आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर
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नयी शिक्षा नीति के प्रारूप की घोषणा हो गयी है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव है कि अब 10+2 नहीं, बल्कि 5+3+3+4 का मॉडल अपनाया जायेगा. बच्चों को शुरू से ही कौशल आधारित शिक्षा दी जायेगी, जिससे कि वे भविष्य के लिए खुद को बेहतर तैयार कर सकें. इसके अलावा बोर्ड परीक्षाओं में अंकों के दबाव को कम करने के लिए सिद्धांत आधारित शिक्षा पर जोर होगा. पाठ्यक्रम में मातृभाषा को प्राथमिकता दी जायेगी, जिससे कि बच्चे अपनी क्षेत्रीय भाषा में पढ़ सकें. इससे उन लाखों छात्रों सहूलियत होगी, जो मातृभाषा में पढ़ना चाहते हैं. नयी नीति में कहा गया है कि बच्चों द्वारा सीखी जाने वाली तीन भाषाएं, राज्यों, क्षेत्रों और छात्रों की पसंद की होंगी. इसके लिए तीन में से कम-से-कम दो भाषाएं भारतीय मूल की होनी चाहिए.
नये वैश्विक परिदृश्य में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बढ़ती अहमियत को देखते हुए छठी कक्षा से ही बच्चों को कोडिंग आदि पढ़ाने की बात की गयी है. नयी नीति में ऑनलाइन शिक्षा पर खासा जोर दिया गया है और इसे बढ़ावा देने की सिफारिश की गयी है. इसके तहत ई-पाठ्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित किये जायेंगे और राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फोरम के तहत वर्चुअल प्रयोगशालाओं से स्कूलों को प्रयोग आधारित विज्ञान शिक्षा को सुलभ कराने में सुविधा होगी. नयी शिक्षा नीति के प्रारूप में विभिन्न माध्यमों से ऑनलाइन पढ़ाई पर जोर दिया गया है, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि जहां इंटरनेट, टीवी और निरंतर बिजली उपलब्ध न हो, वहां बच्चे इन सुविधाओं का कैसे लाभ उठा पायेंगे? डिजिटल शिक्षा को बढ़ाना देना सराहनीय कदम हैं, लेकिन इसके समक्ष चुनौतियां बहुत हैं.
यह मान लिया गया है कि कक्षाओं का विकल्प ऑनलाइन शिक्षा है, लेकिन यह हम सबको समझने की जरूरत है कि ये बदलाव बेहद मुश्किल हैं और इसमें ढेरों चुनौतियां हैं. कोरोना ने शिक्षा के चरित्र को पूरी तरह बदल दिया है. कोरोना के कारण शिक्षा के स्वरूप में अचानक जो भारी बदलाव आया है, उससे उत्पन्न चुनौतियों पर गंभीर चिंतन नहीं हो रहा है. वर्चुअल कक्षाओं ने इंटरनेट को एक अहम कड़ी बना दिया है. वर्चुअल क्लास रूम की खूब चर्चा हो रही है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में एक बड़े तबके के पास न तो स्मार्ट फोन है, न कंप्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है. जाहिर है कि गरीब तबके पर अपने बच्चों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने का दबाव बढ़ गया है. गरीब तबका इस मामले में पहले से ही पिछड़ा हुआ था, कोरोना ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है.
हाल में शिक्षा को लेकर कई चौंकाने वाली खबरें आयीं. उन पर नजर डालना जरूरी है. हाल में उप्र की दसवीं बोर्ड परीक्षा का परिणाम आया, जिसमें बाराबंकी के अभिमन्यु वर्मा ने 95.83 प्रतिशत अंकों के साथ टॉपर्स की सूची में दूसरा स्थान हासिल किया है. अभिमन्यु के पिता साधारण किसान हैं. उन्होंने मीडिया से बातचीत में बताया कि बेटे की पढ़ाई अच्छी तरह से हो, इसके लिए उन्होंने दस बीघा जमीन बेची थी. दूसरी खबर हिमाचल प्रदेश से आयी है, जहां एक गरीब परिवार को स्मार्टफोन खरीदने के लिए अपनी आय के स्रोत, गाय को बेचना पड़ा.
