इंडी गठबंधन में राहुल गांधी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव
Rahul Gandhi : कांग्रेस ने शुरुआत में दिल्ली में जोर-शोर से चुनावी मैदान में यह कोशिश शुरू भी की और ऐसा लगा कि इस बार मुकाबला त्रिकोणीय होने जा रहा है. लेकिन जल्द ही पार्टी ने कदम पीछे खींच लिए. कांग्रेस जानती है कि जमीन वापस पाने की कोशिश में भाजपा विरोधी वोटों में सेंध लगाना भाजपा को सत्ता में लौटने का न्योता देने जैसा है.
Rahul Gandhi : महज आठ महीने पहले आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस ने दिल्ली में मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा था.लेकिन राजनीति में समय बहुत तेजी से बदलता है.आज इसी दिल्ली में इंडी गठबंधन का मर्सिया पढ़ा जा रहा है.लेकिन इसके लिए अगर कोई चीज जिम्मेदार है तो वह है क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं और राहुल गांधी. जिनकी अपनी फंतासी दुनिया है जहां वे मोदी के खिलाफ लड़ रही सेना के सेनापति हैं. राजनीति इस तरह से स्याह और सफेद नहीं होती. राहुल गांधी के पास परिवार की विरासत है, तो आप नेता अरविंद केजरीवाल भी खुद को राहुल गांधी से कम क्यों समझें? वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में हैं और उनकी पंजाब में भी सरकार है. इतने कम समय में किसी क्षेत्रीय नेता के इतनी उपलब्धियां हासिल कर पाने का भारतीय राजनीति में कोई और उदाहरण नहीं है.उधर, यूपीए की सरकार में 10 साल तक सुपर प्रधानमंत्री रहे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनावी पराजयों का विश्व रिकार्ड बनाने के करीब हैं.जाहिर है कि ऐसे में केजरीवाल राहुल गांधी को अपना नेता क्यों मानेंगे.
यही इंडी गठबंधन का अतर्विरोध है. यहां सभी की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं. हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है. वजह यह है कि गठबंधन की नेतृत्वकर्ता यानी कांग्रेस अब इस हद तक कमजोर है कि वह सहयोगी दलों की बैसाखियों पर खड़ी है. उधर, सहयोगी दल भी जानते हैं कि उन्होंने कांग्रेस की जमीन कब्जाई है और स्वाभाविक है कि कांग्रेस अपनी जमीन वापस पाना चाहेगी. ऐसे में इंडी गठबंधन की लड़ाई वास्तव में आपसी है. क्षेत्रीय दल जिनका मुख्य मुकाबला भाजपा से है, वे हरगिज नहीं चाहते कि कांग्रेस उनके प्रभाव क्षेत्र में उन्हें चुनौती दे. हालांकि कांग्रेस को अपना वजूद बचाना है तो उसे यह करना होगा.
कांग्रेस ने शुरुआत में दिल्ली में जोर-शोर से चुनावी मैदान में यह कोशिश शुरू भी की और ऐसा लगा कि इस बार मुकाबला त्रिकोणीय होने जा रहा है. लेकिन जल्द ही पार्टी ने कदम पीछे खींच लिए. कांग्रेस जानती है कि जमीन वापस पाने की कोशिश में भाजपा विरोधी वोटों में सेंध लगाना भाजपा को सत्ता में लौटने का न्योता देने जैसा है. लिहाजा राहुल, प्रियंका गांधी व मल्लिकार्जुन खड़गे दिल्ली चुनाव से तकरीबन नदारद हैं. राहुल गांधी की दो प्रस्तावित रैलियां खराब स्वास्थ्य के आधार पर रद्द कर दी गईं. अजय माकन ने केजरीवाल को भ्रष्टाचारी साबित करने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई, लेकिन वे खुद ही उसमें नहीं पहुंचे. यानी साफ है कि कांग्रेस चाहती है कि केजरीवाल भले ही जीत जाएं लेकिन भाजपा नहीं जीते जो कि उसकी सबसे बड़ी विरोधी है. कांग्रेस के मजबूती से लड़ने पर दलित-मुस्लिम वोटरों में बंटवारा भाजपा के दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के सपने को पूरा कर सकता है. इसी का नतीजा है कि चुनाव दिल्ली में हैं लेकिन राहुल और खड़गे रैली मध्य प्रदेश में कर रहे हैं. हालांकि केजरीवाल के कांग्रेस पर लगातार हमलावर रहने और पार्टी के दबाव में राहुल गांधी चुनाव के आखिर में उतरे और शीशमहल व शराब घोटाले को लेकर केजरीवाल पर ताना कसा. हालांकि खबरों के अनुसार राहुल चुनाव से दूरी बनाए रखने और केजरीवाल के प्रति नरमी के पक्ष में थे लेकिन अंत में उम्मीदवारों का दबाव काम आया.
