नये बिहार का निर्माण किया नीतीश कुमार ने
राज्यपाल सरदार बूटा सिंह ने एनडीए के दावे को अस्वीकार कर दिया, तब तय हुआ कि राष्ट्रपति भवन जाकर विधायकों की परेड करायी जाए. लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हुई इस परेड का समूचा मीडिया प्रत्यक्षदर्शी बना.
फरवरी, 2005 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला. तब केंद्र में यूपीए सरकार थी. लालू प्रसाद और रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री थे, लेकिन दोनों में 36 का आंकड़ा था. पासवान रेल मंत्री पद चाहते थे, लेकिन संख्या बल में लालू प्रसाद बाजी मार गये, पर इस प्रकरण ने फरवरी, 2005 के चुनाव की भी पटकथा लिख दी और जिसका असर राजनीति को भविष्य के लिए भी परिभाषित कर गया.
लोक जनशक्ति पार्टी ने यूपीए से अलग अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया. चुनाव में राजद 75 स्थान प्राप्त कर पहले स्थान पर रहा था भाजपा और जद(यू) को क्रमश: 34 व 55 सीटें मिलीं. लोजपा ने 29 सीटें जीतकर सबको चकित भी किया और सत्ता की चाबी भी उसके ही पास रही. राजद और एनडीए बगैर लोजपा सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थे. लोजपा ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की घोषणा कर विचित्र स्थिति पैदा कर दी थी. कांग्रेस का बेबस नेतृत्व भी दोनों दलों को साथ लाने में असमर्थ रहा.
वहां के सामाजिक समीकरणों की जानकारी रखने वाले जानते थे कि राजद की मंडल राजनीति को कमंडल के जरिये नहीं पराजित किया जा सकता. यद्यपि उनका ऐसा प्रयोग उत्तर प्रदेश में सफल हो चुका था. मुलायम सिंह के मुकाबले लोध समुदाय के लोकप्रिय नेता कल्याण सिंह को आगे कर सत्ता प्राप्ति का रास्ता आसान हो गया था, लेकिन तब भाजपा पूरे तौर पर मंडल विरोधी और सवर्ण नेतृत्व के हाथ में थी, लिहाजा किसी पिछड़े समुदाय के नेता को अवसर देने का प्रश्न नहीं था.
राजद चौथे जनादेश की प्रतीक्षा में थी, लेकिन रामविलास के आगे उन्हें सत्ता से वंचित रहना पड़ा. इसी बीच यह चर्चा गर्म हो गयी कि अगर कोई स्थाई सरकार नहीं बनती है, तो नये चुनाव भी हो सकते हैं. इस चर्चा ने छोटे दलों एवं लोजपा को भयभीत कर दिया. जनता दल के नेतृत्व से भी कुछ विधायक संपर्क में थे. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडिस ने अपने आवास पर आपात बैठक की, जिसमें शरद यादव, नीतीश कुमार, ललन सिंह, प्रभुनाथ सिंह, दिग्विजय के अलावा प्रधान महासचिव के रूप में मैं भी उपस्थित था.
एक प्रस्ताव पर विस्तार से चर्चा हुई कि क्या विधायकों को तोड़ने के लिए धनराशि की भी व्यवस्था करनी होगी. दर्जनों विधायकों ने कहा था कि चुनाव में जो धन खर्च हुआ है, उसका बंदोबस्त भी जद(यू) को करना होगा. पार्टी का दृश्य देखने लायक था, जब अचानक बीच बैठक में नीतीश कुमार ने स्वयं को ऐसे किसी भी प्रयोग के लिए उपलब्ध ना कराने की घोषणा कर दी. बैठक समाप्त हो गयी, लेकिन इस घटनाक्रम से नीतीश कुमार अपना कद और ख्याति बढ़ा कर चले गये.
लोजपा एवं छोटे दलों में धीरे-धीरे अधिकतर विधायक एनडीए के साथ चलने को विवश थे. कई आपराधिक पृष्ठभूमि के भी थे, जो राजद शासन की अविलंब विदाई के पक्षधर थे. राज्यपाल सरदार बूटा सिंह ने एनडीए के दावे को अस्वीकार कर दिया, जब उन्हें 122 से अधिक विधायकों का प्रार्थना पत्र सौंपा गया. तय हुआ कि राष्ट्रपति भवन जाकर विधायकों की परेड करायी जाए.
लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हुई इस परेड का समूचा मीडिया प्रत्यक्षदर्शी बना, लेकिन शाम तक बूटा सिंह एक नये घटनाक्रम को अंजाम दे चुके थे. उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर डाली. रामविलास और लालू प्रसाद ने मंत्री होते हुए भी कैबिनेट की बैठक का बहिष्कार किया और उनकी अनुपस्थिति में ही राष्ट्रपति शासन के सिफारिश को मंजूरी दे दी गयी.
कई राजनीतिक दलों एवं मीडिया द्वारा इसे अनैतिक एवं असंवैधानिक बताया गया. सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने बहुमत से बूटा सिंह के फैसले को गलत साबित कर नया संवैधानिक संकट पैदा कर दिया. बूटा सिंह को इस्तीफा देना पड़ा. राष्ट्रपति अब्दुल कलाम इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने भी इस्तीफे की धमकी दे दी.
अक्तूबर, 2005 में मध्यावधि चुनाव की घोषणा हो चुकी थी. लोजपा को इस स्थिति का खलनायक माना गया, लिहाजा वह फरवरी जैसा वातावरण बनाने में असफल रही. मुख्य मुकाबला पुन: राजद और एनडीए में था, लेकिन गठबंधन अपने अंतर्विरोध के चलते सेनापति चुनने में असफल रहा. पहले चरण के चुनाव के बाद राजद की बढ़त के संकेत मिलने शुरू हो गये.
आडवाणी जी के हाथ में समूची कमान थी. मुझे स्मरण है कि एक दिन चुनाव प्रचार के क्रम में नीतीश कुमार के साथ पार्टी पदाधिकारी और पुराना साथी होने के नाते मैं भी था. दिल्ली स्थित एक पत्रकार मित्र भी इस यात्रा में शामिल थे.
अचानक पत्रकार मित्र के मोबाइल के जरिये सूचना मिली कि रांची में आडवाणी जी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में घोषणा की है कि यदि एनडीए सत्ता में आती है, तो उसके मुखिया नीतीश कुमार होंगे. इस घोषणा का जादुई असर सभाओं में भी दिखने लगा और चुनावी रुझानों में भी. नतीजे में जेडीयू और भाजपा क्रमश: 88 और 55 सीटें पाकर बहुमत की संख्या से काफी आगे बढ़ चुके थे. इस प्रकार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन नये बिहार के निर्माण में लगे.