कुलदीप कुमार कांगड़ा जिले के ज्वालामुखी तहसील के गुम्मर गांव में रहते हैं. उन्हें अपने बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन खरीदना जरूरी था. उनकी बेटी और बेटा एक सरकारी स्कूल में कक्षा चौथी और दूसरी कक्षा में पढ़ते हैं. राज्य के स्कूलों ने महामारी के मद्देनजर ऑनलाइन कक्षाएं शुरू की हैं. कुलदीप ने मीडिया से बातचीत में कहा कि वे बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए स्मार्टफोन नहीं खरीद पा रहे थे, तो छह हजार में एक गाय बेच दी. वह दूध बेच कर आजीविका चलाते हैं और पत्नी दिहाड़ी मजदूर हैं. गाय बेचने से पहले उन्होंने कर्ज लेने की कोशिश की थी, लेकिन असफल रहे. हालांकि उनकी समस्या खत्म नहीं हुई है, क्योंकि फोन एक है और उससे दो बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पा रही है.
तीसरी खबर मध्य प्रदेश के रीवा जिले के खुजवाह गांव से आयी. वहां के किसान लोकनाथ पटेल के चार बच्चे हैं. उनकी दूसरी बेटी स्मृति ने रीवा में रह कर अंग्रेजी माध्यम से पढाई की. लोकनाथ की माली हालत ठीक नहीं थी. बेटी की पढ़ाई के लिए उन्होंने जमीन बेच दी. स्मृति ने बीए व एलएलबी किया और फिर भोपाल से एलएलएम की परीक्षा पास की. इसके बाद उसने न्यायिक परीक्षा पास की. अब वह सागर जिले में सिविल जज के रूप में काम कर रही है. कोरोना संकट के कारण देशभर के स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों में ऑनलाइन कक्षाएं चल रही हैं. इस ऑनलाइन क्लास में शामिल नहीं हो पाने के कारण केरल में 14 साल की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली. आत्महत्या करने वाली छात्रा केरल के मालापुरम जिले के सरकारी स्कूल की छात्रा थी. लड़की के माता-पिता दिहाड़ी मजदूरी हैं और लॉकडाउन के कारण वे टीवी सेट ठीक नहीं करा पाये थे. इस परिवार के पास कोई स्मार्टफोन नहीं है, जिससे बेटी ऑनलाइन क्लास में शामिल हो पा रही थी.
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों पर भी गौर करना जरूरी है. इसके अनुसार केवल 23.8 फीसदी भारतीय घरों में ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है. इसमें ग्रामीण इलाके भारी पीछे हैं. शहरी घरों में यह उपलब्धता 42 फीसदी है, जबकि ग्रामीण घरों में यह 14.9 फीसदी ही है. केवल आठ फीसदी घर ऐसे हैं, जहां कंप्यूटर और इंटरनेट दोनों की सुविधाएं उपलब्ध हैं. पूरे देश में मोबाइल की उपलब्धता 78 फीसदी आंकी गयी है, लेकिन इसमें भी शहरी और ग्रामीण इलाकों में भारी अंतर है. ग्रामीण क्षेत्रों में 57 फीसदी लोगों के पास ही मोबाइल है. कुछ समय पहले शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फांडेशन’ की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 59 फीसदी युवाओं को कंप्यूटर का ज्ञान ही नहीं है. इंटरनेट के इस्तेमाल की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. लगभग 64 फीसदी युवाओं ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल ही नहीं किया है.
सबसे चिंताजनक बात यह है कि देश के प्राइवेट और सरकारी स्कूलों की सुविधाओं में भी भारी अंतर है. सरकारी संस्था डीआइएसइ के आंकड़ों का विश्लेषण करें, तो पायेंगे कि अब गरीब तबका भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहता है. 2011 से 2018 तक लगभग 2.4 करोड़ स्कूली बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ कर निजी स्कूलों में दाखिला लिया है. स्थिति यह है कि लगभग 12 करोड़ यानी लगभग 47.5 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करते हैं. इसकी वजह यह है कि सरकारी स्कूल अभी तक बुनियादी सुविधाओं को जुटाने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में वे कैसे ऑनलाइन क्लास की सुविधा जुटा पायेंगे? हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि शिक्षा पर हर बच्चे का समान अधिकार है और यह सर्वसुलभ होनी चाहिए.