हालांकि जोर-शोर से दिल्ली चुनाव में उतरने के बाद कदम पीछे खींचने वाली कांग्रेस की इस दरियादिली के बावजूद इंडी के सहयोगी दल अब राहुल गांधी को नेता मानने को तैयार नहीं दिख रहे. दरअसल ज्यादातर सहयोगी दल कांग्रेस की कमजोरियों से वाकिफ हो चुके हैं. वे देख रहे हैं कि जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है, वहां वह टिक नहीं पा रही है. ऐसे में कांग्रेस के लिए दो ही रास्ते हैं.या तो वह उन राज्यों में जहां उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है, वहां अपनी स्थिति मजबूत करे या फिर जिन क्षेत्रीय दलों ने राज्यों में उसकी जमीन छीनी है, उसे फिर से वापस पाने की कोशिश करे. राष्ट्रीय पार्टी होने का दावा कर कांग्रेस उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों में खुद के लिए हैसियत से ज्यादा सीटों की मांग करती है तो हरियाणा, महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश में उन्हें एक भी सीट नहीं देना चाहती. राजनीति में कोई रियायत नहीं होती और अब लगातार पराजयों से कांग्रेस की सहयोगी दलों से सौदेबाजी की ताकत काफी कम हो गई है.
लोकसभा में 99 सीटें जीत कर ही कांग्रेस ने खुद को विजेता मान लिया लेकिन अति आत्मविश्वास में वह हरियाणा जैसा राज्य हार गई जहां उसकी जीत तय मानी जा रही थी.उसके बाद महाराष्ट्र में बेहद करारी पराजय ने रही-सही कसर पूरी कर दी.सहयोगी दल इसका ठीकरा कांग्रेस और खास तौर से राहुल गांधी पर फोड़ रहे हैं जो खुद को नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाला नेता के तौर पर पेश करने के फेर में अपने सहयोगियों को असहज करने वाली स्थिति में डालते रहे हैं. खास तौर से महाराष्ट्र में जहां वीर सावरकर के खिलाफ लगातार उनके बयान सहयोगी शिव सेना को असहज करते रहे. महाराष्ट्र में वीर सावरकर के प्रति खासा सम्मान है और ऐसे में राहुल की इस बयानबाजी का उल्टा असर देखने को मिला.पराजयों का नतीजा ये है कि अब इंडी के सहयोगी दल भाजपा की ओर देख रहे हैं.महाराष्ट्र में जहां शरद पवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के समर्पण की प्रशंसा कर रहे हैं तो उद्धव ठाकरे की शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की तारीफ की जा रही है.
अब हाल ये है कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि इंडी गठबंधन है या नहीं तो तेजस्वी के अनुसार गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव तक था.उमर अब्दुल्ला के अनुसार अगर यह गठबंधन लोकसभा चुनाव तक ही था तो अब इसे खत्म कर देना चाहिए. लगे हाथ वे यह भी कहते हैं कि इस गठबंधन के पास न कोई एजेंडा और न ही कोई नेता. शिव सेना (यूबीटी) के संजय राउत का कहना है कि गठबंधन का सबसे बड़ा दल होने के नाते इंडी ब्लाक को एकजुट रखना कांग्रेस की जिम्मेदारी है.अगर गठबंधन का वजूद नहीं बचा है तो कांग्रेस को इसकी घोषणा कर देनी चाहिए.जाहिर है कि इंडी के लिए एक नया नेता चुनने का वक्त आ गया है.क्षत्रपों की बात करें तो शरद पवार 84 साल के हैं तो ममता बनर्जी भी 70 साल से ज्यादा की हैं और हिंदी पट्टी में उनका जनाधार नगण्य है.ऐसे में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भाजपा को पटखनी देकर देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने वाले सपा प्रमुख अखिलेश यादव विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व के लिए एक स्वाभाविक दावेदार हो सकते हैं.
लेकिन राहुल गांधी पर लगातार उठ रहे सवालों से लगता नहीं कि इंडी गठबंधन का वजूद बचा है.दिल्ली का विधानसभा चुनाव जैसे इंडी बनाम इंडी हो गया है, जिसमें शरद पवार की एनसीपी, उद्ध ठाकरे की शिवसेना, ममता बनर्जी और सपा के अखिलेश यादव जैसे तमाम नेता खुलकर केजरीवाल के समर्थन में पहले दिन से ही हैं. वे चुप भी रह सकते थे लेकिन उनका इस मुद्दे पर मुखर होना स्पष्ट रूप से राहुल गांधी के खिलाफ एक अविश्वास प्रस्ताव है. इंडी एलायंस के सहयोगी क्षेत्रीय दलों के लिए कांग्रेस अभी भी वह पार्टी नहीं है जो अपने दम पर इतनी सीटें ला सके जो उनके सहयोग से केंद्र में सरकार बना सके.
(लेखक मीडिया रणनीतिकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं)