनी गंभीर है कि यदि किसी नवयुवक के हाथ से मोबाइल छीन लिया जाता है, तो वह आक्रामक हो जाता है. कुछेक मामलों में तो वे आत्महत्या करने तक की धमकी देने लगते हैं. इस लत ने सोना-जागना, पढ़ना-लिखना और खान-पान सब प्रभावित कर दिया है. ऐसे परिदृश्य में जैन समाज ने ई- उपवास की सराहनीय पहल की है. मुझे लगता है कि अन्य पंथों को भी इस दिशा में विचार करना चाहिए.
त्योहारों और जन्मदिन के मौकों पर परिचितों, मित्रों और रिश्तेदारों को उपहार देने की परंपरा है. मेरा सुझाव है कि उसमें किताबों को भी शामिल किया जाना चाहिए. पुरानी कहावत है कि किताबें ही आदमी की अच्छी व सच्ची दोस्त होती हैं. आजादी की लड़ाई हो या जन आंदोलन, सब में साहित्य और किताबों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. बावजूद इसके मौजूदा दौर में किताबों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. टेक्नोलॉजी के विस्तार ने किताबों के सामने गंभीर चुनौती पेश की है.
यह बहुत पुरानी बात नहीं जब लोग निजी तौर पर भी किताबें रखते थे और इसको लेकर लोगों में एक गर्व का भाव होता था कि उनके पास इतनी बड़ी संख्या में किताबों का संग्रह है. लेकिन परिस्थितियां बदली हैं. हिंदी भाषी क्षेत्रों की समस्या यह रही है कि वे किताबी संस्कृति को विकसित नहीं कर पाये हैं. आइए इस नये साल में उपहारों में किताबों को भी शामिल करें. नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.